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कोई कमी नहीं आ पाई है । इसीलिये आज भी यह गुण जैनत्व के चिह्न के रूप में प्रतिष्ठित है ।
रात्रिभोजन त्याग से अहिंसक दृष्टि के अतिरिक्त निम्न महत्त्वपूर्ण लाभ हैं । (१) रात्रि भोजन न करने से पेट को भोजन के पाचन एवं स्वांगीकरण के लिये पर्याप्त समय - १२ घंटे तक — मिलता है । अतः ये क्रियायें प्राकृतिक रूप से सरलता से संपन्न हो जाती हैं । इससे मन और शरीर हलका रहता है, आलस्य नहीं रहता, बुद्धि भी निर्मल बनी रहती है ।
(२) रात्रिभोजन त्याग अच्छी गहरी प्राकृतिक निद्रा आती है । यह उत्तम स्वास्थ्य एवं दीर्घजीविता का प्रतीक है ।
( ३ ) रात्रिभोजन से जठर पर कार्य का अधिक बोझ पड़ता है । इसके फलस्वरूप जठराग्नि की मंदता, दीर्घायुष्य की कमी एवं स्वास्थ्य -जन्य अनेक बाधायें एवं रोग उत्पन्न होते हैं ।
२२. विष
विष ऐसे पदार्थों को कहते हैं जो जीवन या प्राण का नाश कर सकें, शरीर-तंत्र की क्रियाविधि को निरुद्ध कर मृत्यु तक ले जा सकें । 'सव्वेसि जीवणं पियं' के सिद्धांतानुसार कोई भी जीव जीवन-नाशक पदार्थों को खाना पसंद नहीं करेगा । अतः विषों की अभक्ष्यता निर्विवाद है । फिर भी, आजकल विष की परिभाषा में कुछ परिवर्तन हुआ है । कुछ विषैले पदार्थ ऐसे होते हैं जो उच्चतर प्राणियों के लिये मारक नहीं होते, लेकिन निम्न कोटि के प्राणियों के लिये मारक होते हैं । एन्टीबायोटिक या वर्मिन जैसी उदर कृमिनाशी दवायें इस कोटि में आती हैं । सामान्यतः यह मान लिया जाता है कि अपनी रक्षार्थ इन दवाओं के सेवन से क्या हानि है ? पर विष तो विष ही है चाहे किसी कोटि के जीव को मारे । अतः सिद्धांततः उपरोक्त कोटि की आधुनिक दवाओं अथवा वत्सनाग, हरिताल, संखिया, साल्फास आदि भारतीय या नवीन औषधियों का सेवन उचित प्रतीत नहीं होता । विषों से अन्तर्जीव नष्ट होते हैं, शरीर शिथिल होता है, चेतना शून्यता तक आती है, वमन विरेचन भी होता है । यह प्रत्येक दृष्टि से कष्टकर है। वैज्ञानिक अन्वेषणों से विषों की जीवन नाशक मात्राएं भी ज्ञात कर ली गई हैं। फिर भी, मानव के हित में विष की परिभाषा किंचित् परिवर्धित करनी चाहिये । विष को मानव की कोटि के जीवों के लिये हानिकर पदार्थ ही मानना चाहिये अन्यथा आज किस खाद्य पदार्थ में, जो कृषि से उत्पादित होता हो, कीटमार विष नहीं होता ?
वस्तुतः आहार-संबंधी भक्ष्याभक्ष्य प्रकरण में विषों का महत्त्व नहीं है क्योंकि ये न तो हमारे आहार के परंपरागत सूक्ष्म मात्रिक घटक हैं और न वर्तमान आहार शास्त्री ही इन्हें खाद्यपदार्थ के रूप में मान्यता देते हैं । प्रचंड भावुकता, कष्ट और तनावों की तीव्रता की स्थिति में ही प्रायः लोग इनका सेवन करते हैं । इनका जीवननाशी होना ही इनकी अभक्ष्यता का निर्विवाद प्रमाण है ।
खण्ड १६, अंक ३ (दिस०, ६० )
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