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आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
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अर्चनाचन / ८
हूँ, महाप्रजापति गौतमी को उपसंपदा प्रदान करता हूँ, किन्तु कतिपय विशेष प्रतिबन्धों या नियमों के साथ गौतमी को, उसका अनुवर्तन करनेवाली अन्य शाक्य महिलाओंों को, मागे होने वाली सभी भिक्षुणियों की इनका पालन करना होगा ।
बुद्ध ने फिर कहा-प्रानन्द ! तुम्हारे अनुरोध पर यह कर रहा हूँ, किन्तु इससे भिक्षुसंघ का विरस्थायित्व व्याहृत होगा ।
महाप्रजापति गौतमी बुद्ध के भिक्षु संघ में प्रब्रजित होने वाली पहली नारी थी। बौद्ध पिटक - वाङ्मय का यह एक प्रसंग है । इससे प्रकट है, बुद्ध भी नारी की परम शक्तिमत्ता में कुछ शंकित से, अनाश्वस्त से थे ।
दूसरी ओर वैदिक वाङमय में तो "स्त्रीशूद्रो नाधीयाताम्" के अनुसार नारी को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं दिया गया, संन्यास के लिए भी उसे अनाधिकारिणी माना गया। इसका फलित यह हैं; नारी की ऊर्जा में वहाँ विश्वास नहीं था ।
इस परिप्रेक्ष्य में जब हम जैनपरंपरा पर दृष्टिपात करते हैं तो हमें एक सर्वथा भिन्न स्थिति प्राप्त होती है, जिसमें नारी की गरिमा, क्षमता एवं शक्तिमत्ता का निर्द्वन्द्व स्वीकार है । जैनपरंपरा के प्रागैतिहासिक और ऐतिहासिक काल में विभिन्न सन्दर्भों में नारी का ऊर्जस्वल व्यक्तित्व जिस रूप में निखरा है, उसकी आभा कभी धूमिल नहीं हो सकती ।
वर्तमान अवसर्पिणी के चतुर्थ श्रारक पर जब हम विचार करते हैं तो प्राद्यतीर्थंकर और प्रथम राजा भगवान् ऋषभ के जीवन के साथ जुड़े तीन नारी पात्रों पर हमारा ध्यान जाता है। उनमें एक है भगवान् की माता श्री मरुदेवी तथा दूसरी दो हैं उनकी पुत्रियाँ ब्राह्मी एवं सुन्दरी चिन्तन की सघनता एवं सूक्ष्मता में नारी कितनी गहराई तक डूब सकती है, उसकी अन्तःशक्ति कितनी प्रकृष्ट एवं उत्कृष्ट है, यह माँ मरुदेवी के जीवन से स्पष्ट है मां-बेटे के संबंध, मोह, ममता और अहंकार की तरंगों पर उतराती माँ जब व्यक्तित्व के सत्यमूलक मूल्यांकन पर टिकती है, सभी श्रौपचारिक, लौकिक सम्बन्धों से वह ऊँची उठ जाती है, बहिर्जगत से नाता टूटने लगता है, अन्तर्जगत से जुड़ने लगता है, जिसकी फल निष्पत्ति परमात्मभाव की स्वायत्तता है भावों का उद्रेक, विकास इस सीमा तक बढ़ जाता है, जहाँ व्यष्टि, समष्टि का भेद उपरत हो जाता है । शुद्ध चैतन्य, परम आनन्द, समाधि, वीतरागता के निर्विकार भाव, शुभ, अशुभ जो भी बहिर्गत हैं, सबको लील जाते हैं, मां मरुदेवी मुहर्त भर में वह सब पा लेती है, जिसे पाने के लिए साधक जन्म-जन्मान्तर तक पचते हैं। माँ कैवल्य का साक्षात्कार कर लेती है, विमुक्त हो जाती है। यह मावियुगीन नारी के विराट् शक्तिस्फोट का एक अद्भुत उदाहरण है ।
श्राद्यतीर्थंकर भगवान् ऋषभ जब संसारावस्था में थे, उन्होंने प्रथम राजा - शासक या समाज प्रतिष्ठापक के रूप में वे सब व्यवस्थाएं एवं विधिक्रम सुप्रतिष्ठित किये, जिनका अवलम्बन कर समाज सुख से, शान्ति से, धर्मिष्ठता से जी सके, अपना विकास कर सके । कृषि, पशु-पालन, वाणिज्य आदि का सूत्रपात किया, जिससे लोग जीवनोपयोगी साधन उत्पन्न कर सकें। भगवान् के इस व्यवस्थाक्रम में, सर्जन में उनकी दो पुत्रियों-ब्राह्मी तथा सुन्दरी का जो योगदान रहा, वह विश्व-स्थिति, संस्कृति एवं लोक-जीवन के विकास के
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