Book Title: Updesh Shuddh Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Akhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj

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Page 235
________________ गाथा-४११,४१२*----- ------ KEE *********** श्री उपदेश शुद्ध सार जी को जाना है उसे इन्द्र भी डिगाने आयें तो वह अपनी मान्यता से नहीं * डिगता। १२. अज्ञान भावन्यानी अन्मोय अन्यानं, अन्यान परिनामनन्त विरयंति। आवरनं नहु उत्त, न्यानं अन्मोय कम्म विलयति ।। ४११॥ अन्वयार्थ- (न्यानी अन्मोय अन्यानं) ज्ञानी होकर तुम अज्ञान की अनुमोदना कर रहे हो (अन्यान परिनाम नन्त विरयंति) अज्ञान परिणाम तो सारे विला जाने वाले हैं (आवरनं नहु उत्तं) आवरण की क्या कहते हो, उसकी चर्चा ही मत करो (न्यानं अन्मोय कम्म विलयंति) ज्ञान का आलंबन रखो यह सब कर्म विला जायेंगे। विशेषार्थ-१२.अज्ञानभाव- अपने स्वरूप की विस्मृति ही अज्ञान है, अज्ञानभाव में बहना उचित नहीं है, जब परीक्षा और स्वसंवेदन ज्ञान द्वारा अनुभव कर लिया कि आत्मा का यथार्थ स्वभाव ज्ञान दर्शन मात्र है। इसमें राग-द्वेष की लहरें मोह वश पुद्गल में अपनापन मानने के कारण उठती हैं और यही कर्मबंध का मूल है। कर्मजनित पर्यायों को ही अपना मानना अज्ञान है। यदि परीक्षा पूर्वक इन सब बातों पर विचार करो, अपने स्वभाव-विभाव का बोध प्राप्त कर उस पर दृढ़ विश्वास लाओ तो निष्कर्म होकर अपने शुद्ध स्वभाव को पाकर कृत कृत्य परमात्मा हो सकते हो। यह आवरण की चर्चा ही मत करो, अपने ज्ञान स्वभाव में रहो तो यह सब अज्ञान भाव विला जायेगा। सम्यक्दर्शन सहित जो मति श्रुत ज्ञान है वह केवलज्ञान का अंश है। चेतना गुण का अनुभव करने वाला ज्ञानी अन्य सब विकल्पों को छोड़ देता है । चेतना गुण के अनुभव से समस्त विपरीतताओं का नाश हो जाता है। १३. अनिष्ट भाव अनिस्ट सहाव सहियं, अनिस्ट परिनामसयल गलियं च। ____ आवरनं नहु जुत्तं, न्यान सहावेन अनिस्ट विलयन्ति ।। ४१२ ।। अन्वयार्थ - (अनिस्ट सहाव सहियं) अनिष्ट स्वभाव सहित हो रहे * हो (अनिस्ट परिनाम सयल गलियं च) अनिष्ट परिणाम सारे गल जाने वाले हैं **** * ** (आवरनं नहु जुत्तं) आवरण में युक्त मत होओ (न्यान सहावेन अनिस्ट विलयन्ति) ज्ञान स्वभाव से सब अनिष्ट भाव विला जाते हैं। विशेषार्थ - १३. अनिष्ट भाव - शल्य, संकल्प-विकल्प रूप परिणाम, ऐसा न हो जाये, ऐसा हो गया तो फिर क्या होगा? यह उचित है, यह अनुचित है, यह इष्ट है, यह अनिष्ट है, यह मल दोष कहलाते हैं, जो सब औदयिक भाव हैं। सम्यकदृष्टि यद्यपि कर्म के उदय की बलवत्ता से इंद्रियों को वश में करने में असमर्थ है इसलिये पंचेन्द्रियों के विषय सेवन करता है तो भी उसको उनसे रुचि नहीं है । ज्ञानी पुरुष व्रतादि शुभाचरण करता हुआ भी उनके उदय जनित शुभ फलों की वांछा नहीं करता, यहां तक कि व्रतादि,शुभाचरणों को आत्म स्वरूप के साधक जानकर आचरण करते हुए भी हेय जानता है। सम्यकदृष्टि जीव जानता है कि शुभाशुभ कर्मों के उदय से जीवों की अनेक प्रकार विचित्र दशा होती है, कदाचित् मेरा भी अशुभ उदय आ जावे तो मेरी भी ऐसी ही दुर्दशा होना कोई असंभव नहीं है इसलिये वह दूसरों को हीन बुद्धि से या ग्लान दृष्टि से नहीं देखता। सम्यक्दृष्टि जीव को दृढ श्रद्धान हो जाता है कि मैं आत्मा शुद्ध चैतन्य शक्ति युक्त होता हुआ कर्मावरण के कारण क्षायोपशमिक ज्ञान दर्शन रुप अनेकाकार हो रहा हूं। राग-द्वेष से मलिन हो निजात्म स्वरूप को छोड़ अन्य पर पदार्थों में रत हो रहा हूं; इसलिये कब चारित्र धारण कर राग-द्वेष का समूल नाश करूं और निष्कर्म होकर निज स्वरूप में लीन हो शांत दशा प्राप्त करूं। यह अनिष्ट भाव सब विला जाने वाले हैं, आवरण को मत देखो, अपने ज्ञान स्वभाव का आलंबन रखो, ज्ञानोपयोग करो,यह सब अनिष्ट भाव विला जायेंगे। प्रश्न- एक तरफ स्वभाव की इतनी उत्कहता,श्रेष्ठता है.परमात्म स्वरूप है और पर्याय की इतनी पामरता, नीच निकृष्ट दशा, यह कैसा विरोधाभास है? समाधान-आत्मा स्वभाव से तो अनादि निधन सर्वोत्कृष्ट श्रेष्ठ परमात्म स्वरूप है परंतु पर्याय से अनादि से ऐसा ही नीच निकृष्ट हो रहा है। अपने स्वरूप की विस्मृति से अज्ञानी मिथ्यादृष्टि बना पर्याय में ही एकमेक हो रहा है। जिसे अपने आत्म स्वरूप का बोध हो जाता है, पर्याय से भिन्नता का श्रद्धान २३५ ज्ञान हो जाता है, वही सम्यक्दृष्टि ज्ञानी है तथा वह अपनी स्वभाव साधना से *HEHERE E-E-5-15-3-E-E

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