Book Title: Updesh Ratnamala Tatha Prakirna Updesh
Author(s): Padmajineshwarsuri, Munisundarsuri, Manilal Nathubhai Doshi
Publisher: Suriramchandra Diksha Shatabdi Samiti
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(४८)
स्तुती करी. तेथी कोई देवता प्रसन्न थइ तेनापर तुष्टमान थयो. अने तेने उपाडीने क्षीर समुद्र ने कांठे लावीने मूक्यो; पण आ प्राणी मूर्ख हतो. तेणे तो त्यां पंण पाणी पीधुं नहिं. अने पोताने उपाडी लावनार देवने का के " हे देव! मारा गामनी सीममां एक कुवो छ तेनां काठांपर दर्भ उगेलुं छे. अने ते दर्भना छेडापर रहेढं पाणीनुं बिंदु पीवानी मारी इच्छा छे; तेथी जो तमे मारा पर तुष्टमान थया हो तो त्यां लइ जाओ." देवताये जा ण्युके ए मंद भाग्य मूर्ख छे. तेथी तेने उपाडीने असल जगोए मूक्यो. कुवां काठे जईने जुए छे तो पाणी, बिंदु तो पवनयी पडी गयु हतुं. ते वखते ते बापडो घणो शोक करवा लाग्यो, के हुतो बन्नेथी भ्रष्ट थयो, मे जळबिंदु पण खोयुं अने क्षीर समुद्र पण खोयो. अने नफामा तरस्यो रहयो. (उपनय) कोइक देवनी सहायथी जेम ते प्राणी क्षीर समुद्रे पहोंच्यों अने पोतानी लालसाने ताबे थई पाणी पीधा सिवाय पाछो आव्यो अने बन्नेथी भ्रष्ट थयो; तेवीज रीते तने पण दैवयोगे तपसंयम रूप क्षीरसमुद्र प्राप्त थाय त्यारे तुं तेनुं आराधन कयों वगर ओसबिंदु तुल्य सांसारिक सुखनी लालसाथी पाछो संसारी थवा इच्छा करीश तो परिणामे तने आ भवमां सुख मळशे नहि. अने परभवन सुख तो तुं चारित्रना प्रणामथी भ्रष्ट थयो त्यारथीज हारी गयो छे; कारण के तेना उपायभूत तप संयमने ते मूकी दीधा छे. शुद्ध चारित्र-वर्तन न राखनारा बन्ने रीते भ्रष्ट थाय छे. संतोष राखनारने-शुद्ध वर्तन राखनारने प्रवृत्तीनी मारामारीथी थती मननी व्याकुळताना अभाव उपरांत फरज बजाव्यानी शांति अने आनंद थाय छे. ते पण तेने मळता नथी अने वर्तननुं फळ पण मळतुं नथी. आ उभय भ्रष्ट स्थिति बहु विचारवा जेवी छे. बीजा काकिणीना दृष्टांतनी पेठे आ दृष्टांत पण मनुष्यभव माटे घटे छे. अत्र उदकबिंड तुल्य विषय, देवतुल्य गुरुमहाराज, क्षीरसमुद्र तुल्य सम्यकत्व के चारित्र समजवां.
॥ दृष्टांत चोथु-आम्रनुं ॥ एक राजाने केरी उपर बहुज प्रेम हतो तेथी ते दररोज केरी खातो. एक दिवस शरीरमां वायुनो प्रकोप थयो अने तेनुं जोर थवाथी विचिका (पेटमा दुखावो, झाडो अने गुल्म) थई आवी, तेनी पीडा एवी थइ के कोई ठेकाणे रघु जाय नहि. मोटा मोटा वैद्योने बोलाव्या, अनेक उपायो

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