Book Title: Tulsi Prajna 2004 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 6
________________ सामाजिक समानता बनाम राजनैतिक स्थिरता -डॉ. बच्छराज दूगड़ न्याय के लिए समानता का सिद्धान्त और व्यवहार आवश्यक है। काल के विभिन्न खण्डों में पुरुष और स्त्रियों के बीच एक दूसरे से विशिष्ट माने जाने की प्रवृत्ति रही है; रोजगार, शिक्षा आदि मूलभूत अधिकारों का हनन भी विशिष्ट वर्गों द्वारा होता रहा है एवं मानव-अधिकारों की घोषणाएं भी अभी पूर्णता नहीं पा सकी हैं, फिर भी प्रजातंत्रीय व्यवस्था कानून के रूप में ही सही, समानता के सिद्धान्त को स्वीकृत करती आ रही है। मानवाधिकार संबंधी विभिन्न प्रसंविदाएं एवं घोषणाएं प्रजातंत्र की पक्षधर हैं, क्योंकि प्रजातांत्रिक व्यवस्था के विकास के विभिन्न चरणों में नृवंशों एवं समूहों के बीच के मान्य संबंध अधिकारों एवं लाभों की मूलभूत समानता से ही प्राप्त किये जा सकते हैं। स्वतंत्र समाज में न्याय का अर्थ स्वतंत्रता भी है। प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्तिगत स्वतंत्रता, धर्म की स्वतंत्रता, भाषा और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, क्रूरतापूर्ण, तर्कविहीन एवं असामान्य दण्डों को न भोगने की स्वतंत्रता है। यदि हम स्वतंत्रता का वास्तविक आनन्द लेना चाहते हैं और स्वतंत्रता के लिए लड़ना-मरना चाहते हैं तो हमें इसे प्रत्येक व्यक्ति तक व्यापक बनाना होगा- भले ही कोई व्यक्ति धनवान हो या गरीब, कोई हमसे सहमत हो या असहमत, वे किसी भी वंश, जाति या रंग के हों। समानता की प्रतिष्ठा ही स्वतंत्रता का आनन्द देगी। विषमता के बावजूद समानता वांछनीय यद्यपि विषमता एक शक्तिशाली परम्परा एवं संस्कृति द्वारा स्वीकृत है। अवसरों की समानता भी वर्तमान विषमता को वैध ठहराती है, क्योंकि अवसरों की समानता के रहते व्यक्ति अपनी सफलता-असफलता का जिम्मेदार स्वयं है। समाजशास्त्रियों का यह मानना है कि जहां सामाजिक गतिशीलता विद्यमान हो, वहां तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-जून, 2004 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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