Book Title: Updesh Shuddh Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Akhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj

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Page 160
________________ - 崇长长长兴 ---- * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी जैसे- कुत्ता लकड़ी के प्रति द्वेष करता है और मारने वाले की ओर नहीं देखता, वैसे ही अज्ञानी पर जीवों के प्रति राग-द्वेष करता है परंतु अपने पूर्व * कर्म उदयानुसार संयोग मिलते हैं, इस बात पर दृष्टि नहीं देता। आत्मा के अनुभव बिना संसार का नाश नहीं होता। जिसे व्यवहार * अथवा संसार शरीर भोग तथा पुण्य कर्म अच्छे लगते हैं वह मिथ्यादृष्टि है। निश्चय से आत्मा शुद्ध है परंतु उसकी पर्याय में रागादि अशुद्धता होने पर भी जो पर्याय अपेक्षा से भी वर्तमान में शुद्ध मानता है वह मिथ्यादृष्टि है। मोक्षमार्ग में तो रागादिक मिटाने का श्रद्धान ज्ञान व आचरण करना होता है, जिसके द्वारा विकार का नाश हो वही मोक्षमार्ग है। श्रद्धा में विकार का आदर नहीं, ज्ञान में विकार उपादेय नहीं तथा आचरण में राग ही न करे यही मोक्षमार्ग है। प्रश्न- पर्याय किसे कहते हैं? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - पर्जय सहाव उत्तं, सरीर संस्कार भाव उववन्न । क्रित कारित अनुमतयं, पज्जय विवरिउ कम्म विरयति ॥२५६ ॥ अन्वयार्थ-(पर्जय सहाव उत्तं) पर्याय का स्वभाव कहते हैं.गुणों के परिणमन को पर्याय कहते हैं अथवा वर्तमान में जो शरीरादि संयोगी परिणमन चल रहा है उसे भी पर्याय कहते हैं (सरीर संस्कार भाव उववन्न) जिसमें शरीर संबंधी संस्कार के भाव पैदा होते हैं वह अशुद्ध पर्याय है (क्रित कारित अनुमतयं) इसकी कृत कारित अनुमोदना करने वाला मन है (पज्जय विवरिउ कम्म विरयंति) जो कोई पर्याय से विरक्त होता है, उसी के कर्मों का क्षय होता है। विशेषार्थ- गुण पर्ययवत् द्रव्यम्, गुण और पर्याय सहित ही द्रव्य होता है । गुणों के परिणमन को पर्याय कहते हैं। स्वभाव त्रिकाली अक्षय और अटल होता है। पर्याय एक समय की होती है, जिसका निरंतर उत्पाद व्यय * होता रहता है। जीव और पुद्गल द्रव्य की पर्याय में निमित्त-नैमित्तिक संबंध है। स्वभाव से दोनों द्रव्य स्वतंत्र और अत्यंत भिन्न हैं। इन दोनों के संयोगी परिणमन को भी पर्याय कहते हैं। यह शरीर मनुष्य भव आदि भी पर्याय कहलाते हैं। जो इस पर्याय की कृत, कारित, अनुमोदना करता है उसके शरीर सम्बंधी संस्कार के भाव पैदा होते हैं, अज्ञानी इस पर्यायी परिणमन को **** * ** गाथा - २५६-२५८ ************* ही अपना स्वरूप मानता है, यही मैं हूँ ऐसा मानता है। इसी से कर्म बंध होकर संसार परिभ्रमण चलता है। जो भेदज्ञान पूर्वक पर्याय से भिन्न स्वभाव को देखता-जानता है वह सम्यक्दृष्टि ज्ञानी है तथा जब पर्याय से विरक्त होकर स्वभाव की साधना करता है तब कर्मों का क्षय होता है तथा मुक्ति की प्राप्ति होती है। दष्टि का विषय द्रव्य स्वभाव है और मन का विषय पर्याय स्वभाव है। ज्ञानीको यथार्थ द्रव्य दृधि प्रगटई, वह द्रव्य स्वभाव के आलम्बन द्वारा अंतर स्वरूप स्थिरता में वृद्धि करता है। उसका पर्याय का लक्ष्य नहीं रहता वह पर्याय को विनाशीक जानकर पर्याय बुद्धिको त्याग देता है और निश्चल होकर अपने आत्म स्वभाव में लीन होता है जिससे सब कर्मादिशरीर संयोग क्षय होकर मुक्ति की प्राप्ति होती है। जो कोई आत्मा जड़कर्म की अवस्था को और शरीरादि की अवस्था को करता नहीं है, उसे अपना कर्तव्य नहीं मानता है, तन्मय बुद्धि होकर परिणमन नहीं करता परन्तु मात्र साक्षी ज्ञाता तटस्थ रहता है वह आत्मा ज्ञानी है और जो इस पर्यायी परिणमन का कर्ता भोक्ता बनता है वह अज्ञानी मिथ्यादृष्टि है। जिस धर्मात्मा ने निज शुद्धात्म द्रव्य को स्वीकार करके परिणति को स्व अभिमुख किया वह प्रतिक्षण मुक्ति की ओर गतिशील है, आत्मा ही आनंद का धाम है, उसमें अंतर्मुख होने से ही सुख है। शुद्ध चैतन्य ध्रुव के ध्यान से जिसे सम्यज्ञान प्रगट हुआ है, ऐसे जीव को ऐसी पर्याय रूप योग्यतायें होती हैं व उनका ज्ञान भी होता है। साधक जीव अतीन्द्रिय आनंद का पान करता हुआ मुक्ति की ओर प्रयाण करता है। प्रश्न-यह अतीन्द्रिय आनंदक्या है, क्या इन इन्द्रियों से परे है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - इंदी सुभाव दिई, अनिस्ट संजोय सरनि संसारे। जिन वयनं पिच्छंतो, अतींदी भाव इंदि विरयंति ।। २५७॥ जं इंदी च सहावं, तं जानेहि सयल मोहंछ । जिन उवएस लहतो,अतींदी सहकार कम्म विस्यति ॥ २५८॥ अन्वयार्थ - (इंदी सुभाव दिट्ठ) शरीराश्रित इन्द्रियों का स्वभाव ऐसा -E-E E-ME HE- १६०

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