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-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
सोते उठते और बैठते, ममल ज्ञान कह जाता है। रे मानव मत भूल कि तू ही, अपना भाग्य विधाता है ॥ जीवन भर यदि छूट न पाया, तुझसे यह गोरख धंधा । तो बांधे बिन रहन सकेगा, तुझको नरकों का फंदा ॥ तू ही आतम परमातम है, सब तत्त्वों में तत्त्व महान । तेरे हाथों में बंधन है, तेरे हाथों में निर्वाण ॥ लेकिन यदि तू इस देही में ही, मन को भरमायेगा । जन्म-जन्म तक थावर गति से, मुक्त नहीं हो पायेगा ॥
दिव्य ध्वनि के समय सामने धर्म समझने वाले जीव होते ही हैं, भगवान की वाणी में ऐसे न्याय निकलते हैं कि समझने वाले को अपने में धर्म वृद्धि का निमित्त होता है । उस वाणी में कहीं भी पुरुषार्थ हीनता का आशय नहीं निकलता ।
प्रश्न- व्यंजन से क्या प्रयोजन सिद्ध होता है ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - विजन सहाय विन्यानं, विन्यानं जानति अलब ल च । न्यान हीन पज्जावं, न्यानं आवरन दुग्गए पत्तं ।। ३३३ ।। विंजन विन्यान जनये, लोकं अवलोक लोक सु
जड़ पज्जाव संजुतं, न्यानं आवरन दुग्गए प ।। ३३४ ।।
अन्वयार्थ - (विंजन सहाव विन्यानं) विज्ञान को व्यंजन स्वभाव भी कहते हैं क्योंकि यह अपने को प्रगट है (विन्यानं जानंति अलष लष्यं च ) विज्ञान से अलख आत्मा को लखा जाता है अर्थात् भेदविज्ञान से ही आत्मा की अनुभूति होती है (न्यान हीन पज्जावं) जो ज्ञानहीन है, जिसका शरीरादि पर्याय में मोह है (न्यानं आवरन दुग्गए पत्तं) वह ज्ञानावरण कर्म को बांधकर दुर्गति में जाता है ।
(विंजन विन्यान जनयं) शास्त्र द्वारा व गुरु द्वारा ज्ञान का मनन करने से आत्मा और अनात्मा का विवेक रूप भेदविज्ञान पैदा होता है (लोकं अवलोक लोकनं सुद्धं) भेदविज्ञान में सर्वज्ञ स्वरूप केवलज्ञान होता है, जो लोक अलोक
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गाथा ३३३, ३३४ *******
को एक काल में देखता जानता है (जइ पज्जाव संजुत्तं) यही ज्ञानोपयोग यदि पर्याय में रत होता है तो (न्यानं आवरन दुग्गए पत्तं) ज्ञानावरण का बंध होकर दुर्गति की प्राप्ति होती है।
विशेषार्थ - व्यंजन भी विज्ञान रूप स्वभाव को ही कहते हैं। भेदविज्ञान से ही अलख स्वरूप आत्मा को जाना जाता है। यह ज्ञान प्रकाशमान है सबको ज्ञान का अनुभव है कि मैं जानता हूँ, ज्ञान से ही ज्ञानमयी आत्मा का अनुभव होता है।
शास्त्र द्वारा व गुरु द्वारा ज्ञान का मनन करने से ही आत्मा और अनात्मा का विवेक रूप भेदविज्ञान पैदा होता है और उस भेदविज्ञान से सर्वज्ञ स्वरूप केवलज्ञान हो जाता है जो एक समय की पर्याय में लोकालोक को देखता जानता है ऐसा ज्ञान का महात्म्य है।
जो ज्ञानहीन अज्ञानी हैं, जिनका शरीरादि पर्याय में ही मोह है, वह ज्ञानावरण कर्म को बांधकर दुर्गति में जाते हैं। जो अज्ञानी शरीर को ही आत्मा मानते हैं, शरीरादि पर्याय के प्रबंध में ही रात-दिन ज्ञान का उपयोग रखते हैं, संसार के कार्यों में चतुराई बताते हैं, धर्म को समझने में अपने को बुद्धि हीन बताते हैं, ऐसे जीव ज्ञानावरण कर्म बांधकर दुर्गति को प्राप्त करते हैं ।
शास्त्र और सद्गुरू व्यंजन स्वरूप ज्ञान, वीतरागता, द्रव्य की स्वतंत्रता और स्वयं की सत्ता स्वरूप को जानने की बात करते हैं। भेदविज्ञान द्वारा जो अपने शुद्धात्म स्वरूप का अनुभव करता है यही आत्मज्ञान केवलज्ञान को प्रगटाने वाला है। जो आत्मज्ञान रहित हैं जिन्हें देव, गुरु, शास्त्र की श्रद्धा नहीं है, जो शरीरादि पर्याय में ही रत रहते हैं वह जीव ज्ञानावरण कर्म का बंधकर दुर्गति जाते हैं।
ज्ञानी को परद्रव्य की क्रिया करने का विचार तो होता ही नहीं है बल्कि उसे अपनी पर्याय में अशुभ भाव को शुभ करने का अभिप्राय भी नहीं रहता । आत्मा ज्ञायक रूप से रहे, एक यही अभिप्राय रहता है, ऐसे निर्णय बिना जो कोई भी साधन करे, उसमें मोक्ष साधन नहीं होता ।
प्रश्न अक्षर, स्वर, व्यंजन के बाद पद का क्या प्रयोजन है ?
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