Book Title: Umravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Author(s): Suprabhakumari
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar

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Page 12
________________ अर्चनार्चन / ९ इतिहास में कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता। लिपि-लेखनकला, चित्रकला, काव्यकला, संगीतकला आदि तदुपजीवी अनेकानेक साधन-सामग्री, विधि-विधान आदि का प्राविष्करण इन राजकन्यानों ने किया, जिससे आर्य-संस्कृति का ललित पक्ष बड़े समीचीन रूप में उजागर हुआ । उसके उत्तरोत्तर प्रगत होते संवर्धन का जो विराट रूप आज हमें प्राप्त है, उसके मूल में इन दो सत्यशीलवती लालित्यवती सन्नारियों की ऊर्जा है। इन दोनों भाग्यशालिनी बहिनों का एक और बहत बड़ा कार्य है, जो अध्यात्म-साधना के इतिहास में सदा स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा। भगवान् ऋषभ के द्वितीय पुत्र बाहुबलि, जो न केवल बाहुबल-भुजबल या दैहिक बल के धनी थे, वरन् जो महान् आत्मबली भी थे, खडगासन में दीर्घकाल से ध्यानलीन थे, महामात्य चामुण्डराय द्वारा निर्मापित, संस्थापित श्रवणवेलगोला (कर्नाटक) स्थित बाहुबलि की विशाल प्रतिमा जिनका स्थूल प्रतीक है। बाहुबलि जिस घोर तप:क्रम को अपनाये थे, उसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती। एक बड़ी लम्बी अवधि व्यतीत हो जाती है, न भोजन, न पानी, अनवरत प्रात्मोपासना, आत्माराधना का अनवच्छिन्न क्रम। यह सब था, चल रहा था, पर महान् बाहुबलि कैवल्य को आत्मसात् नहीं कर सके । एक ग्रन्थि थी, रज्ज-ग्रन्थि नहीं, प्रात्मा के परिणामों की ग्रन्थि, जो वैषम्य-संश्लिष्ट थी। वैषम्य अनात्मभाव है। उसके रहते समता, साम्य सधता नहीं है। उसके सधे बिना ज्ञान को प्रावृत करने वाली कर्मों की पर्ते हटती नहीं, मिटती नहीं। भरत और बाहुबलि के अतिरिक्त भगवान् ऋषभ के सभी पुत्र अपने पूज्य पिता के पास दीक्षित हो चुके थे। बाहुबलि उनके पश्चात् संयम-पथ पर आरूढ हुए। वे इस प्राशंका से अपने पिता भगवान् ऋषभ के पास नहीं गये कि वहाँ जाने पर उन्हें अपने छोटे भाइयों को दीक्षा-ज्येष्ठ होने के नाते वन्दन करना होगा। आयु, बल, पद, प्रतिष्ठा सबमें उनसे बड़े होने के कारण वे वैसा कैसे कर पायेंगे । यही कारण था, वे स्वयं सहजभाव से तपश्चरण एवं ध्यान में संलग्न हो गये, सतत संलग्न रहे किन्तु पूर्वोक्त ग्रन्थि, जो अहंकार-प्रसूत थी, के रहते उन्हें केवलज्ञान नहीं हुआ। बहिनों ने देखा, भाई महान् तपस्वी हैं, पर द्वन्द्वातीत नहीं हैं। छोटे-बड़े का, उच्चअनुच्च का, उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट का भेद, द्वैध, द्वन्द्व उनके मस्तिष्क में अब भी घर किये हैं। इसे अपगत किये बिना वे अपना साध्य नहीं साध पायेंगे । ब्राह्मी और सुन्दरी अपने तप-निरत महान् भाई के समक्ष उपस्थित हुईं। बाहुबलि को सम्बोधित कर बड़े मृदुल, कोमल, स्नेहल शब्दों में कहा-भैया ! हाथी पर बैठे हो, कैवल्य कैसे प्राप्त कर सकोगे ? ऐसे तो नहीं प्राप्त होगा कैवल्य । बहिनों का मधुर, आत्मीयतापूर्ण स्वर ज्यों ही कर्णकुहरों में पड़ा, बाहुबलि सहसा चौंक उठे-कहाँ हूँ मैं हाथी पर प्रारूढ, मैं तो ध्यानस्थ खड़ा हूँ। चिन्तनक्रम आगे बढ़ा। शब्दव्यंजना से जुड़े भावों की गहराई में बाहुबलि मानो डूब गये। उन्हें अन्तःप्रतीति होने लगी, उफ ! बहिनें ठीक कहती हैं, मैं तो वास्तव में अहं के हाथी पर प्रारूढ है। कर्म-क्षय कैसे होगा । कैवल्य कैसे प्राप्त होगा। ज्यों-ज्यों चिन्तन की गहराई में लीन होने लगे, अहंकार की आई घड़ी आभनदन का चरण कमल के वंदन की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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