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TULASI-PRAJÑĀ, Dec., 1990
reason why incourse of time in the manuscripts this phenomenon (ññ) has become one of the vital characteristic features of Magadhi.
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References:
1. Ed. by Kielhorm, Nachrichten von der Konigl. Gesellschaft der Wissenschaften zu Gottingen, 1893, p. 552 ff.; see also R. Pischel, Grammatik der Prakrit Sprachen, Strassburg, 1900 302 ff.
2. In his edition of Sakuntala, Kiel, 1877, 2nd edn. published from H.O.S., bridge, Mass. 1922.
साहित्य सत्कार
जैन संस्कृत महाकाव्य : लेखक- डॉ० सत्यव्रत, प्रकाशक- जैन विश्व भारती, लाडनूं (नागौर), राजस्थान, प्रकाशन वर्ष - १६८६, पृष्ठ संख्या ५१०, मूल्य - १५०-०० रुपये ।
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" जैन संस्कृत महाकाव्य" नामक प्रस्तुत ग्रन्थ श्रेण्य संस्कृत साहित्य की समीक्ष- यात्रा का विशिष्ट मील पत्थर है । समीक्ष्य ग्रन्थ की एक आकर्षक विशेषता यह है कि इसमें लेखक ने संस्कृत के जैन ऐतिहासिक महाकाव्यों की समीक्षा के लिए एक स्वतन्त्र अध्याय ही सुरक्षित किया है, जिसके लगभग १०७ पृष्ठों में ऐतिहासिक जैन संस्कृत महाकव्यों का परिशीलन प्रस्तुत किया है । यह सामग्री सार्वजनीन हो जाने के कारण अब इतिहासकारों को उत्तर मध्यकालीन भारतीय विविध पक्षीय इतिहास के लेखन के लिए एक ही साथ प्रामाणिक सामग्री मिल सकेगी ।
लेखक ने प्रस्तुत ग्रन्थ को ५ अध्यायों में विभक्त किया है । प्रथम अध्याय उत्थानिक स्वरूप आलोच्य महाकाव्यों की प्रवृत्तियों एवं विशेषताओं पर प्रकाश डालकर आगे के अध्यायों में क्रमशः शास्त्रीय महाकाव्य, शास्त्र - काव्य, ऐतिहासिक महाकाव्य एवं पौराणिक महाकाव्यों की विस्तृत समीक्षा कर उपसंहार में अपने अध्ययन के निष्कर्ष प्रस्तुत किये हैं ।
'वर्ण्य विषय का प्रस्तुतिकरण वैज्ञानिक, भाषा-शैली रोचक, मुद्रण शुद्ध एवं नयनाभिराम तथा कवर पृष्ठ आकर्षक है । ऐसे ग्रन्थों की उपादेयता स्वयं सिद्ध है । लेखक एवं प्रकाशक दोनों ही बधाई के पात्र हैं ।
डॉ०
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राजाराम जैन, अध्यक्ष,
संस्कृत एवं प्राकृत विभाग,
एच. डी. जैन कॉलेज, आरा (बिहार)
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