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आहारों में काम में लिये गये लवण तो अचित्त हो ही जाते हैं, पर अचार और औषधि आदि में प्रयुक्त करने के लिये इन्हें अग्निपक्व कर लेना चाहिये । इनके अचित्त बने रहने की सीमा बरसात में सात दिन, जाड़ों में पन्द्रह दिन और गर्मी में एक माह मानी गई है ।
२१. रात्रिभोजन
सामान्यतः रात्रि ( सूर्यास्त से सूर्योदय) में बनाये गये एक या अनेक प्रकार के भोज्य पदार्थों का भक्षण रात्रिभोजन कहलाता है । इसके अन्तर्गत दिन में बनाये भोज्यों का रात्रि में भोजन भी समाहित होता है । इन भोज्यों का आहार सारणी-६ में दिये गये विभिन्न कारणों से शास्त्रों में गर्हित माना गया है ।
रात्रिभोजन की अभक्ष्यता या त्याग का उद्देश्य जीवन में अहिंसक भावनाओं को प्रेरित करना है | आगमों में इस संबंधी चर्चा मुनि आचार के संबंध में प्रमुखतः आई है । कहीं इसे व्रतों में रखा गया है और कहीं इसके छठे व्रत मानने की भी भूमिका है । गृहस्थों लिये यह चर्चा उत्तरवर्ती विकास है । यह धारणा उन दिनों प्रचलित की गई थी जब रात्रि में केवल तैल दीप प्रकाशित होते थे और प्रायः स्थान अंधकाराच्छन्न रहता था । ऐसे धुंधले की स्थिति में दृश्यता में कमी तथा दुर्घटनाएं होने की संभावनाएं अधिक रही हैं । ऐसी ही कुछ अप्रत्याशित दुर्घटनाओं ने आलोकित पान - भोजन की भावना की उत्थानिका की होगी । चूंकि रात में सूर्यालोक नहीं रहता, अतः 'पानभोजन'
सारणी - ६ - रात्रिभोजन के संबंध में शास्त्रीय मान्यताएं
१. रात्रिभोजन में द्रव्यहिंसा और भाव-हिंसा - दोनों होते हैं ।
२. रात्रिभक्ति में दिवाभुक्ति की अपेक्षा राग, मोह, रुचि अधिक होती है । प्रतिबंध, नियंत्रण के कारण रुचि और आवश्यकता तीक्ष्ण हो जाती है ।
३. रात्रि में सूर्य प्रकाश के अभाव में या दीपादि के मंद प्रकाश के सद्भाव में भोजन बनाने के समय किये गये आरम्भ कार्यों में त्रस स्थावर जीवों की हिंसा संभावित है । ४. रात्रिभोजन में अनेक प्रकार के जीवों के कारण अनेक रोग उत्पन्न हो सकते हैं । ५. जो रात्रि में भोजन करते हैं, वे भूत-प्रेतादि के साथ भोजन करते हैं, मांसाहारी जीवों के साथ भोजन करते हैं ।
६. रात्रि भोजन अपवित्र होता है । रात्रिभोजी मानव रूप में पशु ही हैं ।
७. प्राचीन आचार्यों ने रात्रिभोजन त्याग के लिये 'आलोकित पानभोजन' की भावना की व्यवस्था की थी। बाद में इसे मूल गुणों में समाहित कर अनिवार्य बनाया गया । का त्याग स्वयमेव माना जाने लगा । इसमें कोई संदेह नहीं कि सूर्यप्रकाश में जीवाणुनाशन के गुण रहते हैं, अतः दिन में बने भोजन में सामान्य एवं विकारी जीवाणु रहितता का गुण तो होता है, साथ ही अनेक दुर्घटनायें होने से बच जाती हैं। विद्युत के प्रकाश के उपयोग से रात्रिभोजन के शास्त्रीय दोष काफी मात्रा में कम हो रहे हैं । फिर, विद्युत विहीन अधिकांश ग्रामीण भारत के लिये तो अनेक दोष अभी भी बने हुए हैं । इसके अतिरिक्त, स्वास्थ्य की दृष्टि से रात्रिभोजन की अभक्ष्यता की मान्यता में
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तुलसी प्रज्ञा
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