Book Title: Updesh Ratnamala Tatha Prakirna Updesh
Author(s): Padmajineshwarsuri, Munisundarsuri, Manilal Nathubhai Doshi
Publisher: Suriramchandra Diksha Shatabdi Samiti

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Page 57
________________ (३८) प्रत्ये द्वेष याय ए मनुष्यनो स्वाभाविक गुण छे, पण ज्ञानी पुरुष वस्तुनुं स्वरूप यथार्थ समजे छे, तेथी ते समतोल वृत्ति जाळवी शके छे. रागनी वस्तुओ पण समय जतां नाश पामशे तेम समजी तेमा मोह पामी जतो नथी, तेमज अप्रिय लागती वस्तुओ पण सर्वदा टकवानी नथी, एम समजी तेथी खेद पामतो नयी. ते श्रीमद् कपूरचंद्रजी साथे विचारे छे के; (दोहा) विनाशी पुदगल दशा, अविनाशी तुं आप ॥. आपो आप विचारतां, मिटे पुण्य अरु पाप ॥१॥ आ पुद्गलनी वस्तुओ-जगतनी चीजो सर्व नाश पामवावाळी छे. फक्त तुं-पोते-आत्माज अविनाशी छे, मादे तारा आत्मानुं स्वरूप विचार, एटले पुण्य अने पाप चाल्या जशे, अने तुं अनंत शांतिनो भोक्ता थईश, __वळी ज्यां सुधी मनुष्य दरेक जीवने ब्हारनी दृष्टिथी जुए छे, त्यां सुधी तेने रागद्वेष थाय छे; पण जो तेना आत्मा भणी नजर करे तो आत्मा तो सदा शुद्ध निर्विकारी अने आनंद स्वरूप छे. तेथी ते आत्मा प्रत्ये तेना हृदयमा स्वाभाविक प्रेम जागे छे, अने पोते पण तेवू स्वरूप प्राप्त करवा प्रेराय छे. हवे ग्रन्थकार आ पुस्तकनो उपसंहार करता लखे छे के:उवएस रयण मालं, जो एवं ठवइ सुट्ट निअकंठे॥ सो नर सिवसुहलच्छी, वत्थयले रमइ सया॥२५॥ एअं पउमजिणेसर, सूरि वयणगुंफरम्मिंअं वहउ॥ भव्व जणो कंठगयं,विउलं उवएस मालमिण॥२६ अर्थः-- आ प्रमाणे आ उपदेश रत्नमालाने जे मनुष्य पोताना कंठमां सारी रीते धारण करे छे, ते नर शिवसुखरुपी लक्ष्मीना हृदयमां सदा रेमे छे ॥२५ ॥२६॥ भावार्थः-आ प्रमाणे पद्मजिनेश्वरसूरिनां वचननी रचनाए करीने रमणीय एवी आ विस्तारवाळी उपदेश रत्नमाळा भव्य जीवोना कंठने सदा शोभावो. (समाप्त)

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