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(३९)
आचार्य श्री मुनिसुन्दरसूरीश्वरजी महाराजनो
॥ प्रकीर्ण उपदेश ॥
तात्विक हितकरनार वस्तु ( उपजाति छंद) कूलं न जातिः पितरौ गणो वा, विद्या च बंधुः स्वगुरुर्धनं वा ॥ हिताय जंतोन परं च किंचित् , किंत्वादृताः सद्गुरुदेवधर्माः॥१॥
अर्थः- कुळ, जाति, माबाप, महाजन, विद्या सगा संबंधीओ. कूळ गुरु अथवा पैसा के बीजी कोई पण वस्तु आ प्राणीना हितने माटे थती नथी. परंतु आदरेला (आराधन करेला) शुद्ध देव गुरु अने धर्मज हित करनारा थाय छे. ॥१॥
भावार्थ:-उचा कुटुबमां के उत्तम जातिमां जन्म थयो होय अथवा बहु विद्या भण्यो होय अथवा बहु धन प्राप्ति थइ होय के करी होय तेथी आ जीवनुं कांह हित यतुं नथी. पुत्र, कलत्र, धनादि वस्तुओ तो जेम जेम वधारे प्रमाणमां मळे छे तेम तेम संसार बंधन वधारनारी थाव छे, पण भव चक्रनो एक पण आरो ओछो करनारी थती नथी. अनादि काळथी रागमां राचेलो रंक जीव नवीन कांइ करतो नथी अने धन स्त्री वैभव के विद्याना मदमां के मोहमा मस्त रही महा दुःख परंपरा प्राप्त करछे. दुःख परंपराथी हमेशाने माटे बचq होय तो शास्त्रकार तेनो एक उपाय बतावे छे अने ते ए छे के. शुद्ध गुरुनो आश्रय करवो अने तेमना बतावेला देवनी सेवा करवी अने तेमना बतावेला धर्मोंर्नु पालन करवं. आरीते जे प्राणी वर्तेछे ते पूर्व पापनो नाश करी महा सुखसाधन पामी छेवटे सर्व 'दुःखनो अत्यंताभाव करे छे.
॥ धर्ममां जोडे तेज खरां मा बाप ॥ (उपजाति छंद) माता पिता स्व. सुगुरुश्च तत्वात्प्रबोध्य यो योजति शुद्धधर्मे ॥ न तत्समोऽरिःक्षिपते भवाब्धौ,यो धर्म विघ्नादिकृतेश्वजीवम् ॥२॥