Book Title: Updesh Shuddh Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Akhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj

View full book text
Previous | Next

Page 196
________________ * E * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी अपने स्वरूप को भुलाने वाले हैं वह अनिष्टकारी हैं, उनके द्वारा पर पर्याय में रत होने से ज्ञानावरण कर्म का बंध होता है। पद का प्रयोजन, जो शब्दों द्वारा कहा गया है उस ज्ञान विज्ञान मयी अपने परम पारिणामिक भाव स्वरूप में रहो । यदि अपने पद को भूलकर जनरंजन राग में लगते हो, पर को बताने सुनाने में लगे रहते हो तो ज्ञान पर आवरण करके दु:खों का बीज बोना है। सम्यक्ज्ञान व तत्त्वज्ञान की प्राप्ति, आगम जिनवाणी का समागम, संतों का सत्संग मोक्षमार्ग में सहकारी है, सबने अपने पद की बात ही कही है-आत्मा ही परमात्मा है, अपना पद ऊँकारमयी, ब्रह्मस्वरूप, परमात्म पद है। अपने परम पारिणामिक भाव में रहना, उसको ही देखना मुक्ति का कारण है। इसी से सब पर पर्याय कर्म संयोग विलाते क्षय होते हैं । यदि अपने परमात्म स्वरूप परम पारिणामिक भाव का लक्ष्य छोड़कर, पर पर्याय, जनरंजन राग आदि में लगते हो तो इससे ज्ञानावरण कर्म का बंध होकर दुर्गति में जाना पड़ेगा। सर्वज्ञ जिनेन्द्र देव ने जिस आत्मा को ध्रुव कहा है, परम पारिणामिक भाव स्वरूप कहा है, उसका जो जीव अवलंबन ले उसे उस ध्रुव स्वभाव में से शुद्धता प्रगट होती है। तीनकाल और तीनलोक में शुद्ध निश्चय नय से ज्ञान रस और आनंदकंद प्रभु केवल मैं हूँ, ऐसी दृष्टि ही आत्म भावना है। मैं परमात्म स्वरूप हूँ तथा सभी जीव भी द्रव्य दृष्टि से परमात्म स्वरूप हैं, ऐसे आत्मा का अनुभव होना, इसका नाम ही सम्यक्दर्शन ज्ञान है और उसमें स्थिर होना सम्यक्चारित्र है । पर द्रव्य का स्वामित्व भाव ही बंध का कारण है । स्व द्रव्य में स्वामित्व का भाव ही मोक्ष का कारण है । स्व द्रव्य में स्वामित्व भाव होने पर, पर द्रव्य के विद्यमान होते हुए भी बंध नहीं होता अत: स्व द्रव्य में स्वामित्व भाव, अपने पद की गरिमा, परमात्म स्वरूप का बहुमान ही मोक्ष का कारण है। पर द्रव्य के प्रति स्वामित्व भाव बंध का कारण है। प्रश्न-पर द्रव्य का स्वामित्व भाव क्या कहलाता है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंपद रहियं अन्यानं, श्रुत उत्तं पज्जाव दिट्टि संदर्स। व्रत तव क्रिय अन्यानं, न्यानं आवरन सरनि संसारे ॥ ३३९ ।। अन्वयार्थ - (पद रहियं अन्यानं) अपने पद से रहित होना अज्ञान है ************ गाथा-३३९-३४२********** अर्थात् मैं आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा हूँ, इस पद को भूलना अज्ञान है (श्रुत उत्तं पज्जाव दिट्टि संदर्स) मिथ्याज्ञान के आधीन होकर पर्याय पर दृष्टि रखते हुए शास्त्र पढ़ना, कहना (व्रत तव क्रिय अन्यानं) व्रत, तप, क्रिया करना और इससे अपने को श्रेष्ठ मानना, पुद्गल की क्रिया का कर्तृत्व भाव अज्ञान है (न्यानं आवरन सरनि संसारे) इससे ज्ञानावरण कर्म का बंध होकर संसार में * ही परिभ्रमण होता है। विशेषार्थ-परद्रव्य का स्वामित्व भाव, पुद्गल शरीर की क्रिया को अपनी मानना, उसके कर्ता बनना, यह सब अज्ञान है । मैं आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा हूँ, इस पद से रहित होना, अपने स्वरूप का विस्मरण ही अज्ञान है। अज्ञानपूर्वक शास्त्र पढ़ना,कहना,पर्याय दृष्टि से देखना,व्रत तप क्रिया को धर्म मानना। इन क्रियाओं से अपने को श्रेष्ठ मोक्षमार्गी मानना अज्ञान है, इससे ज्ञानावरण कर्म का बंध होकर संसार परिभ्रमण करना पड़ता है। सम्यक्ज्ञान से रहित जो कुछ ज्ञान है वह मिथ्याज्ञान है । मिथ्याज्ञान में स्व स्वरूप का बोध न होने से परद्रव्य का स्वामित्व भाव रहता है। शरीरादि की क्रिया में कर्तृत्व भाव रहता है, इंद्रिय ज्ञान का अहं भाव रहता है। शास्त्रों का वांचन करना, व्रत, तप, क्रिया आदि से अपने को श्रेष्ठ मानना, यह सब मिथ्याज्ञान, ज्ञानावरण कर्म बंध का कारण है जिससे संसार परिभ्रमण करना पड़ता है। संसार मार्ग वर्द्धक उपदेश देने में,कुमार्ग पोषक ग्रन्थ काव्य रचने में, पुद्गल की क्रिया को धर्म मानने में ज्ञानावरण कर्म का बंध होता है जो संसार का कारण है। प्रश्न -इससे बचने के लिये क्या करना चाहिये। इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - पदं च पद वेदंतो, पद दस विन्यान विंदु दसतो। पद विन्यान विहीनो, न्यानं आवरन निगोय वासम्मि ॥ ३४०॥ पद विंदं सर्वन्यं, पद विंदं परम केवलं न्यानं । पद विंद रहिय अनिस्ट, न्यानं आवरन दुष्य वीयम्मि ॥ ३४१॥ पद विंदं च सहावं, पदर्थ परम अर्थ ससरूवं । जइ पज्जाव सहावं, न्यानं आवरन सरनि संसारे ॥३४२॥ अन्वयार्थ - (पदं च पद वेदंतो) श्रेष्ठता तो अपने परमात्म पद के ** ******** * KHEKAR HE--E-E2EE १९६

Loading...

Page Navigation
1 ... 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318