Book Title: Tulsi Prajna 1990 12 Author(s): Mangal Prakash Mehta Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 7
________________ रहा है । दूसरी ओर सभा, संस्थानों आदि में अपने ही मित्रों को थोड़ा-बहुत अनुदान देकर सहयोग व सेवा-ढोंग रचता है। वास्तव में पैसे के पास पैसा दौड़ा जा रहा है । गरीब और अधिक गरीब होता जा रहा है । ऐसी स्थिति में करोड़पति सोचता है-मैं सुखी रहूं, प्रसन्न रहूं। यह शाश्वत नियम है कि दूसरे को दुःखी बनाकर व्यक्ति स्वयं कभी-भी आनंद व सुखानुभूति नहीं कर सकता। जबतक व्यक्तिगत जीवन में संयम रूप परिग्रह परिणाम नहीं होगा, सच्चे सुख व आनंद का अनुभव नहीं हो सकता । युवा चार्यश्री' ने भी यही कहा है—अहिंसा की बात तब तक फलित नहीं होगी जब तक मनुष्य के जीवन में संयम को प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी। इच्छाओं की वृद्धि से हिंसा को पल्लवन मिलता है । व्यक्तिगत जीवन में दोनों तत्वों का समन्वित विकास ही शांति और सुख का आधारभूत बन सकता है। सामयिक तथा सामुदायिक दृष्टिकोण समाज के प्रारम्भ में आवश्यकताएं सीमित थीं । इसकी वजह से हिंसक घटनाए कभी-कभी घटती थीं । दंड विधान भी हकार, मकार व धिक्कार शब्द तक ही मिलता था । लेकिन ज्यों-ज्यों समुदाय बना, समाज बना, व्यक्ति की संग्रह की सुप्त वृत्ति जागने लगी, एकाधिकार की भावना बल पकड़ने लगी। शक्ति-वर्द्धन व संरक्षण के लिए हिंसा को हथियार चुना गया तथा पूंजीवादी व्यवस्था अर्थ के साथ-साथ जीवन शैली का रूप भी धारण करने लग गई। आज सारी सत्ता-संपदा मुट्ठी भर लोगों के पास सिमट कर रह गई है । इस पूंजीवादी व्यवस्था ने समाज के सामने अनगिनत समस्याएं खड़ी कर दी हैं । श्रम गौण होता जा रहा है। सामान्य जनता कोल्हू का बैल बन चुकी है। गरीबी, अभाव, भुखमरी, अशिक्षा, अन्याय, बेरोजगारी इत्यादि हिंसा के विविध रूप समाज में व्याप्त होते जा रहे हैं। इस परिस्थिति में एकमात्र उपाय है-अहिंसक वातावरण के लिए असीम वैयक्तिक स्वामित्व को कम करने की अपेक्षा । ___ व्यक्ति और समाज में अभिन्नता होती है । समाज व्यक्तियों का ही प्रतिबिम्ब होता है । जैसा व्यक्ति होगा वैसी ही सामाजिक रचना होगी। पूजीवादी व्यवस्था में आस्था रखने वालों के समाज का स्वरूप भी विषमतापूर्ण ही होगा। संप्रति पूरा विश्व-समाज दो खेमों में विभक्त हो चुका है। एक में विश्व के ५ या ६% लोग हैं जो ऐशो-आराम का जीवन व्यतीत करते हैं, सारी सुख-सुविधाओं को भोगते हैं। दूसरी तरफ बहुत बड़ा भाग न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मजबूर है, विवश है। इस प्रकार की अमानवीय हिंसा का मूल कारण है-धन का उन्माद । इस संरचनात्मक हिंसा को कम करने के लिए परिग्रह-परिमाण का अनुपालन जरूरी है। इसी संदर्भ में युवाचार्यश्री' ने लिखा है कि व्यावहारिक अहिंसा की साधना समाज के संदर्भ में होती है । हजारों-हजारों आदमी एक साथ रहें और दूसरों को क्षति न पहुंचाएं यह व्यावहारिक अहिंसा है। यह समाज की आधारभित्ति है। इस प्रकार दोनों सामाजिक विकास के आधारभूत तत्व रूप में रूपायित होते हैं। समाजपरक दृष्टिकोण से भी दोनों का सहअस्तित्व जरूरी है। दोनों के मिलाने से ही रचनावाद शक्ति का विकास हो सकता है, उसका समाजोत्थान में उपयोग किया जा सकता है। खण्ड १६, अंक ३, (दिस ०, ६०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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