Book Title: Umravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Author(s): Suprabhakumari
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar

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Page 14
________________ अर्थ/११ दूसरा प्रसंग और भी मार्मिक है। अरिष्टनेमि के छोटे भाई रथनेमि भी अपने बड़े भाई की ज्यों संयम पथ पर धारू हो चुके थे। एक ऐसा संयोग बना भगवान् परिष्टनेमिक प्रारूढ । पर्वत पर विराजित थे । राजीमती अपनी सहवर्तनी साध्वियों को साथ लिये उनके दर्शन हेतु चली। मार्ग में अचानक पाये भीषण तूफान, वर्षा, तज्जन्य अन्धकार से साध्वियों भटक गईं। उनका साथ छूट गया । राजीमती के वस्त्र पानी से तर थे। पास ही एक गुफा नजर आई । वह अपने भीगे कपड़े निचोड़ने, सुखाने हेतु उसमें प्रविष्ट हुई । कपड़े उतारे, उन्हें निचोड़ा, एक विचित्र संयोग था, रथनेमि उसी गुफा में साधनारत थे। अब तक वहाँ होने का ध्यान नहीं था। अचानक रथनेमि की दृष्टि राजीमती की वे स्तब्ध रह गये । परम सौन्दर्यमयी एकाकिनी नारी की उपस्थिति ने कोर डाला ठीक ही कहा है- "कन्दर्पदर्पदलने बिरला मनुष्याः ।" राज वैभव का परित्याग कर संयम पथ के धवलम्बी राजपुत्र के समक्ष भोगवासनामय संसार दुर्बलता उभर पाई। रथनेमि राजीमती से काम सुखाने हेतु फैलाया । दोनों को एक दूसरे के अनावृत्त देह पर पड़ी। रथनेमि के मानस को का काल्पनिक दृश्य उपस्थित हो गया याचना करने लगा । राजीमती एक बार तो भयभीत हुई किन्तु भट उसने अपने को सम्हाल। । उसके मानस में प्रध्यात्म का उज्ज्वल श्रोज हिलोरें ले रहा था। उसे अपना कर्तव्य निश्चित करते देर नहीं लगी । संयम - पराङ, मुख रथनेमि को प्रात्मस्थ करने हेतु जो प्रतिबोध वाक्य उसने कहे, वे त्याग - वैराग्य और संयम साधना के इतिहास में सदा स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेंगे । राजीमती अपनी प्रोजस्वी वाणी में कहने लगी गन्धन कुल में उत्पन्न सर्प (refer मान्त्रिक द्वारा छोड़ती, उद्दीप्त, भयावह, दुःसह अग्नि में प्रवेश कर जाते हैं, हुम्रा विष पुनः निगलने को कभी तैयार नहीं होते । नियन्त्रित होकर भी ) धुम्र किन्तु वमन किया हुआ, उगला । अपयश चाहने वाले पुरुष ! तुम्हें धिक्कार है। तुम भोगों को वमन की ज्यों त्याग चुके हो फिर तुम में भोगमय जीवन अपनाने का लोभ उभरा है। ग्राश्चर्य है, तुम त्यागे हुए भोगों को फिर स्वीकार करना चाहते हो। इससे कहीं अच्छा तो यह हो, तुम मर जाश्रो। तुम जैसे व्यक्ति जीवित रहने योग्य नहीं होते । क्यों भूल जाते हो, मैं भोजराज की पौत्री है, तुम धन्धकवृष्णि के पौत्र हो हम उत्तमकुलीन हैं। हम अपने कुल में गन्धनजाति के सर्प के सदृश न बनें, (जो अपना उगला हुआ विष गारुड, मात्रिक के भय से पुनः निगल जाता है ।) तुम शान्त, सुस्थिर भाव से संयम पर टल रहो । यदि तुम किसी स्त्री को देखते ही यों लोलुप बन उठोगे तो तुम उस वृक्ष की तरह, जिसकी जड़ जमीन में नहीं है, संयम से उखड़ जाओगे, विचलित हो जायोगे । जैसे गोपालक दूसरों की गायें चराने वाला ग्वाला गायों का स्वामी नहीं होता, वेतनभोगी भण्डपाल- रक्षक भण्डार का स्वामी नहीं होता, इसी प्रकार अपने आप पर काबू नहीं रख सकने वाले तुम धामण्य पवित्र श्रमण जीवन के स्वामी नहीं होगे । Jain Education International For Private & Personal Use Only आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की www.jainelibrary.org.

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