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अर्चनार्चन | १४ भगवान महावीर स्वयं श्रमणोपासिका सुलसा की धर्मनिष्ठता, आत्मनिष्ठता से प्रभावित थे । एक बार का प्रसंग है, श्रमण भगवान महावीर चम्पा नगरी में धर्मदेशना दे रहे थे। सहस्रों नर-नारी उनके अमृत वचनों का श्रवण कर रहे थे। श्रोताओं में राजगह निवासी अम्बड नामक श्रमणोपासक भी था। अम्बड संन्यासी के वेष में रहता था, पर श्रावक-व्रतों का भलीभांति पालन करता था। उसे अनेक विद्याएँ सिद्ध थीं।
भगवान महावीर का उपदेश सुन अम्बड बहुत हर्षित हुआ। उसने भगवान् से निवेदन किया-प्रभुवर मैं ! राजगह जा रहा हूँ। वहाँ योग्य कोई संदेश हो तो कहने का अनुग्रह करें।
भगवान् ने कहा-अम्बड ! राजगृह में सुलसा नामक श्रमणोपासिका है । वह बड़ी दृढधर्मा है, व्रतों एवं नियमों के पालन में बड़ी कठोर है, सुलसा जैसे उपासक-उपासिकाएँ बहुत कम होंगे। मेरा सुलसा से धर्म-संदेश कहना ।
इस कथानक को हम यहीं छोड़ देते हैं। यहाँ जानने की मूल बात यह है, जरा विचारिए, जिस नारी को भगवान महावीर स्वयं धर्म-संदेश भेजते है, वह कितनी महान् रही होगी।
जैनपरम्परा में तो नारी की गरिमा को सहर्ष स्वीकारा ही है, उसे उजागर किया ही है, किन्तु वैदिक परम्परा में भी, जहाँ नारी पुरुष की ज्यों उच्च पथ एवं पद की अधिकारिणी नहीं मानी गई, उसे स्वातन्त्र्य से वंचित रखा गया, नारी के शक्ति-विस्फोट को नहीं रोका जा सका । संन्यास लेने को समुद्यत कात्यायनी और मैत्रेयी नामक अपनी दो पत्नियों में अपनी सारी सम्पत्ति का विभाजन करने को उत्सुक याज्ञवल्क्य जब मैत्रेयी को उसका भाग देने को तत्पर हुआ, तब मैत्रेयी ने उसको "किमहं तेन कुर्याम, येन नाहममृता स्याम्" इस औपनिषदिक शब्दों में जो मार्मिक उत्तर दिया, वह उस महान नारी के सत्य-शील-दीप्त नैसगिक प्रोजमय व्यक्तित्व का परिचायक है।
मैत्रेयी की शब्दावली कितनी सतोल और वजनदार है। वह कहती है, धन-वैभव का आप स्वयं तो परित्याग करना चाहते हैं। अपने भाग के नाम से उसे मुझे देना चाहते हैं। यदि यह धन, लौकिक वैभव सदा संग्राह्य और स्वीकार्य होता तो आप इस प्रकार उसे कैसे छोड़ देते। मैं उस सबका क्या करूंगी, जिससे मुझे अमरत्व का लाभ न हो। मैं अमरत्व चाहती हूँ, अजर-अमर होना चाहती हैं, फिर धन के मोह में क्यों बंधूं ?
महाकवि जयशंकरप्रसाद ने कामायनी में नारी के सम्बन्ध में बड़े अन्तःस्पर्शी उद्गार व्यक्त किए हैं। लिखा है
नारी! तू केवल श्रद्धा है विश्वास रजत-नग पग-तल में।
पीयूष-स्रोतसी बहा करो जीवन के सुन्दर समतल में ॥ सचमुच नारी श्रद्धा की प्रतिमूर्ति है। श्रद्धा जीवन का हृदय-पक्ष है । लक्ष्य के लिए समर्पण, उद्दिष्ट में परिव्यापन, आस्था के क्रियान्वयन में श्रद्धा की प्रेरक शक्ति का जीवन में अनन्य स्थान है। उपर्युक्त रूप में नारी के सत्यनिष्ठ, ध्येयनिष्ठ, सत्कर्मनिष्ठ प्रसाधारण व्यक्तित्व का जो लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है, उसका मूल स्रोत श्रद्धा में सन्निविष्ट है। न केवल गुणात्मक दष्टि से नारी उत्कर्ष की परकाष्ठा तक पहुंची, संख्यात्मक दृष्टि से भी साधना में समर्पित नारी जाति का जो बाहुल्य रहा है, वास्तव में वह उसके हृदय के पावित्र्य का अभिव्यंजक है।
आई घड़ी
चरण कमल के वंदन की
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