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चवलं न चंकमिजइ, विरज्जइ नेव उब्भडो वेसो॥ वंकंन पलोइज्जइ,रुठा विभणंति किं पिसुणा॥४॥ ___ अर्थः-चपळताथी न चालवू; उद्भटवेश धारण न करवो, वांकी दृष्टिए नं जोवू. एवा मनुष्य विषे क्रोधे भरायेला चाडीया पण शुं कही शके ? अर्थात् कांईज ना कही शके ॥४॥
भावार्थ:-चपळताथी न चालवं. ए उपदेश सामान्य लागे छे. पण तेमा रहेलो हेतु सहज वधारे विचार करतां जणाई आवे छे; चपळपणामां शीघ्रतानो विचार मुख्य होय छे. ते रीते जल्दी चालवाथी जीवहिंसा थाय छ, उतावळमा सामु शु आवे छे, अथवा धरतीपर शुं पडओँ छ, ते जोई शकातुं नथी. अने पोताने ठोकर वागे छे, अथवा सामा मनुष्यनी साथे अथडाय छे, अने हांसीने पात्र थाय छे. चपळतानो बीजो अर्थ चंचळता पण थाव छे. तेवी रीते चालवानुं वर्णन ऐक कविए आप्यु छ. “मगरीमां अंग मरोडे...जेम उदरडे. दारु पिधो मस्तानो थई डोलेजी” चंचळताथी चालवाथी लोक कहेशे "एतो वर्ण पार थई गयो। एनी हीडछा (चालवानी रीति) तो जुओ." माटे लोक विरुद्धना त्याग रुप आ सामान्य उपदेश पण हितकारी छे. कारण प्रसंगे शीघ्रताथी पण जवू पडे, पण आ तो सामान्य उपदेश छे. __ उद्दभटवेश धारण न करवो. उद्दभटनो अर्थ सुंदर आकर्षक, उत्कृष्ट एवो अर्थ थाय छे. आ उपरथी एम न समजवानुं के सारो पोशाक न पहेरवो. पण पोतानी शक्ति नहि छतां, पोताने जे उचित नथी, तेवो पोशाक धारण करवाथी खरच वधारे थाय छे, अने लोकोमां निंदा पात्र थवाय छ. उद्दभटवेश केवळ लुगडो लत्तामांज समातो नथी, पण शरीरने शणगारवू, वाळ ओळवा, तेल गुलाल लगाडवां, अत्तर छांटवां, माथे छोगां (गुच्छा) घालवां, ए सर्वनो तेमां समावेश थाय छे. एक कविए तेनुं वर्णन कर्यु छे.
अंगे तेल फुलेल लगावे, माथे छोगा घाले जी, ___ जोबन धननु जोर जणावे, छाती काढी चाले जी. तेवो वेष धारण करवाथी कांई कार्य सिद्ध यतुं नथी, पण हांसी थाय