Book Title: Updesh Shuddh Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Akhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj

View full book text
Previous | Next

Page 216
________________ - - E: E- :238 * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी समाधान - सर्व तत्त्व ज्ञान का सिरमौर मुकुटमणि जो शुद्ध द्रव्य * सामान्य अर्थात् निज परम पारिणामिक भाव अर्थात् ज्ञायक स्वभावी शुद्धात्म * तत्त्व वह स्वानुभूति का आधार है, सम्यक्दर्शन का आश्रय है, मोक्षमार्ग का आलम्बन है, सर्व शुद्ध भावों का नाथ है, उसकी दिव्य महिमा हृदय में सर्वाधिक रूप से अंकित करना योग्य है। ऐसे निज शुद्धात्म द्रव्य सामान्य का आश्रय करने से ही अतीन्द्रिय आनंदमय स्वानुभूति प्राप्त होती है। संयोगों का लक्ष्य छोड़कर, निर्विकल्प एक रूप वस्तु ध्रुव स्वभाव उसका आश्रय करने, गुण-गुणी के भेद का भी लक्ष्य छोड़कर एक रूप गुणी की दृष्टि करने पर समता होगी, आनंद होगा, दु:ख का नाश होगा। एक चैतन्य वस्तु ध्रुव है, उसमें दृष्टि देने से मुक्ति का मार्ग प्रगट होगा, जहाँ आनंद ही आनंद परमानंद है। प्रश्न - अभी यह स्थिति बनती नहीं है, इसके लिये क्या करें? समाधान - साधक दशा तो अधूरी है, साधक को जब तक पूर्ण वीतरागतान हो और चैतन्य आनंदधाम में पूर्ण रूप से सदा के लिये विराजमान न हो जाये तब तक पुरुषार्थ, सतत् प्रयास, अभ्यास करना होता है। साधक दशा में भूमिकानुसार देव गुरु की महिमा के, श्रुत चिंतवन के, अणुव्रत-महाव्रत इत्यादि के विकल्प होते हैं परंतु वे भी ज्ञायक परिणति को भाररूप हैं तो फिर अव्रत दशा के पाप, विषय, कषाय रूप परिणाम कैसे रुचेंगे? अपूर्ण दशा में वे विकल्प होते हैं,स्वरूप में एकाग्र होने पर निर्विकल्प स्वरूप में निवास होने पर वे सब छूट जाते हैं। पूर्ण वीतराग दशा होने पर सर्व प्रकार के राग का क्षय होता है तभी यह आनंद परमानंद दशा बनती है। यदि विभाव से छूटकर मुक्त दशा प्राप्त करनी हो तो चैतन्य के अभेद स्वरूप ममल स्वभाव को ग्रहण करो। द्रव्य दृष्टि सर्व प्रकार की पर्याय को दूर रखकर एक निरपेक्ष सामान्य स्वरूप ध्रुव तत्त्व को ग्रहण करती है । द्रव्य दृष्टि में गुणभेद भी नहीं होते, ऐसी शुद्ध दृष्टि प्रगट करो। जिसको द्रव्यदृष्टि यथार्थ प्रगट होती है, उसे दृष्टि के जोर में अकेला ध्रुव, धुव तत्त्व, ममल स्वभाव ही भासता है। शरीरादि पर्यायें कुछ भासित * नहीं होती। भेदज्ञान की परिणति ऐसी दृढ़ हो जाती है कि स्वप्न में भी आत्मा *शरीर से भिन्न भासता है। दिन को जाग्रत दशा में तो ज्ञायक निराला रहता है परंतु रात को नींद में भी आत्मा ज्ञायक निराला ही रहता है। ऐसी स्थिति गाथा - ३८०,३८१% * **** बनने और इसमें स्थित होने पर आनंद ही आनंद परमानंद होता है। प्रश्न-इसमें बाधक कारण क्या है? समाधान - अपना पुरुषार्थ, प्रमाद, शिथिलता, रागभाव बाधक कारण है। प्रश्न - इसमें अंतराय कर्म भी तो बाधक होता होगा? समाधान - अंतराय कर्म किसे कहते हैं? पहले यह समझ लो, अपने ज्ञान स्वभाव की साधना में अंतर डालना, प्रमाद करना, पुरुषार्थ हीन रहना ही अंतराय कर्म है और यही संसार परिभ्रमण का कारण है । घाति कर्म रूप अंतराय कर्म जिसके पांच भेद हैं-दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य । यह तो बाह्य निमित्त हैं, इनसे आत्म साधना में कोई अंतर नहीं पड़ता, प्रमुख तो अपने ज्ञान उपयोग में अंतर डालना, पर पर्याय शरीरादि में लगना ही अंतराय कर्म है जो अनंत संसार का कारण है। प्रश्न - ज्ञान अंतर क्या है, इसका परिणाम क्या होता है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - न्यानं च न्यान रूर्व, न्यान सहावेन दंसनं ममलं । अन्मोयं पज्जावं, न्यानंतरं च नरय वीयम्मि ॥ ३८० ।। न्यानं न्यान सुसमय, न्यानी अन्मोय ममल सहकारं। जदि पज्जय अन्मोयं,अन्तर आवरन दुग्गए पत्तं ॥ ३८१ ॥ अन्वयार्थ - (न्यानं च न्यान रूवं) ज्ञान, ज्ञान स्वरूप है अर्थात् अपने आत्म स्वरूप का चिंतन-मनन अनुभव करना ही ज्ञान है (न्यान सहावेन दंसनं ममलं) ज्ञान स्वभाव से दर्शन ममल होता है (अन्मोयं पज्जावं) ज्ञानोपयोग स्वभाव साधना में न लगाकर, पर्याय का आश्रय किया अर्थात् पर्याय को जानने लगा (न्यानंतरं च नरय वीयम्मि) यही ज्ञान अंतर है जो अंतराय कर्म का बंध कर नरक का बीज बोना है। (न्यानं न्यान सुसमयं) ज्ञान से अपने शुद्धात्म स्वरूप का ज्ञान करना (न्यानी अन्मोय ममल सहकार) ज्ञानी होकर अपने ममल स्वभाव का सहकार करना, अनुमोदना करना (जदि पज्जय अन्मोयं) यदि पर्याय का आलंबन, अनुमोदना की, पर्याय को ही देखने जानने में लगे रहे तो (अन्तर आवरन दुग्गए पत्तं) अंतराय कर्म का आवरण होकर दुर्गति का पात्र बनना पड़ेगा। कि २१६

Loading...

Page Navigation
1 ... 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318