Book Title: Updesh Shuddh Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Akhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj

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Page 217
________________ -- - HERE - --- -- - *********** श्री उपदेश शुद्ध सार जी विशेषार्थ-आत्मा ज्ञान स्वरूप है और इस ज्ञान स्वरूप आत्मा को * ही जाने वही वास्तव में ज्ञान है । सम्यक ज्ञान प्रगट होने से आत्मा का * स्वसंवेदन से प्रत्यक्ष दर्शन होता है। ममल स्वभाव की अनुभूति में अतीन्द्रिय आनंद का स्वाद आता है, मैं पर को जानता हूँ इसे भ्रांति कहा है, इसे अध्यवसान भी कहते हैं क्योंकि वस्तुत: आत्मज्ञान में पर है ही नहीं। जो पर पर्याय को जानता है वह तो इन्द्रिय ज्ञान है और मैं पर को जानता हूँ, ऐसा माने तो उसे इन्द्रिय ज्ञान में मैं पना हो गया इसलिये यह मिथ्यात्व है, इस प्रकार ज्ञानांतर का अंतर कर, अंतराय कर्मबंध करके अज्ञानी नरक का बीज बोता है। ज्ञान तो उसे कहते हैं कि जो आत्माश्रित होता है, अतीन्द्रिय अंतर्मुखी होता है कि जिसमें अविनाभावीपने आनंद का स्वाद आता है । अपना ममल स्वभाव प्रगट होता है जो ज्ञानात्मक आत्मा रूप एक अग्र (विषय) को भाता है, वह ज्ञेयभूत अन्य द्रव्य का आश्रय नहीं करता और उसका आश्रय नहीं करके ज्ञानात्मक आत्मज्ञान से पुष्ट वह स्वयमेव ज्ञानमय रहता है फिर वह मोह नहीं करता, राग नहीं करता, द्वेष नहीं करता और ऐसा वर्तता हुआ वह मुक्त ही होता है। यदि आत्मज्ञान का आश्रय न करके पर्याय का आश्रय करता है तो वह ज्ञान में अंतराय डालकर दुर्गति का पात्र होता है। __मन, बुद्धि, अंत:करण पंचेन्द्रियों द्वारा जो ज्ञान होता है वह आत्मज्ञान नहीं है, उसे जो अपना ज्ञान मानता है वह अज्ञानी है। जब तक इन्द्रिय ज्ञान में उपादेय बुद्धि है तब तक कर्ता बुद्धि है, यदि इन्द्रिय ज्ञान और पर्याय आदि के साथ एकता है तो संपूर्ण विश्व के साथ एकता है यही संसार परिभ्रमण है। जो जीव निश्चय से श्रुतज्ञान के द्वारा इस अनुभव गोचर केवल एक शुद्ध आत्मा को स्व सन्मुख होकर जानता है वह ज्ञानी है, ज्ञायक ऐसा नाम भी उसे ज्ञेय को जानने के कारण दिया जाता है क्योंकि ज्ञेय का प्रतिबिम्ब जब झलकता है तब ज्ञान में वैसा ही अनुभव होता है, जानने में आता है तथापि उसे ज्ञेयभूत अशुद्धता नहीं है। पर पर्याय का ज्ञान करना, उसका आश्रय लेना यह इन्द्रिय ज्ञान * परावलंबी और प्रत्येक ज्ञेय के अनुसार परिणमनशील होने से व्याकुल तथा * मोह के संपर्क सहित होता है उसके निमित्त से कर्म का बंध होता है जो संसार * में दुर्गति का पात्र बनाता है। गाथा-३८२,३८३**---- * प्रश्न-इस शानोपयोग के लिये क्या करना चाहिये ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - न्यानं च सुद्ध भावं, सुद्धं अवयास नन्तनन्ताई। जदि पज्जय सहकारं,पज्जय अन्मोय निगोय वासम्मि ॥ ३८२ ॥ नंत चतुस्टै जाने, न्यानंकुर अन्मोय मिलियं च । जदि पज्जाव सुभावं, न्यानं अंतर दुष्य वीयम्मि ॥ ३८३ ॥ अन्वयार्थ-(न्यानं च सुद्ध भावं) ज्ञान का उपयोग शुद्ध स्वभाव के लिये करना चाहिये (सुद्धं अवयास नन्तनन्ताई) जो अपना त्रिकाली ध्रुव शुद्ध स्वभाव है उसी का बारंबार निरंतर अभ्यास करना चाहिये, इसी से अनंत चतुष्टयमयी केवलज्ञान स्वभाव प्रगट होता है (जदि पज्जय सहकारं) यदि जरा भी पर्याय का सहकार किया (पज्जय अन्मोय निगोय वासम्मि) पर्याय का आलंबन लेने से निगोद में वास करना पड़ता है। (नंत चतुस्टै जाने) अपने अनंत चतुष्टय स्वरूप को जानो, जो अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतवीर्य स्वभावी है (न्यानंकुर अन्मोय मिलियं च) आत्मज्ञान रूपी अंकुर जो प्रगट हुआ है इसी का आलंबन रखो और इसी में मिले रहो अर्थात् निरंतर इसी की साधना अभ्यास करते रहो (जदि पज्जाव सुभावं) यदि पर्याय के स्वभाव में लगे तो (न्यानं अंतर दुष्य वीयम्मि) ज्ञान का अंतराय कर दु:ख का बीज बोना है। विशेषार्थ - ज्ञानोपयोग सूक्ष्म दृष्टि का विषय है, दृष्टि शुद्ध स्वभावमय है तो वह ज्ञानमय है, यही कर्म क्षय और मुक्ति का कारण है । यदि दृष्टि पर पर्याय मय है तो वह अज्ञानमय है, यही ज्ञान का अंतर कर्म बंध और संसार का कारण है। एक समय में असंख्यात कर्मों का आसव भी होता है और एक समय में ही असंख्यात कर्मों की निर्जरा भी होती है। केवलज्ञान केबारा अनादिनिधन, निष्कारण, असाधारण, स्व संवेद्यमान, चैतन्य सामान्य जिसकी महिमा है तथा जो चेतक स्वभाव से एकत्व होने से केवल अकेला, शुख अखंड है,ऐसे शुख स्वभावी आत्मा श को आत्मा से आत्मा में अनुभव करना ही ज्ञानोपयोग है, इसी से अनंत चतुष्टयमयी केवलज्ञान स्वभाव प्रगट होता है। आत्मा ज्ञातृक्रिया का कर्ता है और ज्ञान करण है, ऐसा व्यवहार से भेद 1-1-E-MEE KHELK

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