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गाथा -७८,७९
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HAHR** श्री उपदेश शुद्ध सार जी जाते हैं तथा संसार परिभ्रमण समाप्त हो जाता है।
इसकी और विशेषता रूप आगे गाथा कहते हैं - विपिऊ कम्म उवन्न, विपिऊ मन धवल उवन संविपनं । मन संन्या विपि मिलियं, विपियं नंत नंत सरनि संबंधं ॥ ७८॥ विपिऊ कषाय सुभावं, कषाय उववन्न दुबुहि संजुत्त। जे दुर्बुद्धि विसेवं, कषाय विपिय नन्त परिनाम ॥७९॥
अन्वयार्थ - (पिपिऊ कम्म उवन्न) कर्मों का आसव रुक जाता है, कर्मों का पैदा होना मिट जाता है (पिपिऊ मन चवल) मन की चंचलता मिट जाती है (उवन संषिपनं) मन की चंचलता की उत्पत्ति का कारण मिट जाता है, क्षय हो जाता है (मन संन्या विपि मिलियं) मन में पैदा होने वाली आहार, भय, मैथुन, परिग्रह यह चार संज्ञा दूर होकर मन समता रूप हो जाता है (पिपियं नंत नंत सरनि संबंध) अनंतानंत संसार परिभ्रमण का संबंध समाप्त हो जाता है।
(पिपिऊ कषाय सुभावं) कषाय स्वभाव क्षय हो जाता है, छूट जाता है (कषाय उववन्न दुबुहि संजुत्तं) दुर्बुद्धि में रत होने से कषाय पैदा होती है (जे दुर्बुद्धि विसेषं) जो दुर्बुद्धि की विशेषता होती है उस रूप (कषायं षिपिय नन्त परिनाम) अनन्तानुबंधी कषाय के भाव मिट जाते हैं।
विशेषार्थ- सम्यक्दृष्टि की भाव भूमिका शुद्ध हो गई है, दृष्टि की शुद्धि होने से उसके संसार के कारणीभूत मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी कषाय, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय जाति, नरक व पशुगति आदि दुर्गति ले जाने वाली कर्म प्रकृतियों का आस्रव बंध नहीं होता है। मन में चंचलता मिथ्यात्व भाव व विषय वांछा की तीव्रता से होती है, सो सम्यक्त्वी के नहीं है। आहार की गृद्धता, शरीरादि छूटने व रोग आदि होने का भय, मैथुन भाव की वांछा और धन धान्यादि परिग्रह का तीव्र राग यह चार संज्ञायें सम्यक्त्वी को नहीं होती हैं। यद्यपि जितना-जितना गुणस्थान अनुसार जैसा कषाय का उदय होता है तदनुकूल संज्ञायें होती हैं, मन की चंचलता
भी होती है, कर्मों का बंध भी होता है तथापि जितना-जितना गुणस्थानों पर * आरोहण होता जाता है, उतना-उतना यह सब विकार भाव छूटता जाता है।
सम्यकदृष्टि आत्मोन्नति के पथ पर आरूढ़ है इसलिये विकारों को हटाता जाता है। अविरत गुणस्थानवर्ती सम्यक्ष्टि के भी अनंतानुबंधी कषाय का उदय
नहीं है, न मिथ्यात्व भाव है इसलिये कषायों को पैदा करने वाली मिथ्या बुद्धि ही *** * * * **
नहीं रही है, न मिथ्याबुद्धि जनित कषाय भाव होता है। उसके परिणाम किसी भी जीव के साथ बुरा करने के नहीं होते हैं। उसके भावों में प्रशम, संवेग, अनुकंपा,* आस्तिक्य यह चार भाव सदा बने रहते हैं, वह शांत परिणामी होता है, संसार से उदासीन व धर्म प्रेमी होता है, प्राणी मात्र पर दयालु होता है, उसमें नास्तिकभाव नहीं होता है । वह जीवादि द्रव्यों के अस्तित्व पर विश्वास रखता है। विषय-कषाय के कारणों से बचा रहता है, जिससे अनंतानंत संसार परिभ्रमण के सम्बन्ध से छूट जाता है।
श्रुतज्ञान के बल द्वारा प्रथम ज्ञान स्वभावी आत्मा का यथार्थ निर्णय करके मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के व्यापार को आत्म सन्मुख किया वह व्यवहार है, प्रयत्न करना वह व्यवहार है। इन्द्रिय और मन की ओर रुकने वाला तथा तुच्छ उघाड़
वाला जो ज्ञान है, उसके व्यापार को स्वसम्मुख करना वह व्यवहार है। सहज ॐ शुद्ध पारिणामिक भाव तो परिपूर्ण एक रूप है, पर्याय में अपूर्णता है विकार है
इसलिये प्रयास करने को रहता है। पर्याय दृष्टि की अपेक्षा साध्य साधक के भेद पड़ते हैं। पर्यायदृष्टि से विकार और अपूर्णता है, उसे तत्त्व दृष्टि के बल पूर्वक टालकर साधक जीव क्रमश: पूर्ण निर्मलता प्रगट करता है।
शुद्ध दृष्टि होने के पश्चात् साधक अवस्था बीच में आये बिना नहीं रहती, आत्मा का भान करके स्वभाव में एकाग्रता होती है तब ही परमात्मरूप ध्रुवतत्त्व अनुभूत होता है, आत्मा का अपूर्व और अनुपम आनंद अनुभव होता है, आनंद के झरने झरते हैं।
धर्म, शरीर वाणी धन आदि से नहीं होता क्योंकि वे तो सभी आत्मा से भिन्न अचेतन परद्रव्य हैं, उनमें आत्मा का धर्म नहीं है और मिथ्यात्व, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील आदि पाप भाव या दया, दान, पूजा, भक्ति आदि पुण्य भाव से भी धर्म नहीं होता क्योंकि वह दोनों विकारी भाव हैं। आत्मा की निर्विकारी शुद्ध दशा वही धर्म है। इसी से सुख, शांति, आनंद और मुक्ति की प्राप्ति होती है तथा निज स्वभाव साधना से ही कर्मों का आसव, मन की चंचलता, संसारी परिभ्रमण, आहार, भय, मैथुन, परिग्रह रूप संज्ञा छूटती विलाती हैं। निज शुद्धात्म स्वरूप, ध्रुवतत्त्व की दृष्टि होने से कषाय भाव, दुर्बुद्धि आदि सब क्षय हो जाते हैं। शुद्ध दृष्टि पूर्वक भेदज्ञान द्वारा ज्ञान की शुद्धि होने पर परम शांति होती है।
प्रश्न- यह भेदज्ञान द्वारा ज्ञान की शुद्धि का क्या प्रयोजन है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं७४
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