Book Title: Tulsi Prajna 1990 12
Author(s): Mangal Prakash Mehta
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तलसी प्रज्ञा TULASI-PRAJNA QUARTERLY RESEARCH JOURNAL OF ANEKĀNTA SODHA-PĪTHA, JAIN VISHVA BHARATI खण्ड १६ खण्ड १६ दिसम्बर, १९६० अङ्क ION अनेकांत शोध-पीठ जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAJASTHANI AND L. P. TESSITORI G. V. Tagare* Some 80 years have elapsed since the passing away of the Italian Indologist L.P. Tessitori (1887-1919). This Sk. scholar was a linguist, grammarian, historian of the culture of Rajasthan. Deputed to Rajasthan in 1914, he discovered and published hundreds of manuscripts from the states of Jodhpur and Bikaner in five volumes of the JASB-the Bibliotheca Indica series. These MSS. shed valuable light on the social and political history of medaeval Rajasthan. In 1940, while working on my historical grammar of Apabhrams'a I got interested in Tessitori due to his "Notes on the Grammar of Old Western Rajasthani with Special Reference to Apabhrams'a and to Gujarati and Marwari". The Notes are so valuable that no historical grammarian of Rajasthani can ignore them. Some years later, while a member of the Folk-lore Committee of my State, I tried to find out what work in Folk-lore has been done in other Indo-aryan languages, I was surprised to find that even before 1918, Tessitori carried out "Bardic and Historical Survey of Rajasthan". Fortunately Rajasthan had a glorious bardic tradition. Caraṇas and Bhaṭas were maintained by Rajput chiefs by grant of villages. The Bards in return glorified in flowery language even minor exploits of their masters. But in the mass of exaggerated encomiums, historians could get rare information like nuggets of gold. Further, the credit of showing Pingala and Dingala as separate dialects and not mere styles of poetry (as presumed by H. P. Sastri) goes to Tessitori. Having got support of the Archaeological Survey of India Tessitori explored some 85 places (including Rangmahal)-some along the dry bed of the ancient Sarasvati and had intersting collections of old coins, figurins etc. It is unfortunate that such a promising young Indologist should pass away while he was hardly 32. But he has laid under obligation generations of scholars by his valuable cotribution to the history, language and literature (including Folk-lore) of Rajasthan. *3, Govt. Colony, Vishrambag, Sangli-416415 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलरीप्रत प्रधान-सम्पादक डॉ. नथमल टाटिया सम्पादक डॉ. मंगल प्रकाश मेहता भवि ॐ विज्जा ह लण SILTI अनेकांत शोध-पीठ जैन विश्व भारती लाडनूं ( राजस्थान) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिसम्बर, १९९० अंक ३ अनुक्रमणिका १. समणो मल्लिप्रज्ञा : अहिंसा और अपरिग्रह सिद्धान्त का सम्बन्ध-निरूपण २. समणी मंगलप्रज्ञा : जीव और शरीर के सम्बन्ध सेतु ३. डॉ० मंगल प्रकाश मेहता : हिन्दी जैन काव्य : दार्शनिक प्रवृत्तियां ४. जैनेन्द्र कुमार जैन : भगवती आराधना एवं प्रकीर्णकों में आराधना का स्वरूप ५. नंदलाल जैन : जैन शास्त्रों में भक्ष्याभक्ष्य विचार ६. कु. कमला जोशी : जैन एवं अन्य भारतीय दर्शनों में मोक्ष दशा : एक तुलनात्मक दृष्टि 7. Muni Mahendra Kumar : Geometrical and Philosophical Aspects of Theory of Relativity 8. Narendra Kumar Dash : The Concept of Pramānā in Jainism : An Introduction 9. Jagat Ram Bhattacharyya : Some Problems of Māgadhi Dialect आजीवन शुल्क : रु. ५०१-०० वार्षिक शुल्क : रु. ३५.०० इस अङ्क का मूल्य : २० २०.०० -- नोट-यह आवश्यक नहीं है कि इस अंक में प्रकाशित लेखों में उल्लिखित विचार सम्पादक अथवा संस्था को मान्य हों। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा और अपरिग्रह सिद्धान्त का सम्बन्ध निरूपण समणी मल्लिप्रज्ञा "अपरिग्रह-दर्शन" नामक अध्याय में अपरिग्रह सिद्धांत की विभिन्न दृष्टियों से व्याख्या प्रस्तुत की गई है । एक और महत्वपूर्ण पक्ष है जिस पर स्वतंत्र रूप से प्रकाश डाला जा सकता है अतः यहां पर अपरिग्रह का अहिंसा के साथ संबंध का निरूपण किया जा रहा है । प्राचीन साहित्य में दोनों तत्वों को समान महत्व दिया गया तथा एक के लिए दूसरे को कसौटी के रूप में विश्लेषित किया गया । कालान्तर में पैसे को परमेश्वर मानने की अवधारणा जोर पकड़ती गई । परिणाम यह हुआ कि अपरिग्रह की चर्चा अतीत की स्मृति बनकर रह गई । आज सभी समस्याओं का जो केन्द्रक बन गया है वह है-परिग्रह । जब तक संग्रह अथवा पकड़े रखने की मनोवृत्ति कम नहीं होगी तब तक अहिंसा की बात भी गले नहीं उतर सकती । अतः अहिंसा को तेजस्वी बनाने के लिए अपरिग्रह के व्यावहारिक रूप परिग्रह परिणाम को जीवन व्यापी बनाना ही होगा। इस कथन से यह सिद्ध हो गया कि अहिंसा के लिए अपरिग्रह और अपरिग्रही के लिए अहिंसा एक अनिवार्य तत्व है। अहिंसा और अपरिग्रह के मध्य विभिन्न दृष्टिकोणों से संबंध की विवेचना की जा रही है। एक कपड़े के दो छोर अहिंसा और अपरिग्रह में घनिष्ट संबंध है । ये दोनों कपड़े के दो छोर हैं। एक छोर का स्पर्श करेंगे तो स्वतः दूसरा पक्ष स्पंदित होगा तथा दूसरे का प्रभाव पहले पर पड़ेगा ही। जैन धर्म में पांच महाव्रतों की चर्चा उपलब्ध होती है। वहां पर भी यही भावना प्रतिध्वनित होती है कि एक साधक अहिंसा से यात्रा प्रारंभ करता है और मंजिल के रूप में अपरिग्रही बन जाता है । इसी प्रकार कोई साधक अपरिग्रह से चलता है तो उसकी अहिंसा में जाकर यात्रा संपन्न हो जाती है। किसी भी कीमत पर इन दोनों का अलग-अलग अभ्यास नहीं किया जा सकता है। इसलिए दोनों को एक कपड़े के दो छोर कहना सार्थक है। शब्द संयोजना और निकटता शब्द रचना की दृष्टि से भी दोनों में अद्भुत सामंजस्य परिलक्षित होता है। केवल शब्द विश्लेषण से ही इनके कार्य-कारण संबंध की स्थापना हो जाती है। बम १० (दिस०, १०) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्व में से "अ" और अपरिग्रह रूप तत्व एक ही सिक्के के दो पहलू सिद्ध होते हैं । जैसे- हिंसा कार्य है, उसका कारण परिग्रह है उसी प्रकार अहिंसा निष्पत्ति है तथा अपरिग्रह पृष्ठभूमि में रहता है । तत्व दो, परिभाषा एक अहिंसा और अपरिग्रह का अर्थ है-अप्रमाद । हिसा और परिग्रह का अर्थ है-. प्रमाद । इस शब्द का जैन दर्शन में विशेष प्रयोजन से प्रयोग किया जाता है। प्रमाद का तात्पर्य राग-द्वेष युक्त प्रवृत्ति से है । इस प्रवृत्ति में सदैव भय बना रहता है। जैसा कि आचारांग में उल्लेख मिलता है---आरंभजीवी उ भयाणुपस्सी । हिंसक व्यक्ति भय का दर्शन करता है। भगवान् महावीर ने यह भी कहा----सव्वतो पमत्तस्स भयं" और सव्वतो अप्पमत्तस्स नत्थि भयं । प्रमत्त व्यक्ति को सब ओर से भय है तथा अप्रमत्त को किसी ओर से भय नहीं सताता । व्यक्ति भय से बचने के लिए ही हिंसा करता है । जब अभय बन जाता है तब हिंसा की जरूरत ही नहीं रहती । विधेयभाव में अभय की साधना वही कर सकेगा जो अहिंसक, अपरिग्रही दोनों होगा। अभय का ही पर्याय अप्रमाद दोनों तत्वों का आधार बिंदु बनता है। महावीर की साधना का सार एक शब्द में प्रस्तुत किया जा सकता है, वह है-जागरूकता (अप्रमाद की साधना)। इसी माध्यम से महावीर उच्चतम कोटि के अहिंसक व अपरिग्रही एक साथ कहलाए। यह कथन तर्कसंगत भी है । आभ्यन्तर प्रमाद (भूर्णी) हिंसा और परिग्रह का निमित्त बनता है तथा अप्रमाद अहिंसा और अपरिग्रह का साधन बनता है । साधना की दृष्टि से भी दोनों का साथ-साथ विकास होगा। अतः दोनों में परिभाषा की एकरूपता भी घनिष्ट सम्बन्ध को बतलाती है । इसी प्रसंगवश संदर्भ में युवाचार्य' भी यही लिखते हैं कि अहिंसा की लम्बी-चौड़ी परिभाषा नहीं । जब आदमी अपने प्रति जागता है तब ममत्व का धागा टता है, अहिंसा का विकास होता है । जब आदमी अपने प्रति सोने लगता है तब ममत्व का धागा फैलता है, हिंसा बढ़ जाती है । व्यक्तिपरक दृष्टिकोण अध्यात्म प्रधान भारतीय संस्कृति में अनेक महापुरुषों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । यथा-भगवान् महावीर, गौतम बुद्ध, महर्षि दधीचि तथा महात्मा गांधी, आचार्य भिक्षु आदि महान् विभूतियां थीं । इन सभी व्यक्तियों में दोनों तत्वों का युगपत् दर्शन विकास देखा जा सकता है । भगवान् महावीर को निग्रंथ इसीलिए कहा जाता है कि उन्होंने परिग्रह के नाम पर तन पर रखे वस्त्र को त्यागने के साथ-साथ शरीर तक का व्युत्सर्ग करने के लिए कठोरतम कष्टों को सहन किया । उपर्युक्त विवेचन से यह तथ्य सत्यापित हो जाता है कि बिना अपरिग्रही बने अहिंसा असंभव और बिना अहिंसा भाव के अपरिग्रही होना असंभव है। आज के जन-जीवन में विसंगत व्यवहार व्याप्त है। एक ओर व्यक्ति असीम वैयक्तिक स्वामित्व की मनोवत्ति से अभिप्ररित होकर श्रमिकों के श्रम से अनुचित लाभ उठाता है। ऐसा करके वह बंधुआ मजदूर के रूप में पुरानी दास-प्रथा का नया संस्करण तैयार कर तुलसी प्रशा Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहा है । दूसरी ओर सभा, संस्थानों आदि में अपने ही मित्रों को थोड़ा-बहुत अनुदान देकर सहयोग व सेवा-ढोंग रचता है। वास्तव में पैसे के पास पैसा दौड़ा जा रहा है । गरीब और अधिक गरीब होता जा रहा है । ऐसी स्थिति में करोड़पति सोचता है-मैं सुखी रहूं, प्रसन्न रहूं। यह शाश्वत नियम है कि दूसरे को दुःखी बनाकर व्यक्ति स्वयं कभी-भी आनंद व सुखानुभूति नहीं कर सकता। जबतक व्यक्तिगत जीवन में संयम रूप परिग्रह परिणाम नहीं होगा, सच्चे सुख व आनंद का अनुभव नहीं हो सकता । युवा चार्यश्री' ने भी यही कहा है—अहिंसा की बात तब तक फलित नहीं होगी जब तक मनुष्य के जीवन में संयम को प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी। इच्छाओं की वृद्धि से हिंसा को पल्लवन मिलता है । व्यक्तिगत जीवन में दोनों तत्वों का समन्वित विकास ही शांति और सुख का आधारभूत बन सकता है। सामयिक तथा सामुदायिक दृष्टिकोण समाज के प्रारम्भ में आवश्यकताएं सीमित थीं । इसकी वजह से हिंसक घटनाए कभी-कभी घटती थीं । दंड विधान भी हकार, मकार व धिक्कार शब्द तक ही मिलता था । लेकिन ज्यों-ज्यों समुदाय बना, समाज बना, व्यक्ति की संग्रह की सुप्त वृत्ति जागने लगी, एकाधिकार की भावना बल पकड़ने लगी। शक्ति-वर्द्धन व संरक्षण के लिए हिंसा को हथियार चुना गया तथा पूंजीवादी व्यवस्था अर्थ के साथ-साथ जीवन शैली का रूप भी धारण करने लग गई। आज सारी सत्ता-संपदा मुट्ठी भर लोगों के पास सिमट कर रह गई है । इस पूंजीवादी व्यवस्था ने समाज के सामने अनगिनत समस्याएं खड़ी कर दी हैं । श्रम गौण होता जा रहा है। सामान्य जनता कोल्हू का बैल बन चुकी है। गरीबी, अभाव, भुखमरी, अशिक्षा, अन्याय, बेरोजगारी इत्यादि हिंसा के विविध रूप समाज में व्याप्त होते जा रहे हैं। इस परिस्थिति में एकमात्र उपाय है-अहिंसक वातावरण के लिए असीम वैयक्तिक स्वामित्व को कम करने की अपेक्षा । ___ व्यक्ति और समाज में अभिन्नता होती है । समाज व्यक्तियों का ही प्रतिबिम्ब होता है । जैसा व्यक्ति होगा वैसी ही सामाजिक रचना होगी। पूजीवादी व्यवस्था में आस्था रखने वालों के समाज का स्वरूप भी विषमतापूर्ण ही होगा। संप्रति पूरा विश्व-समाज दो खेमों में विभक्त हो चुका है। एक में विश्व के ५ या ६% लोग हैं जो ऐशो-आराम का जीवन व्यतीत करते हैं, सारी सुख-सुविधाओं को भोगते हैं। दूसरी तरफ बहुत बड़ा भाग न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मजबूर है, विवश है। इस प्रकार की अमानवीय हिंसा का मूल कारण है-धन का उन्माद । इस संरचनात्मक हिंसा को कम करने के लिए परिग्रह-परिमाण का अनुपालन जरूरी है। इसी संदर्भ में युवाचार्यश्री' ने लिखा है कि व्यावहारिक अहिंसा की साधना समाज के संदर्भ में होती है । हजारों-हजारों आदमी एक साथ रहें और दूसरों को क्षति न पहुंचाएं यह व्यावहारिक अहिंसा है। यह समाज की आधारभित्ति है। इस प्रकार दोनों सामाजिक विकास के आधारभूत तत्व रूप में रूपायित होते हैं। समाजपरक दृष्टिकोण से भी दोनों का सहअस्तित्व जरूरी है। दोनों के मिलाने से ही रचनावाद शक्ति का विकास हो सकता है, उसका समाजोत्थान में उपयोग किया जा सकता है। खण्ड १६, अंक ३, (दिस ०, ६०) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समतामूलक दृष्टिकोण जैनागमों में कहा गया है कि अहिंसा और अपरिग्रह का मूलाधार एक है। वह हैसमता । अहिंसा के संदर्भ में समता से तात्पर्य है-मन व धन और काम से किसी भी प्राणी को क्षति न पहुंचाएं। आक्रमण तथा प्रत्याक्रमण की नीति का त्याग करना। अस्तित्व की दृष्टि से सभी आत्मा एक है जैसा कि ठाणं में उल्लेख मिलता है । वहां पाठ है"एगे आया" जब आत्मा एक है तब कौन किसको दुःखी बना सकता है। एक का दुःख सब पर प्रभाव डालेगा। अतः शांत सहवास के लिए इस सूत्र का पालन जरूरी है। अनुभूति की दृष्टि से देखें तो भी सुख-दुःख सबको समान रूप से अनुभव में आते हैं। संवेदन का अनुभव जितना चींटी को होगा उतना ही विशालकाय हाथी को। इसीलिए सब आत्मा को अपने समान समझा जाए । इस एकात्मकता की अनुभूति के लिए आचारांग का यह सूत्र "आया तुला पयासु'' आलम्बन सूत्र बन सकता है। मनोवैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर सभी जीवों की समानता सिद्ध होती है। प्रत्येक प्राणी जीना चाहता है। उसे सुख प्रिय तथा दुःख अप्रिय है। इसी मनोवृत्ति का आचारांग में वर्णन किया गया है--- “सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्खपडिकला अप्पियवहा पियजीविणो जीविउकामा । सव्वेसि जीवियं पियं" । सभी प्राणियों को सात वेदनीय अनुकूल तथा असातवेदनीय स्थिति प्रतिकूल लगती है। सभी को जीवन प्रिय है। इसीलिए अहिंसा और अपरिग्रह के रूप में समता का व्यावहारिक प्रयोग करके ही सभी जीवों को प्राणदान तथा अभयदान दिया जा सकता है। जैन मुनि का पूरा जीवन समता का अखंड प्रयोग होता है । आयारो' में कहा गया है-"पंतं लू हं सेवंति वीरा समत्तदंसिणो।" यह सूत्र आहार की आसक्ति से मुक्त साधु के संदर्भ में कहा गया है कि वह कैसा भोजन करता हुआ सम रहता है। लेकिन समत्वदर्शी विशेषण से यह प्रतिध्वनित होता है कि वह गरीब से गरीब व्यक्ति को अपने समान समझता हुआ प्राप्त (अवशिष्ट) तथा रूक्ष (रसहीन) आहार ग्रहण करता है । किसी भी जीव को हीन या अतिरिक्त नहीं मानता । वह अपनी भावना को आत्मा—इस सूत्र “णो हीणे णो अइरित्ते" की भावना से भावित करता रहता है । इससे अहंकार रूप परिग्रह को पुष्ट होने का अवसर नहीं मिलता तथा हिंसा में प्रवृत्ति नहीं होती है। ____ अपरिग्रह के संदर्भ में समता का अर्थ है-लाभ-हानि में सम रहना । आयारो" में इसे व्यक्त किया गया है कि "लाभो त्ति न मज्जेज्जा" तथा अलाभो त्ति ण सोयए" (इष्ट वस्तु का) लाभ होने पर मद न करे तथा (इष्ट वस्तु का) लाभ न होने पर शोक न करें। आज अधिकतर बीमारियों का कारण मनःस्थिति का असंतुलन है । सामाजिक व आर्थिक स्तर पर अपने से निर्बल लोगों के साथ असमानतापूर्वक व्यवहार किया जाता है । श्रम का अवमूल्यन हो रहा है । तिरस्कार किया जाता है। शोषण बढ़ता जाता है । निरीह पशुओं पर अतिरिक्त भार लादा जाता है। इन सब स्थितियों का प्रमुख कारण आत्मा की समानता के सिद्धांत की विस्मृति है। समाज की दृष्टि से अपरिग्रह का समता पर आधृत रूप व्यावहारिक होगा यदि न्यूनतम आवश्यकताओं की समानस्तरीय पूर्ति हो । आर्थिक समानता को लाया जाए ताकि सबका साथ-साथ योग्यता तुलसी प्रज्ञा Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नुसार विकास हो सके। आर्ष वाणी में भी शाश्वत धर्म की चर्चा में जीवन के शाश्वत मूल्यों का ही विश्लेषण किया गया है। परिणामतः अपरिग्रह परमो धर्मः की स्थापना होती है। आयारो' में वर्णित गुरु-शिष्य संवाद की कुछ पंक्तियां इसी प्रसंग की पुष्टि करती हैं । वे हैं-परूवेंति-सव्वे पाणा सम्वे भूता सव्वे जीवा सव्वे सत्ता ण हंतव्वा, ण अज्जावेयव्वा ण परिवेतव्वा, ण परितावेयव्वा, ण उद्दवेयन्वा । भगवान् महावीर शाश्वत धर्म की प्ररूपणा करते हुए कहते हैं-किसी भी प्राणी-भूत, जीव तथा सत्व का हनन नहीं करना चाहिए, उन पर शासन नहीं करना चाहिए, उनको अपना दास नहीं बनाना चाहिए तथा उनका प्राण वियोजन नहीं करना चाहिए। प्रश्न उठ सकता है कि क्यों नहीं करना चाहिए ? इसका सुन्दर व स्थाई समाधान पुनश्च आचारांग' की ही भाषा में दिया गया है । वह है तुमंसि नाम सच्चेव जं 'हंतव्वं' ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं 'अज्जावेयव्वं' ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जंपरितावेयव्वं' ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं परिघेतव्वं' ति मन्नसि । तुमंसि नाम सच्चेव जं 'उद्दव यव्वं' ति मन्नसि । जिसे तू हनन योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू आज्ञा में रखना चाहता है, वह तू ही है । जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू दास बनाने योग्य मानता है, वह तू ही है । जिसे तू मारने योग्य समझता है, वह तू ही है। यह एक ऐसा शाश्वत तथा सर्वव्यापी सिद्धांत है जिसको ध्यान में रखकर स्वस्थ समाज का आसानी से निर्माण किया जा सकता है । उपर्युक्त विश्लेषण से हमने पाया कि समता, अहिंसा और अपरिग्रह के बीच सेतुबंध है। समतामूलक दृष्टि से दोनों तत्वों की युगपत् प्रतिष्ठा होगी । एक व्यक्ति अथवा समाज यह कहे कि हमारा हिंसा में विश्वास नहीं लेकिन शोषण किया जा सकता है अथवा शोषण नहीं, प्राणों का हनन किया जा सकता है तो इसमें समता नीचे से खिसक जाती है । अतः समता के संदर्भ में दोनों का विवेचन परस्पर एकरूपता को सिद्ध करता है । अहिंसा और अपरिग्रह एक हैं। दोनों का सहअस्तित्व रहेगा तथा इनमें अविनाभावी सम्बन्ध है। संदर्भ: १. आयारो, ३।३० ७. आयारो २. वही, ३१७५ ८. वही, २।६३-६४ ३. अहिंसा के अछूते पहलू, पृ० १४ ६. वही, २।१६४ ४. वही, पृ० ७७ १०. वही, २१११४-११५ ५. वही, पृ०७७ ११. वही, ४११ ६. ठाणं सूत्र १२. वही, ५॥१०१ OD बम १६, बंक ३ (दिस०, ६.) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव और शरीर के सम्बन्ध सेतु समणी मंगलप्रज्ञा विश्व-प्रहेलिका को सुलझाने का प्रयत्न सभी दार्शनिकों ने किया है । जगत् की व्याख्या सभी ने अपनी दृष्टि से भिन्न-भिन्न प्रकार से की है। सभी के सामने यह प्रमुख समस्या थी कि इस जगत् का नियामक तत्व क्या है ? जगत् का सम्पूर्ण प्रपंच एक तत्व का विस्तार है अथवा अनेक तत्वों की समन्विति है । द्वैतवादी और अद्वैतवादी विचारधारा विश्व-व्याख्या के संदर्भ में दो प्रकार की विचारधाराओं का प्रस्फुटन हुआ--द्वैतवादी और अद्वैतवादी । अद्वैतवादियों ने एक तत्व के आधार पर विश्व-व्याख्या प्रस्तुत की । द्वैतवाद ने दो तत्वों को विश्व व्याख्या में आधारभूत बनाया । अद्वैतवाद में भूताद्वैत तथा चैतन्याद्वैत प्रसिद्ध है । भूताद्वैतवादियों के अनुसार यह जगत् जड़ द्रव्य से पैदा हुआ है । जड़ से भिन्न किसी चेतन नामक द्रव्य का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। चेतन की उत्पत्ति जड़ से ही हुई है । चेतनाद्वैतवाद में कहा है-सम्पूर्ण जगत् चेतनामय है । चेतन भिन्न जड़ का कोई अस्तित्व नहीं है । चेतनाद्वैत (ब्रह्माद्वैत) में वेदान्त तथा भूताद्वैत (जड़ाद्वैत) में चार्वाक का शीर्षस्थ स्थान है। द्वतवाद की जगत् व्याख्या दो तत्वों की फलश्रुति है। उनके अनुसार यह दृश्यमान चराचर जगत् न केवल जड़ से पैदा हुआ है और न ही चेतन से । चेतन तथा जड़ की समन्विति से ही यह जगत् है । चेतन जड़ को पैदा नहीं कर सकता। अचेतन चेतन का उत्पत्तिकारक नहीं है । दोनों का स्वतः स्वतन्त्र अस्तित्व है। इन दोनों के योग से सृष्टि का जन्म होता है, यह द्वैतवाद की अवधारणा है। अद्वैतवाद के सामने सम्बन्ध की समस्या नहीं थी यद्यपि ब्रह्म (चेतन) से जड़ अथवा जड़ से चेतन की उत्पत्ति कैसे हुई यह समस्या उनके सामने थी परन्तु दो विसदृश तत्वों का योग कैसे हुआ यह कठिनाई उनके समक्ष नहीं थी। द्वैतवादी दर्शनों को इस समस्या से जूझना पड़ा। दो विसदृश पदार्थों का परस्पर सम्बन्ध कैसे हो सकता है, इसका समाधान देना उनके लिए आवश्यक हो गया था। राजप्रश्नीय एवं सूत्रकृतांग सूत्र में तज्जीव तच्छरीरवाद का उल्लेख है। तज्जीव तच्छरीरवाद के सामने सम्बन्ध की समस्या नहीं थी । सांख्य प्रकृति एवं पुरुष ये दो तत्व मानता है। पुरुष अमूर्त, अकर्ता है। उसने बन्ध पुरुष को माना ही नहीं है। उनके अनुसार प्रकृति ही बन्धती है और वही मुक्त होती है। "प्रकृतिरेव मानापुरुषाश्रया सती बध्यते संसरति मुच्यते च न पुरुष इति ।। तुलसी प्रज्ञा Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसने विसदृश पदार्थों का सम्बन्ध करवाये बिना ही संसार की व्याख्या की। विकास का पूरा भार प्रकृति पर ही डाल दिया । जो कार्य चेतन द्रव्य को करना था वह कार्य बुद्धि से करवाया। पुरुष को सर्वथा अमूर्त मान लेने के कारण ही बुद्धि को उभय मुखाकार दर्पण की उपमा से उपमित किया गया। विज्ञानवादी बौद्ध ने इस प्रश्न को ही टाल दिया। उसने कहा--विज्ञान ही सत् है । बाह्य पदार्थ का अस्तित्व ही नहीं है । अतः उनकी सम्बन्ध की चर्चा ही अनावश्यक है। भगवान् बुद्ध से भी प्रश्न पूछा गयाआत्मा और शरीर में भेद है या अभेद ? उन्होंने कहा---आत्मा और शरीर में सर्वथा न भेद को स्वीकार किया न ही अभेद को। उन्होंने कहा-शरीर और आत्मा में सर्वथा भेद या अभेद मानने से ब्रह्मचर्यवास सम्भव नहीं है। अत: मैं मध्यम मार्ग का उपदेश देता है । नैयायिक एवं वैशेषिक भी द्वैतवादी दार्शनिक हैं। उनके यहां भी परमाणु तथा चेतन---ये दोनों भिन्न तत्व हैं। जगत् के उपादान कारण ये ही हैं। इनका सम्बन्ध ईश्वरीय शक्ति के द्वारा होता है। इनको इन दोनों में सम्बन्ध करवाने के लिए निमित्त कारण के रूप में ईश्वर को स्वीकार करना पड़ा। पाश्चात्य मत भारतीय दार्शनिकों के समक्ष ही यह समस्या नहीं थी, पाश्चात्य दार्शनिक भी आत्मा और शरीर में क्या सम्बन्ध है इस पर निरन्तर चिन्तन कर रहे थे। किसी ने अद्वैतवाद का समर्थन करके समस्या से मुक्ति पाने का प्रयत्न किया तो किसी ने द्वैतवाद को स्वीकृति देकर चेतन और जड़ में सम्बन्ध खोजने का प्रयत्न किया। बेनेडिक्ट स्पिनोजा अद्वैतवाद के समर्थक थे। उन्होंने मनस और शरीर को एक ही तत्व के दो पहलू के रूप में स्वीकार किया, अतः उन दो तत्वों में परस्पर सम्बन्ध की समस्या ही नहीं थी। लाइबनित्स ने मन और शरीर में कार्य-कारणवाद स्वीकार करके समस्या को समाहित करने का प्रयत्न किया । उनके अनुसार मन का शरीर पर और शरीर का मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। रेने देकार्ते ने Mind and body, मनस (आत्मा) और शरीर की निरपेक्ष सत्ता स्वीकार की। उन दोनों की क्रिया, स्वभाव, स्वरूप में भी भिन्नता का स्पष्ट प्रतिपादन किया । जड़ तत्व का मुख्य लक्षण विस्तार तथा चेतन द्रव्य का लक्षण विचार है। देकाते के शब्दों में---The mind or soul of a man is entirely different from body. जब दो तत्वों की निरपेक्ष सत्ता स्वीकृत हुई तो उनका आपस में क्या सम्बन्ध है यह समस्या महत्वपूर्ण हो गई। जब दोनों सर्वथा भिन्न हैं तो इनमें परस्पर अन्तक्रिया कैसे होती है ? मन का शरीर पर और शरीर का मन पर प्रभाव कैसे पड़ता है ? देकार्ते ने इसका समाधान शरीरशास्त्रीय दृष्टिकोण से दिया। उसने बतलाया कि शरीर का मन पर और मन का शरीर पर वास्तविक रूप से कोई प्रभाव नहीं पड़ता । उसने शरीर और आत्मा (मनस) का सम्बन्ध-सेतु मस्तिष्क के अग्रभाग में स्थित पीनियल ग्रन्थि को माना। इसी ग्रन्थि के कारण मन और शरीर में परस्पर सहयोग दिखलाई पड़ता है। देकार्ते के इस अभ्युपगम पर कई आपत्तियां भी उपस्थित की गईं, जैसेखण्ड १६, अंक ३ (दिस०, ६०) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) निराकार आत्मा साकार पीनियल में कैसे रहती है ? (२) दो भिन्न तत्वों में परस्पर अन्तक्रिया कैसे हो सकती है ? (३) देकार्ते का यह सिद्धान्त शक्ति संरक्षण के विरुद्व है। यह नहीं कहा जा सकता कि शारीरिक घटनाओं से मानसिक घटनाएं और मानसिक से शारीरिक घटनाएं होती हैं। देकार्ते के सिद्धान्त में उपर्युक्त कठिनाइयां होते हुए भी आधुनिक वैज्ञानिक शरीर और मन में अन्तक्रिया मानते हैं। इस समस्या को सुलझाने के लिए चिन्तकों का ध्यान केन्द्रित हुआ है तथा इसको सुलझाने के लिए प्रयत्न भी किए हैं। जैन दर्शन की मान्यता जैन दर्शन द्वैतवाद का पक्षधर है। इसके अनुसार जड़ और चेतन ये दो तत्व विश्व-व्यवस्था के नियामक हैं। दोनों का स्वभाव एवं अस्तित्व स्वतन्त्र है । चेतन और अचेतन अत्यन्ताभाव हैं फिर भी उनका परस्पर सम्बन्ध स्वीकार किया गया है । सिद्धसेन दिवाकर ने कहा-संसारी आत्मा कर्म के साथ क्षीर एवं नीर की तरह मिली हुई है, अतः अभिन्न है तथा उनका तात्त्विक अस्तित्व स्वतन्त्र है, अतः वे परस्पर भिन्न भी हैं । संसारावस्था में जड़, चेतन में परस्पर क्षीर-नीर की तरह एकीभाव सम्बन्ध है। जो अनुसंचरण करने वाला जीव है वह पुद्गल के साथ घुला-मिला है इसलिए चेतन और अचेतन सर्वथा स्वतन्त्र नहीं है । भगवती सूत्र में जीव और पुद्गल के सम्बन्ध सेतुओं का निरूपण करते हुए कहा गया है-"अत्यि णं जीवा य पोग्गला य अण्णमण्णबद्या, अण्णमण्णपुट्ठा, अण्णमण्णमोगाढा, अण्णमण्णसिणेहपडिबद्धा, अण्णमण्णघडताए चिट्ठ।" जीव और पुद्गल परस्पर बद्ध हैं, स्पृष्ट हैं, अवगाहित हैं, स्नेह से प्रतिबद्ध हैं । जीव और पुद्गल में आपस में मिलने की प्रायोग्यता को स्नेह कहा गया है। आश्रव जीव का स्नेह है तथा आकर्षित होने की अर्हता पुद्गल का स्नेह है । जीव में धन शक्ति है तथा पुद्गल में ऋण शक्ति है अतः वे परस्पर मिल जाते हैं। भगवती में भगवान् महावीर ने एक उदाहरण के द्वारा जीव और पुद्गल के परस्पर सम्बन्ध को स्पष्ट किया है। तालाब में पानी है। उसमें सैकड़ों छिद्रवाली नौका है। जिस प्रकार वह नौका पानी से भर जाती है वैसे ही जीव के छिद्र आश्रव हैं, कर्म रूपी पानी उन आश्रव रूपी छिद्रों में भर जाता है। राग-द्वेष से युक्त आत्मा के कर्म बंधते हैं। "स्नेहाभ्यक्तशरीरस्य रेणुना श्लिष्यते यथा गात्रम् । रागद्वेषक्लिन्नस्य कर्मबन्धो भवत्येव ॥" राग-द्वेष से युक्त आत्मा के कर्मों का बन्ध होता है। प्रश्न फिर भी बना रहता है कि जीव और पुद्गल के आपसी सम्बन्ध का सेतु क्या है ? इनका परस्पर सम्बन्ध कैसे होता है ? दोनों परस्पर विरोधी स्वभाव वाले हैं । चेतन अमूर्त और जड़ मूर्त है ? क्या इनका सम्बन्ध करवाने वाला कोई तीसरा पदार्थ है। जैसा कि न्याय-वैशेषिक ने द्रव्य और गुण में परस्पर सम्बन्ध करवाने के लिए तीसरे समवाय पदार्थ को स्वीकृति दी। ईश्वर को जड़-चेतन से सम्बन्धित करवाने के लिए स्वीकार किया है । जैन-दर्शन ने जगत् निर्माण में किसी भी ईश्वरीय शक्ति को स्वीकृति नहीं दी है। उन्होंने इस समस्या को समाहित करने का यौक्तिक प्रयत्न किया । जीव और पुद्गल का भौतिक सम्बन्ध तुलसी प्रशा Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । जैन ने जीवों को दो भागों में विभक्त किया-सिद्ध एवं संसारी। सिद्धात्मा सर्वथा अमूर्त होती है अतः उसके साथ कर्म पुद्गलों का सम्बन्ध नहीं हो सकता। आत्मा स्वरूपतः अमूर्त है किन्तु संसारावस्था में वह कथंचित् मूर्त भी है। संसार दशा में जीव और पुद्गल का कथंचिद् सादृश्य होता है । अतः उनका सम्बन्ध होना असम्भव नहीं है। संसारी आत्मा सूक्ष्म और स्थूल---इन दो प्रकार के शरीरों से आवेष्टित है । एक जन्म से दूसरे जन्म में जाते समय स्थूल शरीर छूट जाता है, सूक्ष्म शरीर नहीं छूटता । सूक्ष्म शरीरधारी जीव ही दूसरा शरीर धारण करते हैं, इसलिए अमूर्त जीव मूर्त शरीर में प्रवेश कैसे करता है—यह प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता है क्योंकि संसारी आत्मा कथंचिद् मूर्त है । भगवती सूत्र में इस प्रश्न को सुलझाया गया है। वहां कहा गया है कि अरूप सरूप नहीं हो सकता । कर्म, राग, मोह, लेश्या एवं शरीर के कारण जीव मूर्त भी है। शरीर सम्बन्ध के कारण जीव पांच वर्ण, गंध आदि से भी युक्त है। जीव स्वरूप से अमूर्त है किन्तु बद्धावस्था की अपेक्षा मूर्त भी है अत: उसका पुद्गल के साथ सम्बन्ध होता है । सेन्टरी पेटल आकर्षण पुद्गल का है तथा सेन्टरी फ्यूगल आकर्षण जीब का है । पुद्गल जीव को आकर्षित करते हैं तथा जीव भागने की कोशिश करता है । पूरा भाग नहीं सकता अतः संसार में परिभ्रमण करता है। जब भाग जाता है. तब मुक्त बन जाता है । जीव और पुद्गल में भोग्य-भोक्तृ सम्बन्ध है । जीव भोक्ता है, पुद्गल भोग्य जीव और शरीर जीव और शरीर का परस्पर भेदाभेद है। यह भेदाभेद अनेकान्त दृष्टि के द्वारा ही समझा जा सकता है । गौतम ने भगवान महावीर से पूछा "आया भंते ! काये ? अण्णे काये ? गोयमा ! माया वि काये, अण्णे वि काये।" इत्यादि। आत्मा और शरीर में सर्वथा अभेद नहीं है, यदि सर्वथा अभेद होता तो ये दोनों एक ही हो जाते । सर्वथा भेद भी नहीं है। सर्वथा भेद होने से परस्पर कभी-भी नहीं मिल सकते थे। अतः अपने विशेष गुणों के कारण इनमें परस्पर भेद भी है और सामान्य गुणों के कारण अभेद भी है। भगवान् महावीर ने आत्मा को शरीर भिन्न और अभिन्न दोनों कहा है। ऐसी स्थिति में दो प्रश्न हमारे सामने उपस्थित होते हैं ----यदि शरीर आत्मा से अभिन्न है तो उसे आत्मा की तरह अरूपी और सचेतन भी होना चाहिए। जैन दर्शन में समाधान प्राप्त है कि शरीर रूपी भी है और अरूपी भी है। सचेतन भी है और अचेतन भी है। आत्मा और शरीर में अत्यन्त भेद माना जाए तो कायकृत कर्मों का फल आत्मा को नहीं मिलना चाहिए । अत्यन्त अभिन्न मानें तो शरीर दाह के समय आत्मा भी नष्ट हो जाएगी जिससे परलोक सम्भव नहीं है। इन्हीं दोषों को देखकर भगवान् बुद्ध ने कह दिया कि भेद और अभेद-ये दोनों पक्ष उचित नहीं हैं। जबकि भगवान् महावीर ने दोनों विरोधिवादों का समन्वय स्थापित किया है। एकान्त भेद और अभेद मानने पर जो दोष आते हैं वे उभयवाद की स्वीकृति में विलीन हो जाते हैं। जीव और शरीर का खण्ड १६, अंक ३ (दिस०, ६०) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथंचिद् भेदाभेद है। शरीर नाश के बाद भी आत्मा रहती है तथा सिद्धावस्था में अशरीरी आत्मा भी होती है । अत: आत्मा और शरीर परस्पर भिन्न हैं । संसारावस्था में शरीर और आत्मा का क्षीर-नीरवत् या अग्नि-लोहपिण्डवत् तादात्म्य होता है, अतएव काय से किसी वस्तु का स्पर्श होने पर आत्मा में संवेदन होता है। कायकृत कर्म का भोग भी आत्मा करती है, अतः शरीर और आत्मा अभिन्न हैं । भगवती सूत्र में जीव के गति, इन्द्रिय आदि दस भेद गिनाये हैं। यदि जीव और काय का अभेद न माना जाए तो इन परिणामों को जीव परिणाम के रूप में नहीं गिनाया जा सकता था। उसी प्रकार जीव को सवर्ण, सगन्ध आदि माना है। वह भी जीव शरीर के अभेद हेतु से ही माना है। आचारांग में आत्मा के स्वरूप को प्रकट करते हुए कहा गया- "सव्वे सरा नियटति" इत्यादि"५ । भगवती सूत्र में जीव को अरूपी, अकर्म कहा गया। इन व्याख्याओं से जीव और शरीर की भिन्नता की सूचना ही प्राप्त होती है। इस प्रकार सापेक्ष दृष्टि से जीव और शरीर का भेदाभेद सिद्ध हो जाता है। शरीर औदारिक शरीर की अपेक्षा रूपी है तथा कार्मण की अपेक्षा अरूपी भी है। __ आत्मा-शरीर के सम्बन्ध के सन्दर्भ में आचार्य कुन्दकुन्द के विचार भिन्न प्रकार के हैं। वे निश्चयनय के अनुसार आत्मा को शुद्ध मानते हैं। उसके किसी प्रकार का बन्ध है ही नहीं । व्यवहारनय से वह बंधी हुई है । व्यवहार नय असद्भूत है "जीवो चरितणाणदसणट्ठिउ य ससमयं जाण । पुग्गलकम्मपदेसो च जाण परसमय ॥" कुन्दकुन्द का झुकाव वेदान्त, सांख्य दर्शन की तरफ प्रतीत होता है । उनका कहना है कि आत्मा यदि स्वरूपतः बन्धी हुई है तो वह कभी भी मुक्त नहीं हो सकती। जीव और पुद्गल का सम्बन्ध अनादि है। सभी भारतीय दार्शनिकों ने ऐसा स्वीकार किया है । न्याय-वैशेषिक दर्शन ने जगत् को ईश्वरकृत मानकर भी संसार को अनादि माना है तथा चेतन एवं शरीर के सम्बन्ध को भी अनादि स्वीकार किया है। "अनादिचेतनस्य शरीरयोगः अनादिश्च रागानबन्धः" कर्म सिद्धान्त के अनुसार आत्मा और अनात्मा के सम्बन्ध को अनादि मानना अनिवार्य है। यदि ऐसा न माना जाए तो कर्म सिद्धान्त की मान्यता का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। यही कारण है कि उपनिषदों के टीकाकारों में शंकर को ब्रह्म और माया के सम्बन्ध को अनादि मानना पड़ा। भास्कराचार्य ने सत्य रूप उपाधि का ब्रह्म के साथ अनादि सम्बन्ध माना है । रामानुज, निम्बार्क एवं मध्व ने अविद्या को अनादि माना है । वल्लभ के अनुसार जिस प्रकार ब्रह्म अनादि है वैसे ही उसका कार्य भी अनादि है। अतः जीव तथा अविद्या का सम्बन्ध भी अनादि है । सांख्य मत में प्रकृति एवं पुरुष का संयोग, बौद्धमत में नाम और रूप के सम्बन्ध को अनादि माना है। जैन दर्शन भी जीव और कर्म के संयोग को अनादि स्वीकार करता है। जैसे मुर्गी और अण्डे में पौर्वापर्य नहीं बताया जा सकता वैसे ही जीव और कर्म के सम्बन्ध में पौर्वापर्य नहीं है। यदि कर्मों से पहले आत्मा को मानें तो (शेषांश पृष्ठ १५ पर) तुलसी प्रमा Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन काव्य : दार्शनिक प्रवृत्तियां D डॉ० मंगल प्रकाश मेहता* अधिकांश हिन्दी जैन-साहित्य की आधार-भूमि जैन दर्शन है। परमात्म प्रकाश, योगसार, जसहरचरिउ, सावयधम्मदोहा, पावपुराण, यशोधर चरित्र, सीता चरित्र, शतअष्टोत्तरी, चेतन कर्म चरित्र, नेमिचन्द्रिका, बंकचोर की कथा आदि रचनाओं में जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष आदि दार्शनिक तत्वों का विवेचन विपुल मात्रा में हुआ है । अन्य रचनाओं में दार्शनिक तत्वों का प्राचुर्य भले ही न हो किन्तु उनकी मूल प्रेरणा का आधार जैन तत्व चिन्त न ही है। जोव : जीव तत्व का वर्गीकरण उसकी मुक्ति प्राप्ति की योग्यता तथा वर्तमान स्थिति के आधार पर किया गया है । मुक्ति-प्राप्ति विषयक योग्यता के सम्बन्ध में जीव के दो भेद हैं-भव्य और अभव्य । जिसमें सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र द्वारा मुक्ति प्राप्त करने की योग्यता है वह भव्य जीव है और जिसमें इस प्रकार की योग्यता का अभाव है, वह अभव्य जीव है।। ___ जीव की वर्तमान स्थिति के आधार पर उसके दो भेद हैं-संसारी और मुक्त । जो कर्मबद्ध है, वह संसारी जीव है। जो कर्म शृंखला से मुक्त हो चुका है, अनन्त ज्ञान , अनन्त सुखादि गुणों से अलंकृत है, वह आवागमन रहित अर्थात् मुक्त जीव है। जैन काव्य साहित्य में जीव तत्व का सर्वाधिक उल्लेख मिलता है । 'बंकचोर की कथा' के अनुसार जीव नानाविध सन्ताप सहन करता है, उसे एक क्षण सुख की अनुभूति नहीं होती। पाप के कारण जीव को अधोगति प्राप्त होती है। कोई गर्भ में ही समाप्त हो जाता है, कोई बाल या तरुण होकर मृत्यु प्राप्त करता है, कोई वृद्धावस्था के कष्ट सहन करता है, कोई मोहमद में लिप्त हो दुर्गतियों में भटकता है, कोई रोगादि से पीड़ित हो दुःख भोगता है, कोई पुत्र-कलह के बीच घर में बन्दी बना रहता है। _ 'यशोधर चरित' के अनुसार अपने उत्थान-पतन के लिए जीव स्वयं उत्तरदायी है । अपने कर्मों से ही वह बन्धन मुक्त होता है। अन्य न कोई उसे बांधता है और न बन्धन से मुक्त करता है । अजित कर्मों का फल वह निश्चित ही भोगता है। शुभाशुभ कर्मों के अनुसार ही उसे फल प्राप्त होता है ।' * शोधाधिकारी (सम्पादक-'तुलसी प्रज्ञा'), अनेकांत शोध पीठ, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) खण्ड १६, अंक ३ (दिस०, ६०) ११ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'शतअष्टोत्तरी' में जीव के सिद्धत्व अवस्था प्राप्त कर लेने का उल्लेख है। जीव अपनी विशुद्ध स्वाभाविक दशा में पहुंचकर परमात्मा हो जाता है। जीव कर्मों के आवरण से मुक्त होते ही सांसारिक दशा से मुक्त होकर अपनी शाश्वत एवं सिद्धत्व अवस्था प्राप्त कर लेता है तथा विश्व का ज्ञाता और द्रष्टा हो जाता है। ___ यह स्थिति उसी समय सम्भव है, जब मनुष्य परसंगति का परित्याग कर राग, द्वेष, मोह, मिथ्यात्व का परिहार कर दे।' आत्म स्वरूप के विपरीत पर-प्रीति उसे नरकोन्मुख करने वाली है। अपने स्वभाव को भूल जाना ही उसके जगत् परिभ्रमण का, अनेक योनियों में भटकने का कारण है। रत्नत्रय (सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र) का पालन तथा अपने मूल स्वरूप के परिज्ञान से मनुष्य को शुद्ध बुद्धत्व प्राप्त होता है । आत्मा ही उसका देव और गुरू है। जीव निर्जरा अवस्था के पश्चात् परमात्मा पद पर प्रतिष्ठित हो जाता है । ऐसी स्थिति में सेवक और स्वामी का भेद मिट जाता है। वह स्वयं ही सेवक है और स्वयं ही स्वामी है।" __सारांश यह है कि जैन काव्यों में स्थान-स्थान पर जीव तत्व विविध रूपों में उभर कर प्रत्यक्ष हुआ है। इसके अतिरिक्त जीव के साथ अजीव तत्व भी उल्लेखनीय अजीव: अजीव चैतन्य शून्य द्रव्य है। पार्श्वपुराण के रचयिता ने अजीव तत्व का उल्लेख करते हुए जीव तत्व को चेतनायुक्त एवं अजीव तत्व को जड़ कहा है।' आत्रवः कर्म पुद्गलों का जीव की ओर अग्रसर होना आस्रव है। 'पार्श्वपुराण' में इस अवस्था का प्रतिपादन किया गया है। जबतक कर्मास्रव की धारा और बन्ध-परम्परा गतिशील रहती है, तब तक जीव का संसार परिभ्रमण समाप्त नहीं होता। 'सीता चरित्र' में भी आस्रव अवस्था का उल्लेख है। इस अवस्था में अज्ञान के कारण मनुष्य कान होते हुए भी नहीं सुनता, नेत्र होते हुए उसे दिखाई नहीं देता, उसका हृदय विवेक और बुद्धि से शून्य होता है, वह उन्मादवश कर्म की ओर प्रेरित होता है । बन्धः दो पदार्थों के विशिष्ट सम्बन्ध को बंध कहते हैं। जैन दर्शन में आत्मा के साथ कर्मों का बंधना ही 'बन्ध' कहलाता है । 'पावपुराण' में कवि ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि यदि एक बार आत्मा कर्म-शृंखला से मुक्त हो गया है, तो वह पुनः कर्मबंध में नहीं बंधता। 'शतअष्टोत्तरी' में भी कवि ने बन्ध तत्व का विवेचन किया है। कवि के अनुसार आत्मा से आबद्ध कर्मों के कारण मनुष्य स्वर्गीय सुखों का उपभोग करता है या इसके विपरीत एक-एक कण के लिए कष्ट उठाता है । संवर : आत्मा की ओर अग्रसर कर्म-परमाणुओं को रोकना संवर है। इससे आत्मा के तुलसी प्रज्ञा Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिए मोक्ष की भूमिका तैयार हो जाती है । संवर के लिए मन, वाणी और कर्म की स्वच्छन्द प्रवृत्तियों पर नियंत्रण आवश्यक है। पंचेन्द्रियां जीव को सदैव पाप कर्मों में लिप्त रखती हैं । उनकी प्रीति से जीव घोर दुःख सहता है और दीर्घ काल तक संसार में परिभ्रमण करता है । मन इंद्रियों का राजा है । वह आठों प्रहर इंद्रियों को कार्य के लिए प्रेरित करता रहता है । इन्द्रियों द्वारा मन की संगति से विषयों की इच्छा तीव्र होती है, विषयासक्ति जीव की मुक्ति प्राप्ति में बाधक है । अतः संवर के लिए रागादि से सम्बन्ध तोड़कर इन्द्रियों से मन मोड़कर आत्मा से प्रीति करनी चाहिए । 'पार्श्वपुराण' के रचयिता ने भी 'संवर' तत्व को मोक्ष मार्ग का प्रकाशक माना है । ' मानव की सम्पूर्ण साधना की सफलता इसी पर निर्भर है । निर्जरा : मोक्ष के दो हेतु हैं - एक संवर और दूसरा निर्जरा । संचित कर्मों का आत्मा से पृथक् हो जाना निर्जरा है । 'संवर' से यद्यपि नवीन कर्मों का आना रुक जाता है तथापि पुरातन कर्म तो आत्मा में संचित ही रहते हैं; उनको ही दूर करने के लिए आत्मा को विशेष प्रयास की आवश्यकता होती है क्योंकि वे एक साथ आत्मा से विलग नहीं हो जाते, अपितु क्रम-क्रम से दूर होते हैं । कर्मों के इसी क्रम क्रम से दूर होने को निर्जरा कहते हैं । 'नेमिचन्द्रिका' में कवि सफल निर्जरा की प्राप्ति के लिए आत्मध्यान अर्थात् तपश्चर्या को अनिवार्य माना है । तप द्वारा कर्म - श्रृंखला छिन्न-भिन्न होती है और जीव मुक्तावस्था प्राप्त करता है । इस प्रकार आत्म ध्यान ही सर्वश्रेष्ठ है और इसके द्वारा ही जीव को निर्जरावस्था प्राप्त होती है । इस अवस्था के पश्चात् मोक्षप्राप्ति होती है । मोक्ष : बन्ध के अभाव का नाम ही मुक्ति या मोक्ष है । आत्मा अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख आदि से युक्त हो जाता है । मोक्ष की अवस्था में आत्मा पूर्ण स्वतंत्र होकर अपनी अनुपम आभा से प्रभासित हो उठता है । यही आत्मा की सिद्ध और सर्वोच्च अवस्था है ।" यहां के सुख अनुपमेय हैं । 'चेतन कर्म चरित्र' में कवि ने उल्लेख किया है कि मोक्ष चेतन के लिए शिव-सुख स्वरूप अविचल धाम है । यहां पहुंचकर चेतन अनंत काल तक ध्रुव विश्राम करता है, जन्म-जरा-मरण के चक्र से सदैव के लिए मुक्त हो जाता है ।" 'परमात्मप्रकाश' में भी मोक्ष प्राप्ति का उल्लेख है । १६ अहिंसा : अहिंसा का मूलाधार जीवदया है। जीवदया ही उत्तम धर्म है । जैन कवियों अहिंसा के प्रति अपनी आस्था प्रकट की है । 'परमात्मप्रकाश' में कवि ने अहिंसा तत्व का वर्णन करते हुए लिखा है कि जीवों की हिंसा से नरकगति प्राप्त होती है और अभयदान देने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है । अतः सर्वथा हिंसा त्यागकर अहिंसा का मार्ग ग्रहण करना चाहिये ।" 'जसहर चरिउ' की रचना अहिंसा के व्यापक प्रभाव को ही खण्ड १६, अंक ३ ( दिस०, ६० ) १३ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि में रखकर की गई । कवि ने तत्कालीन समाज से नरबलि जैसे दुष्कृत्य को समाप्त करने के लिए इस ग्रंथ का कथानक तैयार किया । सारांश यह है कि हिन्दी जैन काव्य साहित्य में जैन दार्शनिक प्रवृत्तियों - जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, अहिंसा आदि का स्थान-स्थान पर विवेचन हुआ है । उपरोक्त दार्शनिक तत्व रचना के कथा-पट में भलीभांति गूंथ दिये गये हैं और इनके निरूपण में अत्यन्त गंभीर शैली का व्यवहार किया गया है । सन्दर्भ : १४ १. जस जाति की चार गति कही तिह में दुष नाना परकार । । देव नरक पसु मनषज सही ॥ सुख एक पल नाहि लगार ॥ २. प्राणी जे करम कमावै, ताको फल जो करम सुभासुभ होई, निहच ते - बंकचोर की कथा, पद्य २६१, पृ० ३० निह पावे । फल सोई ॥ ३. केवल प्रकाश होय, अन्धकार नाश होय, ज्ञान को विलास होय, और लौं निवाहवी । सिद्ध में सुवास होय, लोकालोक भास होय, आपु रिद्ध पास होय, और की न चाहवी ॥ - यशोधर चरित, पद्य - ११७ -शतअष्टोत्तरी- भैया भगवतीदास, पद्य - ६१, पृ० २ ४. शतअष्टोत्तरी, पद्य ६७, पृ० ३० ५. ए हो चेतन राय परसों प्रीति कहा करी । जे नरकहि ले जाहि, तिनही सों राचे सदा ॥ १०. सीता चरित, पद्य - १५२, पृ० ५२ ११. शतअष्टोत्तरी, पद्य ७५, पृ० २५ १२. क्रोधादिक जबही करें, परिग्रह के संयोग सौं, ६. भूलो आप आप न पायो । याही मूल जगत चौरासी लब में फिरयो ही । काल अनादि न जाणें ७. शतअष्टोत्तरी, पद्य - ३६, पृ० १६ ८. चेतन जीव अजीव जड़, यह सामान्य स्वरूप । ६. जो कर्मन करें आगमन, आस्रव कहिये ताके भेद सिद्धांत में, भावित दरवित वही, पद्य ८३, पृ० २६ भरमायो ॥ सोय । दोय ॥ - पार्श्वपुराण, पद्य - २५, पृ० १४१ बंधे कर्म तब आन । बंध निरन्तर जान ॥ क्योंही ॥ - सीता चरित, पद्य २२१७ वही, पद्य १३१, पृ० १५४ तुलसी प्रज्ञा Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध अभाव मुक्ति है, यह जानै सब कोय । बंध हेत बरते जहां, मुक्ति कहां से होय ।। -~-पार्श्वपुराण, पद्य-१५३-५४, पृ० १५: १३. जासौं सुख तुम कहत हो, सोई दुःख निदान । सबै सुख तप के किये, मानो वचन प्रमान ॥ जो सुख चाहै तप करो, फेरि घरै मत जाव । जैसी संगति खेलि हो, तैसे परि है दाव ॥ -नेमिचन्द्रिका, पृ० २४-२५ १४. शतअष्टोत्तरी, पद्य-१२, पृ० १० १५. चेतन कर्म चरित्र, पद्य-२८४-८५, पृ० ८३ १६. दसणु णाणु अणंत-सुह समउ ण तुट्टइ जासु। सो पर सासउ मोक्ख-फलु बिज्जउ अस्थि ण तासु ॥ -परमात्मप्रकाश, पृ० १२५ १७. जीव वहंतहं गरय-गइ अभय-पदाणे सग्गु । बे पह जबला दरिसिया जहिं रुच्चइ तहिं लग्गु ॥ वही, पृ० २४३ 1100 (शेषांश पृष्ठ १० का) उसमें कर्म लगने का कोई कारण ही नहीं बनता। कर्म को आत्मा से पहले मानें तो जीव के बिना कर्म करेगा कौन ? जीव और कर्म के सम्बन्ध का आदि नहीं है । उनका सम्बन्ध अपश्चानुपूर्विक ही है। ___Madical science ने भी शरीर और मन के सम्बन्ध को स्वीकार किया है। वे परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं अतः उनमें परस्पर सम्बन्ध है। भाव शरीर की बीमारी को पैदा करता है । ईर्ष्या से अल्सर इत्यादि रोग हो जाते हैं। शरीर भाव को प्रभावित करता है। यदि लीवर खराब है तो भाव विकृत हो जाएगा। शरीर और आत्मा में सम्बन्ध है अतएव उनमें अन्तक्रिया होती है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि अनेकान्त दृष्टि से जीव और शरीर में भेदाभेद है । जैन दर्शन के अनुसार संसारी आत्मा कथंचित् मूर्त है। वह पुद्गल (कर्म) युक्त है । आश्रव जीव एवं शरीर के सम्बन्ध का सेतु है । संसारी अवस्था में जीव और शरीर को पृथक् नहीं माना जा सकता। संदर्भ: १. स्याद्वाद मञ्जरी, पृ० १३८ ४. भगवई, १३/१२८ २. भगवई ५. आयारो ३. वही 000 खण्ड १६, अंक ३ (दिस०, ६०) • Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना एवं प्रकीर्णकों में आराधना का स्वरूप 17 जिनेन्द्र कुमार जैन* आराधना विषयक ग्रंथ शौरसेनी जैन आगम साहित्य में शिवार्यकृत 'भगवती आराधना' एवं अर्धमागधी आगम साहित्य में 'प्रकीर्णकों' का प्रतिपाद्य विषय लगभग समान है । इन दोनों ग्रन्थों आराधना एवं संलेखना का विस्तृत वर्णन किया गया है । इन ग्रन्थों की अनेक गाथाएं भी एक-दूसरे में समान पायी जाती हैं। इन दोनों ग्रन्थों के आधार पर यहां आराधना के स्वरूप का विवेचन प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है । भगवती आराधना का मूल नाम 'आराधना है ।' किन्तु कवि ने अपनी कृति को परम आदरभाव व्यक्त करने के लिए आराधना से पहले 'भगवती' विशेषण लगाया है । इस ग्रन्थ के टीकाकार श्री अपराजित सूरि ( १० वीं शताब्दी) ने भी टीका के अन्त में इसका नाम 'आराधना' दिया है । इसी प्रकार देवसेन ने भगवती आराधना के आधार पर एक ग्रन्थ की रचना की थी जिसका नाम उन्होंने “आराधनासार" दिया है । " आचार्य अमितगति ने भी संस्कृत पद्यों में एक ग्रंथ लिखा जिसका नाम उन्होंने "आराधनैषा' अथवा 'आराधना' ही दिया है । भगवती आराधना के सम्पादकों एवं अन्य विद्वानों ने इस ग्रंथ के नामकरण, रचनाकाल आदि पर विशेष प्रकाश डाला है । भगवती आराधना आचार्य शिवार्यकृत भगवती आराधना के नाम से ही स्पष्ट प्रतीत होता है कि प्रस्तुत ग्रंथ में आराधना के भेद-प्रभेद व स्वरूप आदि का वर्णन किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द के बाद संभवतः ईसा की दूसरी शताब्दी में रचित इस ग्रंथ में कुल २/६४ गाथाएं हैं। जिनमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र व सम्यग्तप इन चार प्रकार की . आराधनाओं के साथ - साथ ५ मरण, १२ तप, संलेखना एवं श्रावक धर्म आदि का वर्णन किया गया है । चूंकि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप की आराधना से ही जीव मोक्ष प्राप्त कर सकता है, इसलिए ग्रन्थकार ने प्रथम २४ गाथाओं में आराधना के भेद, स्वरूप व इन चारों के सम्बन्ध आदि का वर्णन ग्रंथ में सबसे पहले किया है । प्रकीर्णक साहित्य अर्धमागधी आगम साहित्य में प्रकीर्णकों की संख्या १० मानी गई है ।" जिनमें आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा तथा मरणसमाधि नामक प्रकीर्णकों में * २१४, हिरनमगरी, से० ७, उदयपुर (राज० ), पिन - ३१३००१ । १६ तुलसी प्रज्ञा Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना की तरह ही आराधना के भेद, स्वरूप व संलेखना द्वारा मरण आदि का वर्णन किया गया है। चतुःशरण नामक प्रकीर्णक में इस संसार को अशान्ति एवं दुःख का प्रतीक मानते हुए, अरहन्त, सिद्ध, साधु और सर्वज्ञ-प्ररूपित धर्म को शरणभूत कहा गया है। तंडुलवैचारिक नामक प्रकीर्णक में मुख्य रूप से गर्भविषयक वर्णन है। जीवनभर में जो श्रेष्ठ व कनिष्ठ कर्म किए हैं, उनका लेखा लगाकर अन्तिम समय में दुष्प्रवृत्तियों का परित्याग कर, संयम धारण कर संस्थारक पर आसीन पण्डित मरण को प्राप्त करने वाला श्रमण मुक्ति को वरण करता है। बृहत्कल्प एवं व्यवहार सूत्रों के आधार पर लिखा गया गच्छाचार प्रकीर्णक श्रमण-श्रमणियों के आचार-सिद्धांत का निरूपण करता है। गणविद्या नामक प्रकीर्णक में ज्योतिष सम्बन्धी व देवेन्द्रस्तव में ३२ देवेन्द्रों का विस्तारपूर्वक वर्णन पाया जाता है। आराधना का स्वरूप आराधना के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए भगवती आराधना में कहा गया है कि सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र व सम्यक् तप के उद्योतन, उछवन, निर्वहन, साधन और निस्तरण को आराधना कहते हैं । अर्थात् सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप से आशंका आदि दोषों को दूर करना (उद्योतन), बार-बार आत्मा का सम्यक दर्शन आदि रूप में परिणत होना (उछ्वन), परीषह आदि आने पर भी आकुलता के बिना सम्यक् दर्शन आदि धारण करना (निर्वहन), नित्य या दैनिक कार्यों को करने से सम्यक् दर्शन आदि में व्यवधान आने पर उसमें पुनः मन को लगाना (साधन) तथा दूसरे भव में भी सम्यक् दर्शन आदि को साथ ले जाना या आमरण पालन करना (निस्तरण) ही आराधना है । तत्वार्थ श्रद्धान को सम्यग्दर्शन तथा स्व और पर के निर्णय को सम्यक् ज्ञान कहते हैं । पाप का बन्ध कराने वाली क्रियाओं के त्याग को सम्यक् चारित्र तथा इन्द्रिय एवं मन के नियमन को सम्यक् तप कहते हैं । भगवती आराधना में सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप इन चारों आराधनाओं को सम्यक् दर्शन व सम्यक् चारित्र इन दो आराधनाओं में समाविष्ट कर दिया है। दर्शन की आराधना करने पर ज्ञान की आराधना नियम से होती है किन्तु ज्ञान की आराधना करने से दर्शन की आराधना भजनीय है-होती भी है, नहीं भी होती। तथा संयम या चारित्र की आराधना करने पर तप की आराधना नियम से होती है, किन्तु तप की आराधना में चारित्र की आराधना भजनीय है। ऊपर कहा गया है कि श्रद्धान (दर्शन) की आराधना करने पर सम्यक् ज्ञान की आराधना अवश्य होती है, किन्तु यहां प्रश्न किया जाता है कि दर्शन और चारित्र आराधना के स्थान पर ज्ञान और चारित्र आराधना भेद क्यों नहीं किए गए ? इसके उत्तर में विजयोदयटीकाकार ने अपनी टीका में कहा है कि—सम्यक् ज्ञान की आराधना करने पर सम्यग्दर्शन की आराधना होती है। किन्तु मिथ्याज्ञान की आराधना में दर्शन की आराधना नहीं होती। इसलिए मूल ग्रंथकार ने “मयणिज्ज' शब्द के प्रयोग से इसे स्पष्ट कर दिया है कि ज्ञान की आराधना से दर्शन की आराधना भजनीय है (अर्थात् होती भी है और नहीं भी होती।) अतः ज्ञान का प्राधान्य न होने के कारण ज्ञानाराधना भेद नहीं किया गया। इसी प्रकार चारित्र को आराधना से तप की आराधना अवश्य खण्ड १६, अंक ३ (दिस०, ६०) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती है किन्तु तप की आराधना से चारित्र की आराधना भजनीय है, वह कैसे ? उसका उत्तर देते हुए टीकाकार कहते हैं कि तप की आराधना करने वाले के द्वारा असंयम का त्याग किया भी जा सकता है और नहीं भी किया जाता। इसलिए तप की आराधना में चारित्र आराधना भजनीय है । इन चारों आराधनाओं में चारित्र आराधना की महत्ता स्पष्ट करते हुए आचार्य शिवार्य कहते हैं कि - "चारित्र की आराधना में ज्ञान, दर्शन, तप सब आराधित होते हैं । ज्ञान, दर्शन और तप में से किसी की भी आराधना में चारित्र की आराधमा भाज्य होती है ।" १२ प्रकीर्णकों में आराधन किसका ? एवं आराधक कौन ? इसको स्पष्ट करते हुए आराधना के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है । जो दुष्कृत कार्यों को जानते हुए, शुभ ध्यान करते हुए एवं शुभ मार्ग का अनुसरण करने वाला कीर्ति को प्राप्त करता है, तथा अपनी बुराइयों की (गूढ़ बातों की ) निन्दा करता है उसे आराधना कहा गया है । पांच महाव्रतों का पालक अच्छे चारित्र व शील से युक्त श्रमण आराधक होता है । जो स्वयं को एवं अपनी आत्मा को जानता है वह ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप में स्थित मुनि होता है ।" आराधक के इस वर्णन से स्पष्ट होता है कि पांच महाव्रत, शील, तप एवं रत्नत्रय ( सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र ) आदि का पालन करना या श्रद्धान करना ही आराधना कहलाता है । आराधक का स्वरूप आराधक के स्वरूप को लेकर भगवती आराधना में कहा गया है कि जो गुरु सम्मुख अपने दोषों की आलोचना या अपने अपराधों की निन्दा करने का दृढ़ संकल्प लेकर घर से निकल जाये किन्तु मार्ग में ही उसकी मृत्यु हो जाए या गुरु की ही मृत्यु हो जाए अथवा उन दोनों में वाक्-शक्ति का अभाव हो जाए, फिर भी वह आराधक कहलाता है । १४ क्योंकि उसने अपने दोषों की आलोचना या अपराधों की निन्दा करने का दृढ़ संकल्प लेकर प्रायश्चित किया है । जो गुरु के पास सभी भावशल्य को छोड़कर शल्यों से रहित होकर मृत्यु को प्राप्त करता है वह आराधक होता है, किन्तु जो गुरु के पास भावशल्य को बिलकुल भी नहीं छोड़ता वह न तो समृद्धिशाली होता है, और न ही आराधक होता है । " चारों कषायों का त्याग, इंद्रियों का दमन एवं राग-द्वेष से रहित होकर आराधक अपनी आराधना-शुद्धि करता है। आचार्यों ने इन दोनों ग्रन्थों में कहा है कि तीन गारव व तीनों शल्यों" से रहित होकर, रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र) का आचरण करने वाला समस्त दुःखों का क्षय करने वाला होता है । " भगवती आराधना एवं प्रकीर्णकों के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों में भी आराधना का वर्णन मिलता है | आचारांगसूत्र में सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप एवं वीर्य ये आचार के पांच भेद बतलाते हुए साधक को इनकी आराधना करने का निर्देश दिया है । इसी प्रकार सूत्रकृतांग में भी सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र व तप इन चारों का साधक को समाधि के लिए ( मरणकाल में ) आचरण करने का आदेश दिया गया है । समवायांग नामक अंग आगम में तीन प्रकार की विराधना का वर्णन किया गया है । भगवतीसूत्र में कहा १८ तुलसी प्रज्ञा Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया है कि ज्ञान और शील दोनों की संगति ही श्रयस की सर्वांगीण आराधना है । अतः ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना ही श्रेयष्कर है। उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक नामक मूल आगम साहित्य में भी आराधना के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। उत्तराध्ययन में सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप को मोक्ष का साधन बताते हुए, इनका श्रद्धान (आराधन) करने को कहा गया है । दशवैकालिक सूत्र में भी सभिक्षु के लक्षण बताते हुए कहा गया है कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप की आराधना द्वारा पुराने कर्मों को प्रकम्पित (क्षय) करके जो मन, वचन और काय से सुसंवृत्त है, वह भिक्षु है। __ शौरसेनी आगम साहित्य के प्रसिद्ध आचार्य वट्टर द्वारा रचित 'मूलाचार' नामक ग्रन्थ में आराधना के भेद व स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। मूलाचार के बृहद्प्रत्याख्यान संस्तव अधिकार में कहा गया है कि श्रमण को पापों से मुक्त होकर जीवन के अन्तिम क्षणों में सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप इन चार आराधनाओं में स्थित रहकर, क्षुधादि परीषहों पर विजय प्राप्त कर निष्कषाय रहने का आदेश दिया गया है। सम्यक्त्व प्राप्त हो जाने के बाद जीवादि पदार्थों के श्रद्धान को आराधना कहा है । जैनेन्द्र सिद्धांत कोश में आराधना के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि सम्यक् दर्शन, ज्ञान चारित्र व तप इन चारों का यथायोग्य रीति से उद्योतन करना, उनमें पारणति करना, इन को दृढ़तापूर्वक धारण करना, उनके मंद पड़ जाने पर पुनःपुनः जागृत करना और उनका आमरण पालन करना (निश्चय) आराधना है।२४ द्रव्यसंग्रह " में भी इन चारों आराधनाओं सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप का निवासस्थान आत्मा को माना गया है अर्थात् इन चारों की आराधना करना ही आत्मा में निवास करना है। इसीलिए आत्मा को इन चारों आराधनाओं का शरणभूत बतलाया गया है। आराधना के भेद-प्रभेद आराधना के स्वरूप के साथ-साथ उसके भेद-प्रभेद पर भी आचार्यों ने प्रकाश डाला है। भगवती आराधना में सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप के भेद से आराधना के चार भेद बतलाए गए हैं तथा संक्षेप में आराधना के सम्यक्त्व (दर्शन) आराधना एवं चारित्र आराधना ये दो भेद भी किए गए हैं । २७ सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप इन चारों आराधनाओं को कवि ने सम्यक दर्शन व चारित्र इन दो आराधनाओं में ही समाहित कर दिया है। क्योंकि सम्यक दर्शन की आराधना से ज्ञान की एवं चारित्र की आराधना से तप की आराधना नियम से होती है, किन्तु ज्ञान की आराधना करने पर दर्शन की एवं तप की आराधना से चारित्र की आराधना भजनीय है (अर्थात् होती भी है, नहीं भी होती) । प्रकीर्णकों में आराधना के सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र ये तीन भेद बतलाए गये हैं२९ तथा सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप के भेद से आराधना चार प्रकार की भी कही गई है। समन्तभद्रकृत रत्नकरण्ड श्रावकाचार एवं पं. आशाधरकृत अनगारधर्मामृत में सम्यक् दर्शन, ज्ञान व चारित्र इन तीन आराधनाओं का ही वर्णन मिलता है। इसी प्रकार खण्ड १६, अंक ३ (दिस०, ६०) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्र (८/१०) में सम्यक् दर्शन, ज्ञान व चारित्र के भेद से आराधना के तीन भेद किए गए हैं एवं इन तीनों आराधनाओं के उत्कृष्ट, मध्यम एवं जघन्य के भेद से तीन-तीन भेद भी किए गए हैं ।३१ भगवती आराधना एवं प्रकीर्णकों में भी इन चारों आराधनाओं के उत्कृष्ट, मध्यम व जघन्य के भेद से तीन-तीन भेद और किए गए हैं ।३२ अर्थात् साधक इन चारों आराधनाओं का पालन उत्कृष्ट, मध्यम एवं जघन्य इन तीन रूपों में करता है । अतः जो सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप का उत्कृष्ट रूप में आराधन करता है वह उसी भव से मोक्ष प्राप्त कर लेता है तथा जो इन चारों आराधनाओं की मध्यम आराधना करता है, वह कर्म रूपी धूलि से छूटकर तीसरे भव से मोक्ष प्राप्त करता है एवं दर्शन आदि चार भेद रूप जघन्य आराधना की आराधना करके जीव सात-आठ भव से मोक्ष प्राप्त करता है ।२३ मरण समाधि प्रकीर्णक में मध्यम आराधक को चौथे भव से मोक्ष प्राप्ति का निर्देश दिया गया है । चारों आराधनाओं का स्वरूप श्री अपराजितसूरि ने अपनी विजयोदय टोका में सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा है कि तत्त्वार्थ श्रद्धान को सम्यक दर्शन कहते हैं। स्व और पर के निर्णय को सम्यक् ज्ञान कहते हैं। पाप का बन्ध कराने वाली क्रियाओं के त्याग को चारित्र व इंद्रियों तथा मन के नियमन को तप कहते हैं ।३५ मनुष्य ज्ञान से जीवादि पदार्थों को जानता है । दर्शन से उनका श्रद्धान करता है, चारित्र से (कर्मास्रव का) निरोध करता है और तप से (कर्मों को) विशुद्ध करता है।३६ सम्यक् दर्शन के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए तत्वार्थसूत्र (उमास्वामि) में कहा गया है-तत्वों के अर्थ को समझना और उनके श्रद्धान को अथवा उनमें विश्वास करने जोमयदर्शन कहते हैं । ३० जो जीव उपदिष्ट अर्थात् जिनागम में श्रद्धान करता है वह सम्यग्दष्टि है। जो वीर वचनों का (जिनागम का) श्रद्धान करते हुए सम्यक्त्व में अनरत रहते हैं और धर्म-अधर्म, आकाश, पुद्गल तथा जीव का श्रद्धान करते हैं, उनके दर्शन आराधना होती है । चारित्र विहीन सम्यग्दृष्टि तो (चारित्र धारण करके) मिति प्राप्त कर लेते हैं, किन्तु सम्यक् दर्शन से रहित (जीव) सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते । सम्यक दर्शन युक्त शास्त्रज्ञान व्यवहारज्ञान' है और रागादि की निवत्ति में प्रेरक शुद्धात्मा का ज्ञान निश्चय सम्यक् ज्ञान है। जिससे तत्त्व का ज्ञान होता है, चित्त का निरोध होता है तथा आत्मा विशुद्ध होती है उसी को जिन शासन में ज्ञान कहा गया है।४२ संसार के कारणभूत कर्मों के बन्ध के लिए योग्य जो क्रियाएं हैं उनका निरोध कर शद्ध आत्म स्वरूप का लाभ करने के लिए जो सम्यक् ज्ञान पूर्वक प्रवृत्ति है उसे सम्यक चारित्र या संयम कहते हैं। सम्यक चारित्र की आवश्यकता को बताते हुए कहा गया है कि सम्यग्दर्शन से रहित साधक उत्कृष्ट चारित्र की साधना करने के बावजूद भी कर्मों की उतनी निर्जरा नहीं कर पाता जितनी कि सम्यक दृष्टि का साधक स्वल्प साधना से कर लेता है। इसलिए संसार रूपी भवसागर को पार करने के लिए सम्यक् दर्शन पूर्वक अणव्रत २० तुलसी प्रज्ञा Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावत रूप चारित्र की आराधना आवश्यक है। इच्छाओं का निरोध या संयम तप कहलाता है। जो ८ प्रकार के कर्मों को तपाता हो या भस्मात करने में समर्थ हो, उसे तप कहते हैं। कषायों का निरोध, ब्रह्मचर्य का पालन, जिनपूजन तथा अनशन आदि करना तप कहलाता है ।५ अतः इन चारों की आराधना करने से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा एवं मरणसमाधि इन चारों प्रकीर्णकों में एवं भगवती आराधना में आराधना के स्वरूप के साथ-साथ संलेखना द्वारा मरण समाधि का भी विस्तृत विवेचन किया गया है । भगवती आराधना में मरण के पंडितपंडितमरग एवं पंडित मरण, बाल पंडित मरण, बालमरण और बाल-बालमरण-ये पांच भेद किए गए हैं, जब के प्रकीर्णकों में बालमरण, बालपंडित मरण एवं पंडितमरण ये-तीन भेद ही बताए गए हैं। बालमरण मरने वाला विराधक होता है, उसे बोधि दुर्लभ होती है और उसका अनंत संसार बढ़ जाता है। बालपंडित मरण में श्रावक तीन शल्यों का त्याग करके घर में ही मरण करता है तथा पंडितमरण में जीव आहार आदि का त्यागकर, जिन वचन में दृढ़ श्रद्धा रखते हुए आराधक होकर तीन भव से मुक्ति प्राप्त करता है। आचार्यों ने संलेखना के २ भेद बताए हैं-आभ्यन्तर एवं बाह्य । कषायों को कृश करना आभ्यन्तर एवं शरीर को कृश करना बाह्म संलेखना है। भगवती आराधना में आराधना के साथ संलेखना का वर्णन करते हुए कहा गया है कि मरणकाल से भिन्नकाल में रत्नत्रय का पालन करने पर भी यदि मरणकाल में उसका आराधन न किया जाये तो मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। मृत्यु काल की आराधना ही यथार्थ आराधना है । मृत्युकाल में विराधना करने पर जीवन भर की आराधना निष्फल हो जाती है। अतः मरते समय जो आराधक सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप की यथार्थ आराधना करता है, वास्तव में उसी की आराधना सफल होती है । यहां विद्वानों ने प्रश्न किया है कि अन्य काल में चारों आराधनाओं का आराधन न करने पर भी, मरणकाल में इनका आराधन करने से यदि मुक्ति की प्राप्ति होती है तो क्या मरणकाल में आधारित आराधना ही मोक्ष का कारण है ? इसका उत्तर श्री अपराजित सूरि ने अपनी विजयोदय टीका में देते हुए कहा है कि-"मरणकाल में रत्नत्रय की जो विराधना है वह संसार को बहुत दीर्घ करती है (सांसारिक-मुक्ति नहीं होती), किन्तु अन्य काल में विराधना होने पर भी मरते समय रत्नत्रय धारण करने पर संसार का उच्छेद होता ही है, अतः मरण काल में सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप की आराधना करनी चाहिए। ____ इस प्रकार भगवती आराधना एवं प्रकीर्णकों में सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप रूप चतुष्टय आराधनाओं की आराधना को मोक्ष-प्राप्ति का साधन कहा है। जो व्यक्ति वास्तविक रूप से इन चारों की आराधना अपने जीवन में या जीवन के अन्तिम समय में करता है, वह मोक्ष रूपी लक्ष्मी का वरण अवश्य ही करता है तथा सांसारिक आवागमन के बन्धन से मुक्त हो परम सद्गति को प्राप्त होता है । खण्ड १६, अंक ३ (दिस०, ६.) २१ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ :१. भगवती आराधना (शिवार्यकृत) गाथा, २०६० २. श्री अपराजितसूरि विरचित-विजयोदयटीका (भगवती आराधना), सम्पादक एवं अनुवादक-पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री, पृ० ६०८, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर, १९७८ ३. मा० दि० ग्रन्थमाला, बम्बई, वि० सं० १९७३ में प्रथम बार प्रकाशित । ४. सोलापुर संस्करण में, १९३५ में मुद्रित । ५. (क) श्री आगम सुधा सिंधु, अष्टम् भाग, सम्पादक-पं. श्री जिनेन्द्रविजयगणी, ___ श्री हर्ष पुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला, शान्तिपुरी, १९७५।। (ख) पइण्णयसुत्ताई-मुनि पुण्यविजयजी, श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, १९८४ ६. चतुःशरण प्रकीर्णकम् गाथा, ११ ७. उज्जोवणमुज्जवणंणिव्वहणं साहणं च णिच्छरणं । दसणणाणचरित्ततवाणमाराहणा भणिया ॥२॥ (भगवती आराधना) ८. श्री अपराजितसूरिविरचित, विजयोदय टीका, पृ० ६-१० ६. वंसणमाराहतेण णाणमाराहियं हवे णियमा । णाणं आराहतेण सणं होइ मयणिज्जं ॥४॥ (भगवती आराधना) १०. संजममाराहंतेण तओ आराहिओ हवे णियमा। आराहतेण तवं चारित्तं होइ मयणिज्जं ॥६॥ (भगवती आराधना) ११. अहवा चारित्ताराहणाए आराहियं हवइ सब्वं । ___ आराहणाए सेस रस चारित्ताराहणा भज्जा ॥८॥ (भगवती आराधना) १२. महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णकम्---गाथा, ६५ १३. वही - गाथा, २७-२८ १४. भगवती आराधना--गाथा, ४०७-६ १५. मरणसमाधिप्रकीर्णकम्-गाथा २२५-२२६ १६. वही---गाथा, ४७ १७. शल्प के ३ व २ भेद होते हैं--(क) भगवती आराधना--गाथा, ५४० (ख) मरणसमाधिप्रकीर्णकम् -गाथा, ६६ १८. (क) भगवती आराधना-गाथा, ५४६ (ख) मरणसमाधिप्रकीर्णकम् ---गाथा, ५२ १६. समवायांग --त्रिस्थानक, सूत्र-१५ २०. भगवती सूत्र-८।१०।४५० २१. उत्तराध्ययनसूत्र-२८।२,३ २२. दशवकालिकसूत्र--१०७ २३. मूलाचार-बृहप्रत्याख्यान संस्तव अधिकार -गाथा, ५७ २४. (क) जैनेन्द्र सिद्धांत कोश-पृ० २८४ (ख) द्रव्यसंग्रह-५४॥२२१ २२ तुलसी प्रज्ञा Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ द्रव्यसंग्रह --५४।२२२ २६. (क) चउन्विहाराहणाफलं........ ॥१॥ (भगवती आराधना) (ख) दंसणणाणचरित्ततवाणमाराहणा भणिया ॥२॥ (भगवती आराधना) २७. दुनिह पुण जिणवयणे भणिया आराहणा समासेण । सम्मत्तमिल य पढमा विदिया य हवे चारितंमि ॥३॥ (भगवती आराधना) २८. भगवती आराधना---गाथा, ४,६ २६ भणइ यतिविहा भणिया सुविहिय आराहणा जिणिदेहि । सम्मम्मि य पढमा नाणचरित्तेहिं दो अण्णा ॥१५॥ (मरणसमाधि प्रकीर्णकं) ३०. (क) दंसणणाणचरित्तं तवे य आराहणा चउक्कखंधा ॥३७॥ __ (महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णकम् ) (ख) श्रीभक्तपरिज्ञा प्रकीर्णकम्-गाथा, ७ (ग) श्रीमरणसमाधिप्रकीर्णकम्-- गाथा, ३१७ ३१. अभिधान राजेन्द्र कोश--पृ० ३८३ । ३२. (क) भगवती आराधना-गाथा, ४८ (ख) मरण समाधि प्रकीर्णकम्-गाथा, ३१७ ३३. (क) भगवती आराधना-गाथा, २१५४-५६ (ख) मरण समाधि प्रकीर्णकम्--गाथा, ३१८-२० ३४. श्री मरण समाधि प्रकीर्णकम्-गाथा, ३१६ ३५ विजयोदय टीका-पृ० १० ३६. समणसुतं-२०६ ३७. तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यक् दर्शनं-(तत्वार्थसूत्र) ३८. भगवती आराधना-गाथा, ३१ ३६. मरणसमाधि प्रकीर्णकम्-गाथा, १६,१८ ४०. श्रीभक्तपरिज्ञा प्रकीर्णकम्—गाथा, ६६ ४१. समणसुतं-२०८।४५, २५०१५५ ४२. वही-२५२ ४३. पच्चक्खाणेणं इच्छानिरोहं जणयइ ।- (उत्तराध्ययनसूत्र) ४४. आवश्यक मलयगिरि (खण्ड-२, अध्ययन-१) ४५. समणसुत्तं--४३६ ४६. भगवती आराधना-गाथा, २६ ४७. आतुर प्रत्याख्यान प्रकीर्णकम्-गाथा, ३५ ४८. (क) भगवती आराधना-गाथा, २०८ (ख) मरणसमाधिप्रकीर्णकम् -गाथा, १७६ ४६. भगवती आराधना-गाथा, १५ ५०. भगवती आराधना, विजयोदय टीका--पृ० ४० COD खण्ड १६, अंक ३ (दिस०, ६०) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्रों में भक्ष्याभक्ष्य विचार [] नंदलाल जैन* ( गतांक से आगे ) २. परिरक्षित खाद्य : (५) अचार -मुरब्बा वर्तमान युग में अचार-मुरब्बा या संधानित खाद्यों को परिरक्षित खाद्यों की कोटि का प्रतिनिधि मानना चाहिए । संभवतः सर्वप्रथम बाइस अभक्ष्यों की धारणा के विकास के समय ही इन खाद्यों को अभक्ष्यता की कोटि में विशिष्ट नाम देकर रखा गया । यही कारण है कि प्राचीन ग्रन्थों में इनका नाम नहीं मिलता । धर्म संग्रह में संधानों की अभक्ष्यता का कोई कारण नहीं बताया गया है पर जैन क्रिया कोश में कहा गया है कि जब आम, नींबू आदि में राई, कलौंजी आदि मिला कर तेल मिलाया जाता है, तब उनमें अनेक सजीव उत्पन्न होते हैं । अतः इनके खाने से मांस- दोष लगता है । संभवतः आज का सामान्य शिक्षित व्यक्ति इस कथन को नहीं मान सकेगा । यही कारण है कि अचार-मुरब्बा आदि परिरक्षित पदार्थों का सेवन स्वाद, स्वास्थ्य एवं रसमयता के कारण दिनोंदिन बढ़ रहा है । वस्तुतः प्रत्येक व्यक्ति इस तथ्य से परिचित है कि सामान्य हरे फल या भोज्य पदार्थ विशिष्ट ऋतुओं में पैदा होते हैं और वे कुछ समय बाद आंतरिक एवं बाह्य जीवाणुओं के प्रभाव 'विकृत होने लगते हैं । उनकी बहुत दिनों तक उपयोगिता बनाये रखने के लिये यह आवश्यक है कि उनमें विकारोत्पादी घटकों की सक्रियता को समाप्त कर दिया जाए। नमक, तेल, शक्कर, सिरका आदि पदार्थ यह काम सरलता से करते हैं । आजकल सोडियम बेन्जोएट के समान अनेक रासायनिक पदार्थ भी इस काम आते हैं । अचार प्राय: खट्टे माने जाते हैं और मुरब्बे मीठे । पर आजकल मीठे अचार भी बनने लगे हैं । इनमें परिरक्षकों के अतिरिक्त अन्य घटकों को मिलाने से उनकी उपयोगिता औषधीय दृष्टि से भी बढ़ जाती है। यही नहीं, उनकी विकृति रुक जाने से परिरक्षित पदार्थों को वर्ष की सभी ऋतुओं में काम में लिया जा सकता है। तकनीकी दृष्टि से अचार -मुरब्बे बनाने की इस क्रिया को ही 'परिरक्षण' कहते हैं । इस विधि विकास से अब आम नींबू की तो बात ही क्या, गाजर, मूली, अदरख, मिर्च, गोभी, करेला आदि अनेक शाकभाजियों के अचार-मुरब्बे बनाये जाने लगे हैं । यद्यपि ये खाद्य हमारे आहार के अल्पमात्रिक घटक हैं और खाद्य कोटि में आते हैं, फिर भी इनके I * जैन केन्द्र, रीवा, म० प्र० २४ तुलसी प्रज्ञा Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोग से भोजन का पाचन और उद्दीपन सरल हो जाता है। इनमें विद्यमान घटक स्वास्थ्य-वर्धक होते हैं । आंवले के मुरब्बे से कौन परिचित नहीं है ? वह तो औषधिक भी है । आंवले और आयुर्वेद का अविनाभाव संबंध है। आज के युग में अचार-मुरब्बों की कोटि के पदार्थों की विविधता बढ़ी है । इनमें टमाटर आदि के सांद्रित रसों से कैचप, सॉस, स्क्वैश आदि समाहित हैं। ये परिरक्षित कर वर्ष भर मिलते रहते हैं । अनेक फलों के रसों व खंडों से बने हुए जैम और जैली भी परिरक्षित पदार्थ हैं । वस्तुतः आजकल खाद्य -बाजार में जाने पर ऐसा लगता है कि अब परिरक्षित खाद्यों एवं पेयों का ही युग आ गया है । अंब्रोशिया की डिब्बे बन्द स्वादिष्ट खीर तो हमारे घरों में भी नहीं बनती। जनसंख्या की वृद्धि एवं जीवन की जटिलता एवं व्यस्तता ने मानव को इतना विवश कर दिया है कि वह परिरक्षित खाद्यों पर ही निर्भर रहने लगा है। इसीलिये अब प्रत्येक खाद्य के परिरक्षित रूप में मिलने की योजनायें चलने लगी हैं। भारत में भी यह प्रक्रिया तेजी से विकसित हो रही है । परिरक्षण की भी अनेक भौतिक एवं रासायनिक . विधियों का विकास हुआ है। प्रशीतन और वायुरोधी डिब्बाबन्दी ऐसी ही विधियां हैं । घरों में रेफ्रीजरेटर और बाजारों में प्रशीतन भंडारों में सब्जियों को प्रशीतित कर रखा जाने लगा है । बर्फ के तापमान पर जीवाणु खाद्यों को विकृत नहीं कर पाते । वायुरोधी डब्बाबंदी भी प्रशीतन के सहयोग से काम करती है। इससे दो लाभ होते हैं-वायु के जीवाणु एवं ऑक्सीजन से पदार्थों का विकृतिकरण रुक जाता है और प्रशीतन से विकृतिकरण की समय-सीमा में वृद्धि हो जाती है। अनेक लेखक इन विधियों के कुछ दुष्प्रभावों की ओर संकेत देते दिखते हैं पर यह तो 'अति सर्वत्र वर्जयेत, की उक्ति को ही चरितार्थ करता है। प्रत्येक प्रक्रिया की अपनी सीमा और सावधानी तो ध्यान में रखनी ही चाहिये । यदि इन संकेतों का पालन किया जाए तो शायद ही किसी खाद्य को आज ग्रहण कर सकें क्योंकि इस वैज्ञानिक युग में संभवतः प्रत्येक खाद्य का उत्पादन उसे विकृत ही दिखता है-प्राकृतिक खादों के बदले कृत्रिम खादों का उपयोग, कीटमार दवाओं का प्रयोग आदि विकृति के कारण बताये जा रहे ___परंपरागत श्रावकों के घरों में विभिन्न ऋतुओं की हरी सब्जियो और भाजियों को सुखाकर और यथावश्यकता खाने का रिवाज है । इस प्रक्रिया में, यदि गृहणियां खाद्यों को सुखाने से पूर्व उन्हें अच्छी तरह जीवाणुनाशी रसायनों के घोल में धोकर साफ कर लें, तो ज्यादा लाभ रहता है। सूखने से सब्जियों का जलांश काफी कम हो जाता है और उनमें विद्यमान प्राकृतिक परिरक्षकों की मात्रा बढ़ जाती है। दोनों ही स्थितियां जीवाणुओं या वायु द्वारा उनके विकृति-करण को रोकती है। इस विवरण से स्पष्ट है कि परिरक्षित खाद्यों में जीवघात अतएव अमक्ष्यता का प्रश्न विचारणीय है। हां, यह बात अलग है कि परिरक्षण के लिये आवश्यक प्रक्रिया एवं सावधानियों में प्रमाद किया गया हो । ऐसी स्थिति में खाद्य विकृत फलतः अभक्ष्य हो जाएंगे। बस १६, अंक ३ (दिस०, १०) Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. त्रस/स्थावर जीवघात : (६) मधु या शहद शास्त्रों में तीन मकारों की अभक्ष्यता में मधु का नाम भी समाहित है। निशीथचणि में कोंतिय, माक्षिक एवं भ्रामर-तीन प्रकार का मधु बताया गया है । इस युग में भी दूध, दही, घी और मक्खन भोजन के सामान्य घटक थे। साधुओं के लिये भी ये ग्राह्य थे । कोंतिय मधु तो आम्र-लतिकाओं से प्राप्त होता है। माक्षिक एवं भ्रामर के नाम ही अनेक स्रोतों को व्यक्त करते हैं। मधु को अप्रशस्त विकृति का पदार्थ माना गया है। यह विकृति इसलिये है कि यह मधुमक्खियों या प्राणियों के संघात से उत्पन्न होता है और उनके लार से संपृक्त होने से अशुचि कहा जाता है। इसके खाने से सात गांवों के जलाने के बराबर पाप लगता है। मधुमक्खियां पुष्पों के रसों को पीकर उसका वमन करती हैं, अतः यह उच्छिष्ट है । इसे हिंसक पुरुष ही खाते हैं । इसे औषध के रूप में खाने पर भी दुःख होता है। मधु में उत्कृष्ट कोटि की मधुरता होती है, इसलिये इसे मधु कहा गया है। रासायनिक दृष्टि से यह ग्लूकोस और फ्रक्टोस का समपरिमाणी मिश्रण होता है। उसे खाने पर ऊर्जा एवं ताजगी मिलती है । उग्रादित्य ने इसे रसायन माना है। इसे दूध के साथ लेने पर पीलिया दूर होता है। प्राचीन समय में इसे प्राप्त करने में निश्चित रूप से पर्याप्त त्रसघात होता था, पर नये युग में स्थिति बदल गई है। अब मधु संश्लेषित रूप में भी तैयार किया जाने लगा है । इसलिये अब यह भी आल्पघात-बहुफल की कोटि में आता है । यह आहार का सामान्य घटक भी नहीं है । यह प्रायः औषंधों में लेह्य या पेय के रूप में काम आता है। इसके बदले शक्कर की चाशनी काम आती है जिसमें चीनी विपरिवर्तित होकर मधु के समकक्ष हो जाती है । प्राकृतिक मधु उत्पादन दोष से अभक्ष्य माना जाता है, प्रभाव दोष से नहीं। इसका उत्पादन-दोष मक्खन से उच्चतर जीवघात की कोटि का है। (७) मांस अहिंसक जैनाचार में मांस और उसके विविध रूपों एवं उत्पादों को नितांत अभक्ष्य माना गया है । अभक्ष्यता के अनेक आधारों में त्रस और स्थावर जीवघात इसके लिये उत्तरदायी हैं । इस विषय में शास्त्रों में दिये गये तथ्य सारणी-५ में प्रस्तुत किये गये हैं जहां एतत् संबंधी वैज्ञानिक मान्यताएं भी दी गई हैं। इससे स्पष्ट है कि जहां मांसप्रेमी पूर्वी संस्कृतियों में इसे धार्मिक या अन्य रूप से परोक्ष मान्यता दी गई है, वहीं पश्चिमी जगत् ने कुछ वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर इस दिशा में अपना पक्ष प्रबल किया है । पर बीसवीं सदी के मध्य से इसके ऐसे अनेक दोष सामने आये हैं कि सामान्य विवेकशील मानव इस ओर अरुचि प्रदर्शित करता दिखता है। दिल्ली में आयोजित शाकाहार सम्मेलनों में विभिन्न आहार विशेषज्ञों ने मांस भक्षण से होने वाली अनेक शारीरिक और मनोवैज्ञानिक हानियों का प्रयोगसिद्ध विश्लेषण कर हमें जागरूक बनाया है और जैन मान्यता को पुष्ट किया है । यद्य पे वैज्ञानिकों ने हमारे शास्त्रीय तर्कों को स्थूल माना, और योग साधक' भी आहार की प्रकृति का प्रारंभिक महत्त्व नहीं मानते, फिर भी वे यह २६ तुलसी. प्रज्ञा. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहते हैं कि सच्चा योगी शाकाहारी होकर ही रहेगा । शाकाहार सात्विक है और अ-शाकाहार राजसिक या तामसिक है। वैज्ञानिक अध्ययनों से एक ओर मांसाहार की अनेक हानियां सामने आई हैं, वहीं शाकाहार के गुणों का भी निदर्शन हुआ है । अतः मांस की शास्त्रीय अभक्ष्यता उत्पादन और प्रभाव दोषों के आधार पर और भी परिपुष्ट हुई .सारणी-५-मांस संबंधी शास्त्रीय और वैज्ञानिक सूचनाएं शास्त्रीय सूचनाएं वैज्ञानिक सूचनाएं १. उत्पादन (१) जीवों के शरीर में मांस का निर्माण (१) जीवों के शरीर में मांस का निर्माण आहार के सप्त धातुमय परिवर्तन से आहार के सप्त धातुमय परिवर्तन से होता है। होता है। (२) यह प्राणियों के घात से उत्पन्न होता (२) यह उच्चतर कोटि के प्राणियों के घात से उत्पन्न होता है। वैज्ञानिक विधियों ने इस प्रक्रिया को प्रतिरोधी एवं अ-जुगुप्सनीय बना दिया है । (३) मांस में सदैव सूक्ष्म जीवाणु रहते हैं। (३अ) इसमें सदैव सूक्ष्म जीवाणु उत्पन्न होते रहते हैं । तिमीकरण से यह प्रक्रिया निरुद्ध होती है। (३ब) सूक्ष्मदर्शी से ज्ञात होता है कि मांस सूक्ष्मरेशों के बंडलों एवं ऊतकों का समुदाय होता है । इसमें जल, वसा, प्रोटीन, खनिज लवण तथा विटामिन होते हैं। इसके प्रोटीन की कोटि उत्तम होती है। (४) मांस में अरुचिकर गंध होती है। (४) इसके गंध की अरुचिकरता व्यक्ति गत रुचियों पर निर्भर करती है । (५) मांस क्षुद्र पशुओं के लार के समान (५) मांस की अपवित्रता विज्ञानसंमत अपवित्र है। नहीं है। यह ध्यक्तिगत रुचि का विषय है। २. तर्क संगति (१) अन्न की तरह मांस की भक्ष्यता की (१) इससे शरीर तंत्र को वसा एवं धारणा स्त्री एवं माता की भोग्या- प्रोटीन की उच्च या अधिक मात्रा - भोग्यता की मनोवृत्ति के समान है। मिलती है। इससे शरीर को ऊर्जा अधिक प्राप्त होती है। खण्ड १६, अंक ३ (दिस०, ६०) २७ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) (३) आहार - घटकों की लोक मर्यादा होती भक्ष्य है, पर उसी है | गाय का दूध से उत्पन्न मांस अभक्ष्य है । लोक मर्यादा मांस की अभक्ष्यता का समर्थन करती है । (४) मांस जीव के शरीर से प्राप्त होता है, पर प्रत्येक जीव (वनस्पति) का शरीर मांसमय नहीं होता । ( ५ ) यह तामसिक प्रवृत्ति को जन्म देता है । (५) मांसाहार और तामसिक प्रवृत्ति का कोई सरल संबंध नहीं है । पर योगी ऐसा नहीं मानते । ३. प्रभाव दोष ( १ ) मांस भक्षण में द्रव्यहिंसा और भावहिंसा - दोनों होते हैं । (२) मांस भक्षण से इन्द्रियों में मादकता आती है । (३) मांस भक्षण न करने का महाफल होला है । यह न करना चाहिये, न कराना चाहिये और न इसकी अनुमोदना करनी चाहिये । २८ (२) इसमें विद्यमान आहार घटक सुपाच्य होते हैं और उनका जैवमान उच्च होता है । विश्व की अधिकांश जनसंख्या इसे आहार - घटक के रूप में ग्रहण करती है । अतः लोक मर्यादा का प्रश्न नहीं है । (३) (१) मांस भक्षण हिंसापूर्वक होता है । ( २ ) शाकाहार की तुलना में यह दुष्पाच्य है, अतः गरिष्टता का अनुभव होता है । ( ४ ) इससे शरीर तंत्र में कोलस्टेरोल एवं संतृप्त वसीय अमलों की मात्रा अधिक पहुंचती है । इससे रक्तचाप, हृदयरोग, कैंसर, अस्थिरोग, मधुमेह आदि रोगों की बहुत संभावना होती है । (५) इससे विषाक्तता की संभावना रहती है । (६) इसमें रेशे कम होने के कारण मधुमेह नियंत्रण क्षमता नहीं होती । ( ७ ) इसका मूल्य भी अधिक होता है । मांस की अभक्ष्यता की चर्चा में इस शब्द को व्यापक अर्थ में लेना चाहिये । फलतः तुलसी प्रशा Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके अन्र्तगत मछली, अंडे आदि सभी उच्चतर कोटि के जीवों या उनसे निष्पन्न पदार्थों को मानना चाहिये। इस प्रकार व्यापक रूप से सभी मांसकारी पदार्थ अभक्ष्यता की कोटि में समाहित होते हैं। (८-१२) पंच उदुंबर फल _ पंच उदुंबर फलों (बड़, पीपल, पाकर, ऊमर आदि) की अभक्ष्यता का कारण स्पप्ट है। ये क्षीरी वृक्षों के फल हैं। इन फलों को तोड़ने पर दुग्ध-सम द्रव स्रवित होता है। इन फलों में अनेक प्रकार के जीव आंखों से ही देखे जा सकते हैं। इनमें इनके अतिरिक्त अन्य प्रकार के सूक्ष्म जीव भी संभावित हैं। इन्हें पूर्णतः पृथक् कर साफ भी नहीं किया जा सकता । फिर भी कटु, रुक्ष, कषाय एवं शीतवीर्य होने के कारण द्रव्य-गुण विज्ञानी इनका अनेक औषधियों में प्रयोग करते हैं । सामान्य जैन गृहस्थों में इनका इस रूप में भी उपयोग नहीं किया जाता। (१३) अनंतकायिक या कंदमूल वनस्पति सामान्यतः ये वे वनस्पति हैं जिनके खाद्य-अंश मुख्यतः जमीन के अन्दर पैदा होते हैं पर इनके पौधे जमीन के ऊपर रहते हैं । इसीलिये इन्हें गटन्त भी कहते हैं। इन्हें अनंतकायिक इसलिये कहते हैं कि इनके अनेक भागों से तज्जातीय नये पौधे जन्म ले सकते हैं । इनका प्रत्येक फल अनेक जीवयोनि-स्थान माना जाता है । इनके भक्षण से प्रत्येक वनस्पति की तुलना में अधिक हिंसा संभावित है, अतः इन्हें अभक्ष्य कोटि में माना गया है । सामान्यतः इनमें बाहरी जीवाणु नहीं होते लेकिन वे परिवेश की विकृति से उत्पन्न हो सकते हैं । इस श्रेणी के खाद्यों में मूली, गाजर, अदरख, हल्दी, मूंगफली, आलू, घुइयां, शकरकंद, जमीकंद, चुकंदर, सूरण, शालजम, मुरार, लहसुन और प्याज आदि समाहित होते हैं। इनमें प्याज, लहसुन प्रकृत्या हरी और शुष्क-दोनों प्रकार की मिलती हैं । हल्दी और अदरख को सुखाकर रखा जा सकता है। मूली-गाजर नहीं सुखाये जाते, पर उनको अचार बनाकर परिरक्षित किया जा सकता है। मूंगफली सवल्कल होने के कारण भक्ष्यता की दृष्टि से कभी विवादग्रस्त नहीं रही । शाक-भाजियों के संबंध में तो सचित्त-अचित्त का विचार भी किया गया है पर कंदमूलों के संबंध में यह चर्चा नहीं मिलती। आगमकाल से साधु के लिये और बाद में गृहस्थ के लिये इनकी अभक्ष्यता का विधान है । साध्वी मंजुला ने अचित्त करने पर इनकी सामान्य भक्ष्यता प्रतिपादित की । इस कोटि के पदार्थों को दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है (१) शर्करा या कार्बोहाइड्रेटी (धान्यों के समान आलू, घुइयां, विभिन्न कंद आदि) और अ-कार्बोहाइड्रेटी (मूंगफली, अदरख, हल्दी आदि) । इनमें से अधिकांश का रासायनिक संघटन ज्ञात किया जा चुका है । इनमें शाकों की तुलना में जलांश कम होता है । इनकी सैद्धांतिक अनंतकायता के बावजूद भी खाद्य-घटकीय उपयोगिताएं बहुमूल्य हैं । एक ओर मूली, गाजर, अदरख, प्याज, लहसुन, हल्दी आदि हमारे शरीर के लिये आवश्यक खनिज, विटामिन एवं रोग-प्रतिरोध क्षमताजनक घटक प्रदान करते हैं, वहीं दूसरी ओर आलू, शकरकंद, चुकंदर आदि सरलतः सुपाच्य शर्करायें प्रदान करते हैं। इसीलिये आगमों में खण्ड १६, अंक ३ (दिस०, ६०) २९ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्हें कच्वा खाने का निषेध तो है पर पकाकर, तलकर (निर्जीवकरण, अचित्त) खाने का निषेध नहीं है । रोगी को स्वस्थ होने के लिये डॉक्टर आलू खाने का निर्देश देते हैं। लू लगने से बचने के लिये महिलायें अभी भी यात्रा के समय गांठ में कुछ पैसों के साथ प्याज की गांठ बांधती हैं । लहसुन तो रक्तचाप, गैस आदि अनेक बीमारियां दूर करता है । उसके सत्व से निर्मित बिस्किटें आज बाजार में खूब मिलती हैं । हल्दी की उपयोगिता प्रसवोत्तरा महिला से पूछिये । - जीव की संरचना के कोशिकीय संघटन के आधार पर वनस्पतियों का प्रत्येक और अनंत कायिक रूप में वर्गीकरण अब एक ऐतिहासिक तथ्य है । दोनों प्रकार के वनस्पति बहकोशिकीय पाये गये हैं और प्रत्येक जीव अपने विकास के समय नितनयी सजीव कोशिकायें बनाता और नष्ट करता रहता है । यही नहीं, शास्त्रीय परिभाषानुसार गन्ना आदि की अनंतकायिकता स्वयं आपतित है जिसके प्रत्येक पर्व से पृथक्-पृथक् इक्षु-वृक्ष उत्पन्न होते हैं। इसकी तो भक्ष्यता ही प्रचलित है। इसी प्रकार बहुबीजक भी अनंतकायिक ही माने जाएंगें । इन की अलग कोटि क्यों बनाई गई, यह अन्वेषणीय है। शरीर के स्वास्थ्य की अनुकूलता एवं विशिष्ट आहार-घटकों की पूर्ति के आधार पर भक्ष्याभक्ष्यता को निरूपित करने से अनेक सैद्धान्तिक समस्याएं स्वयमेव समाधान पा जाएंगी। उदाहरणार्थ-धुइयां सामान्यतः दुष्पाच्य है, अतः प्रायः लोग इसे नहीं लेते। प्याज एवं लहसुन के विषब में विचार करने की आवश्यकता है । अनेक लोग इनकी गंध के कारण इन्हें नहीं खाते । तामसिकता उत्पन्न करने की बात कहकर लोकरुचिविरुद्धता के कारण लोग इन्हें नहीं खाते । यह संभव है कि इन्हें आहार का चावल-दाल के समान बहुमात्रिक घटक मानने पर यह सत्य हो, पर अल्पमात्रिक घटक (मसाले, चटनी के समान) के रूप में इन्हें लेने पर यह दुर्गुण उत्पन्न नहीं करता और रोगप्रतिकार क्षमता बढ़ती है । ये नियमित औषध का काम कर शरीर तंत्र की सक्रियता को जीवन्त बनाये रखते हैं । आचार्य जैन ने इस संबंध में धर्म एवं स्वास्थ्य की मान्यताओं के इस अन्योन्य विरोध पर किंचित् विचार किया है । फलतः इस कोटि के पदार्थों को अभक्ष्यता की कोटि में सम्मिलित करने में कोई आचार-गत पवित्रता का उद्वेश्य प्राप्त होता हो, ऐसा नहीं लगता । इनका उपयोग न करने वाले लोगों में भी वे सभी गुणावगुण पाये जाते हैं जो अन्यों में होते हैं। कभी-कभी तो इनके अवगुणों की तीक्ष्णता परेशान कर देती है। अभी एक प्रमुख मासिक में एक डाक्टर से शाकाहार के संबंध में प्रचलित कुछ लोकोक्तियों की वैधता की बात पूछी गई, तो उन्होंने इसे स्पष्ट रूप से अमान्य किया । संभवतः उनका आशय था कि लोकोक्तियां देश-काल-सापेक्ष धारणाओं पर चल पड़ती हैं। आज के विस्तारवान् विश्व के युग में उनकी व्यापकता का मूल्यांकन किये बिना उन्हें सार्वत्रिकता का रूप कैसे दिया जा सकता है ? क्या हम संत ईसा, मूसा या जरथुस्त के योगदानों को नकार सकते हैं ? ललवानी ने सही प्रश्न किया है-जो वस्तु हिंसा से उत्पन्न होती है, उसका उपयोग या उपभोग कर हम हिंसा से किसी हालत में नहीं बच सकते । जब कृत, कारित और अनुमोदन का सिद्धान्त हमारे यहां प्रचलित है, तब हिंसा से उत्पन्न द्रव्य को उपयोग में लेना हिंसा कैसे नहीं है ? सचित्त को अचित्त बनाने में भी तो जीवघात होता तुलसी प्रज्ञा Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · है ? यह तो अच्छा है कि सारा संसार जैन नहीं है, नहीं तो उसके पास सिबाय संल्लेखना के अवलंबन के बिना कोई रास्ता ही नहीं रहता । अहिंसा की इतनी सूक्ष्म विचारणा उत्तरर्ती आचार्यों की देन है और उसमें व्यावहारिकता का भी लोप हो गया लगता है | अतः कन्दमूल और अन्य खाद्यों की आत्यंतिक अभक्ष्यता पर वर्तमान युग में पुनर्विचार करने की आवश्यकता है । इसका आधार हिंसा-अहिंसा की धारणा के साथसाथ वैज्ञानिक भी होना चाहिये । साध्वी मंजुला ने सुझाया है कि जैनों की एतत्-संबंधी धारणा मनुस्मृति एवं याज्ञवल्क्य स्मृति की प्रभावशीलता को व्यक्त करती है । उपरोक्त विवरण से यह भी स्पष्ट है कि सभी कन्दमूल आहार के अल्प - मात्रिक घटक हैं । इसलिये भी इनकी अभक्ष्यता विचारणीय है । ( १४-१५) बहुबीजक और बैंगन बहुबीक वनस्पति ऐसे पदार्थ हैं जिनमें एकाधिक बीज होते हैं, जो नये पौधों की संतति को जन्म दे सकें। बैंगन भी इस दृष्टि से बहुबीजक है, पर उसे पृथक् क्यों लिया गया, यह स्पष्ट नहीं है । यह पुनरुक्ति दूर होनी चाहिये । सामान्यत: बहुबीजक पदार्थं भी बीजों की संख्या के अनुरूप बहुजीव योनिस्थान होते हैं । अतः वे अनंतकायिक ही हैं । संभवतः सामान्य जनों की स्पष्टता के लिये इन कोटियों को पृथक् गिनाया गया है । साथ ही बहुबीजक की परिभाषा भी बहुत स्पष्ट नहीं है । एक ओर अनार भक्ष्य है, दूसरी ओर बैंगन, खसखस, राजगिर आदि अभक्ष्य हैं। यदि हम सामान्य अर्थ ही लें, तो इसके अंतर्गत प्रायः वे सभी शाक-फल आ जाते हैं, जिन्हें हम दैनिक उपयोग में लेते हैं— कद्दू, लौकी, करेला, परवल, सेम, मटर, भिंडी, ककड़ी, मिर्च, टमाटर, तुरई, कटहल, आदि के समान शाकें तथा नींबू, मौसंबी, इमली, बिजौरा, कैथा, तेंदू, पपीता, संतरा, अनार, सेव, तरबूज, खरबूजा, लीची, अमरुद के समान मौसमी फल । कंदमूलों के समान तथा संभवतः उसी आधार पर ये भी अभक्ष्य हैं । आधुनिक आहार शास्त्री इन शाक- फलों को आहार का आवश्यक घटक मानते हैं । इनमें से अनेक तो बीमारों के लिए ऊर्जादायी आहार - रसों का भी अतिरिक्त काम करते हैं । कंदमूलों के समान ये भी खनिज एवं विटामिनों के स्रोत हैं । इनमें कन्दमूलों की तुलना में जलांश अधिक होता है । ये आहार के अन्य घटकों के पाचन और स्वांगीकरण में अमोघ सहायक होते हैं । भक्ष्याभक्ष्यता की आधुनिक धारणा के अनुसार कन्दमूल और बहुबीजकों में कोई विशेष अंतर नहीं प्रतीत होता । अतः इनकी अभक्ष्यता भी पुनर्विचार चाहती है । यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि जिन पदार्थों में जीवघात, स्वस्थ प्रतिकूलता (जैसे बैंगन, बहुबीजता, अन्तर्जीवता, पित्तजता आदि ) आदि संभव हैं, वे तो अभक्ष्य माने ही जा सकते हैं । लेकिन मात्र अन्तर्जीवता को अभक्ष्यता का आधार नहीं मानना चाहिए । यह तो खाद्यों के उत्पत्ति-स्थान एवं निक्षेपस्थान के परिवेश पर निर्भर करती है । ४. विविध अभक्ष्य : (१६-१७) बर्फ और ओला धर्म संग्रह में बर्फ और ओला- दोनों को अभक्ष्य बताया है। इसके विपर्यास में, जैन खण्ड १६, अंक ३ ( दिस०, ९० ) ३१ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया कोष में केवल ओलों को ही अभक्ष्य कहा है । वस्तुतः ठोस जल के रूप होने से दोनों को एक ही जाति का मानना चाहिये । ओला प्राकृतिक है, पारदर्शी ठोस और कठोर होता है तथा कोमल बर्फ से ऊपरी आकाश में शून्य ताप पर बनकर नीचे ठोस पिंड के रूप में गिरता है । इसके विपर्यास में, सामान्य बर्फ प्राकृतिक होते हुए भी कोमल एवं रुई जैसा होता है । यह ठंडी जलवायु के स्थानों में उच्च आकाश में जलवाष्पों के क्रिस्टलन से छोटे-छोटे रुई जैसे क्रिस्टलों के रूप में परिणत होकर धरती पर गिरता है और उसे सफेद चादर से आवृत्त करता है। शिमला और कश्मीर की घाटियों में दिसम्बरजनवरी में इस हिमपात की शोभा देखते ही बनती है । यही बर्फ जब तूफानों के कारण ऊपरी आसमान की ओर उड़ता है तो ओलों का रूप धारण करता है । रेफ्रिजरेटरों में जल सीधे ही कठोर बर्फ में परिणत हो जाता है । शास्त्रों के अनुसार, चूंकि यह अनछने पानी से बनता है, आकाश में बनता है, अतः इसमें अनंत जीवराशि रहती है । फलतः इसके भक्षण में जीवधात का दोष है । धार्मिक मान्यता से जल स्वयं सजीव है, सचित्त है । अतः उसके ठोस रूप को जीवपिंड ही मानना चाहिए । इससे इसकी अभक्ष्यता स्वयंसिद्ध है । पहले ये दोनों ही पदार्थ आहार में प्रयुक्त नहीं होते थे, पर जबसे प्रशीतन की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई, तबसे यह न केवल खाद्यों के प्रशीतन में ही काम आता है, अपितु यह स्वयं ही एक खाद्य घटक बन गया है । विदेशों में महिलाओं के प्रसवोत्तर काल में एवं अन्य रोगों में इसे खाद्य के रूप में काम में लाते हैं, बाह्य उपयोग तो अनेक हैं ही। उदाहरणार्थ - बुखार को कम करने के लिये बर्फ की पट्टियां काम आती हैं । . वैज्ञानिक अन्वेषणों से पता चलता है कि हिम या ओला तरल जल के शून्य ताप पर क्रिस्टलन से प्राप्त होता है । इस ताप पर परिवेश के जीवाणु विकारहीन और अक्रिय हो जाते हैं । दूसरे, यह पाया गया है कि क्रिस्टलन की क्रिया पदार्थ की शुद्धता पर निर्भर करती है और बर्फ और ओले जल के शुद्धतम रूप माने जाते हैं । क्रिस्टलन के कारण यह बिना छने भी छने से अच्छा माना जाता है। इसमें जीवाणु नहीं होते । इसका उपयोग अन्तर्बाह्य विकृति को रोकता है । इसलिये क्रियाकोषीय या जीवपिंडता के आधार पर बर्फ और ओलों को अभक्ष्य मानना तर्कसंगत नहीं लगता । रसायनज्ञों ने तो हाइड्रोजन मोनोक्साइड के रूप में इसे सरल यौगिकों के रूप में प्रयोगशालाओं में भी संश्लिष्ट कर लिया है । अतः इनकी अभक्ष्यता के लिये अन्य तर्कसंगत आधारों की आवश्यकता है | नये युग में बर्फ के तापमान पर अनेक बर्फयुक्त खाद्य काम में आने लगे हैं-- आइसक्रीम, कुलफी, शीतल सोडा, जल एवं अन्य पेय । धार्मिक दृष्टि से इन नये खाद्यों की भक्ष्याभक्ष्यता पर स्पष्ट विचार अपेक्षित हैं । १८. अज्ञात फल अज्ञात फलों की अभक्ष्यता की धारणा यह प्रकट करती है कि हम जो कुछ भी आहार ग्रहण करें, उसके गुण-अवगुण के विषयों में हमें पूर्व में यथासंभव पूर्ण जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिये । सामान्य जन को समुचित जानकारी उपलब्ध न होने की स्थिति में ऐसी वस्तुओं को आहार में लेना ही नहीं चाहिए । फिर क्षेत्र विशेष में पाये तुलसी प्रज्ञा ३२ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाने वाले फल-फूलों के विषय में तो जानकारी मिल भी सकती है किंतु विदेशी खाद्यों एवं नवीन फलों के विषय में कैसे मिल सकती है ? इस जानकारी के अभाव में अनजाने खाद्य का भक्ष्ण हानिकर भी हो सकता है। अतः अज्ञात फलों की अभक्ष्यता स्वयं सिद्ध है। यहां 'फल' पद दिया है पर हमें उसका अर्थ खाद्य ही लेना चाहिए । १६. तुच्छ फल सामान्यतः तुच्छ फलों में ऐसे फल समाहित होते हैं जिनमें खाद्यांश कम हो और अधिकांश अनुपयोगी हो। आशाधर, थैकर एवं शास्त्री ने मकोय, जामुन, कचरिया आदि के उदाहरण इस कोटि के फलों के लिये दिये हैं। स्पष्ट है कि गुठली के कारण इनका खाद्यांश कम है। इनमें कभी-कभी सूक्ष्म जीव एवं त्रस जीव भी देखे जाते हैं । अतः इन्हें अभक्ष्य बताया गया है । इनकी अभक्ष्यता के दो अन्य कारण भी हैं-बहु आरम्भ और गुठली आदि के फेंकने पर होने वाली सड़न से होने वाला जीवधात । इनके भक्षण से तृप्ति न होना भी एक कारण हो सकता है । पर सामान्य धारणा यही है कि यदि ये फल निर्जीव हों और शुद्ध हों, इनके भक्षण में दोष नहीं है । देखने में तो यही आया है कि ये लोकप्रिय भक्ष्य हैं। कहीं-कहीं तुच्छ पुष्प-फलों का भी उल्लेख है। इससे अनेक जाति के फूलों को भी उपयोग में न लेने की बात समाहित होती है । ऐसा माना जाता है कि तुच्छ फलों के खाने से रोग संभावित है । यह बात व्यक्ति-आधारित माननी चाहिये। २०. मृत जाति लवण युवाचार्य महाप्रज्ञा ने बताया है कि जैन मान्यतानुसार सारा दृश्य जगत् या तो सजीव है या जीव का परित्यक्त शरीर है । सारा कठोर द्रव्य सजीव ही है। वह शस्त्रोपहत होने से निर्जीव हो जाता है। इस आधार पर 'मृत-जाति' पद से अनेक प्रकार के खनिज (जो प्रायः कठोर होते हैं और औषधों के काम आते हैं) और सैंधव आदि लवण (ये भी खनिज के ही एक रूप हैं) लिये जाते हैं । फलतः ये मूलतः सजीव हैं । इन्हें शस्त्रोपहत किये बिना नहीं खाना चाहिये । यह शस्त्रोपहनन विलयन बनाने, पीसने या गर्म करने आदि क्रियाओं से भी हो सकता है । अतः अचित्त किये गये खनिज और लवण तो भक्ष्य हैं पर मूलतः ये खनिज रूप में अभक्ष्य हैं। वस्तुतः 'मृत जाति' के पदार्थ पृथ्वीकायिक कोटि के जीव माने जाते हैं। यह सुज्ञात है कि भूगर्भ के अन्दर और पृष्ठ पर अनेक खनिज लवण-सज्जी, मिट्टी, सुहागा, लौह-ताम्र-पारद के लवण, सैंधवादि लवण, खड़िया मिट्टी आदि-पाये जाते हैं । ये भोजन के आकस्मिक और अल्पमात्रिक घटक हैं । ये लवण पापड़ आदि अनेक खाद्य बनाने एवं औषधों के काम आते हैं । इनको अकेले ही या अनेक अन्य द्रव्यों के साथ कटपीस कर अनेक स्वास्थ्य-रक्षक औषध बनते हैं। इस प्रक्रिया में वे सभी खनिज निर्जीव हो जाते हैं । अन्य अभक्ष्यों की तुलना में इनकी अभक्ष्यता की चर्चा इतनी महत्त्वपूर्ण नहीं माननी चाहिये । वैज्ञानिक दृष्टि से भी, ये लवण सजीव नहीं माने जाते, अत: जीवघात का तर्क इनकी अभक्ष्यता के लिये लागू नहीं होता । शाह ने बताया है कि पकाये हुए खण १६, अंक ३ (दिस०, ६०) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारों में काम में लिये गये लवण तो अचित्त हो ही जाते हैं, पर अचार और औषधि आदि में प्रयुक्त करने के लिये इन्हें अग्निपक्व कर लेना चाहिये । इनके अचित्त बने रहने की सीमा बरसात में सात दिन, जाड़ों में पन्द्रह दिन और गर्मी में एक माह मानी गई है । २१. रात्रिभोजन सामान्यतः रात्रि ( सूर्यास्त से सूर्योदय) में बनाये गये एक या अनेक प्रकार के भोज्य पदार्थों का भक्षण रात्रिभोजन कहलाता है । इसके अन्तर्गत दिन में बनाये भोज्यों का रात्रि में भोजन भी समाहित होता है । इन भोज्यों का आहार सारणी-६ में दिये गये विभिन्न कारणों से शास्त्रों में गर्हित माना गया है । रात्रिभोजन की अभक्ष्यता या त्याग का उद्देश्य जीवन में अहिंसक भावनाओं को प्रेरित करना है | आगमों में इस संबंधी चर्चा मुनि आचार के संबंध में प्रमुखतः आई है । कहीं इसे व्रतों में रखा गया है और कहीं इसके छठे व्रत मानने की भी भूमिका है । गृहस्थों लिये यह चर्चा उत्तरवर्ती विकास है । यह धारणा उन दिनों प्रचलित की गई थी जब रात्रि में केवल तैल दीप प्रकाशित होते थे और प्रायः स्थान अंधकाराच्छन्न रहता था । ऐसे धुंधले की स्थिति में दृश्यता में कमी तथा दुर्घटनाएं होने की संभावनाएं अधिक रही हैं । ऐसी ही कुछ अप्रत्याशित दुर्घटनाओं ने आलोकित पान - भोजन की भावना की उत्थानिका की होगी । चूंकि रात में सूर्यालोक नहीं रहता, अतः 'पानभोजन' सारणी - ६ - रात्रिभोजन के संबंध में शास्त्रीय मान्यताएं १. रात्रिभोजन में द्रव्यहिंसा और भाव-हिंसा - दोनों होते हैं । २. रात्रिभक्ति में दिवाभुक्ति की अपेक्षा राग, मोह, रुचि अधिक होती है । प्रतिबंध, नियंत्रण के कारण रुचि और आवश्यकता तीक्ष्ण हो जाती है । ३. रात्रि में सूर्य प्रकाश के अभाव में या दीपादि के मंद प्रकाश के सद्भाव में भोजन बनाने के समय किये गये आरम्भ कार्यों में त्रस स्थावर जीवों की हिंसा संभावित है । ४. रात्रिभोजन में अनेक प्रकार के जीवों के कारण अनेक रोग उत्पन्न हो सकते हैं । ५. जो रात्रि में भोजन करते हैं, वे भूत-प्रेतादि के साथ भोजन करते हैं, मांसाहारी जीवों के साथ भोजन करते हैं । ६. रात्रि भोजन अपवित्र होता है । रात्रिभोजी मानव रूप में पशु ही हैं । ७. प्राचीन आचार्यों ने रात्रिभोजन त्याग के लिये 'आलोकित पानभोजन' की भावना की व्यवस्था की थी। बाद में इसे मूल गुणों में समाहित कर अनिवार्य बनाया गया । का त्याग स्वयमेव माना जाने लगा । इसमें कोई संदेह नहीं कि सूर्यप्रकाश में जीवाणुनाशन के गुण रहते हैं, अतः दिन में बने भोजन में सामान्य एवं विकारी जीवाणु रहितता का गुण तो होता है, साथ ही अनेक दुर्घटनायें होने से बच जाती हैं। विद्युत के प्रकाश के उपयोग से रात्रिभोजन के शास्त्रीय दोष काफी मात्रा में कम हो रहे हैं । फिर, विद्युत विहीन अधिकांश ग्रामीण भारत के लिये तो अनेक दोष अभी भी बने हुए हैं । इसके अतिरिक्त, स्वास्थ्य की दृष्टि से रात्रिभोजन की अभक्ष्यता की मान्यता में ३४ तुलसी प्रज्ञा Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई कमी नहीं आ पाई है । इसीलिये आज भी यह गुण जैनत्व के चिह्न के रूप में प्रतिष्ठित है । रात्रिभोजन त्याग से अहिंसक दृष्टि के अतिरिक्त निम्न महत्त्वपूर्ण लाभ हैं । (१) रात्रि भोजन न करने से पेट को भोजन के पाचन एवं स्वांगीकरण के लिये पर्याप्त समय - १२ घंटे तक — मिलता है । अतः ये क्रियायें प्राकृतिक रूप से सरलता से संपन्न हो जाती हैं । इससे मन और शरीर हलका रहता है, आलस्य नहीं रहता, बुद्धि भी निर्मल बनी रहती है । (२) रात्रिभोजन त्याग अच्छी गहरी प्राकृतिक निद्रा आती है । यह उत्तम स्वास्थ्य एवं दीर्घजीविता का प्रतीक है । ( ३ ) रात्रिभोजन से जठर पर कार्य का अधिक बोझ पड़ता है । इसके फलस्वरूप जठराग्नि की मंदता, दीर्घायुष्य की कमी एवं स्वास्थ्य -जन्य अनेक बाधायें एवं रोग उत्पन्न होते हैं । २२. विष विष ऐसे पदार्थों को कहते हैं जो जीवन या प्राण का नाश कर सकें, शरीर-तंत्र की क्रियाविधि को निरुद्ध कर मृत्यु तक ले जा सकें । 'सव्वेसि जीवणं पियं' के सिद्धांतानुसार कोई भी जीव जीवन-नाशक पदार्थों को खाना पसंद नहीं करेगा । अतः विषों की अभक्ष्यता निर्विवाद है । फिर भी, आजकल विष की परिभाषा में कुछ परिवर्तन हुआ है । कुछ विषैले पदार्थ ऐसे होते हैं जो उच्चतर प्राणियों के लिये मारक नहीं होते, लेकिन निम्न कोटि के प्राणियों के लिये मारक होते हैं । एन्टीबायोटिक या वर्मिन जैसी उदर कृमिनाशी दवायें इस कोटि में आती हैं । सामान्यतः यह मान लिया जाता है कि अपनी रक्षार्थ इन दवाओं के सेवन से क्या हानि है ? पर विष तो विष ही है चाहे किसी कोटि के जीव को मारे । अतः सिद्धांततः उपरोक्त कोटि की आधुनिक दवाओं अथवा वत्सनाग, हरिताल, संखिया, साल्फास आदि भारतीय या नवीन औषधियों का सेवन उचित प्रतीत नहीं होता । विषों से अन्तर्जीव नष्ट होते हैं, शरीर शिथिल होता है, चेतना शून्यता तक आती है, वमन विरेचन भी होता है । यह प्रत्येक दृष्टि से कष्टकर है। वैज्ञानिक अन्वेषणों से विषों की जीवन नाशक मात्राएं भी ज्ञात कर ली गई हैं। फिर भी, मानव के हित में विष की परिभाषा किंचित् परिवर्धित करनी चाहिये । विष को मानव की कोटि के जीवों के लिये हानिकर पदार्थ ही मानना चाहिये अन्यथा आज किस खाद्य पदार्थ में, जो कृषि से उत्पादित होता हो, कीटमार विष नहीं होता ? वस्तुतः आहार-संबंधी भक्ष्याभक्ष्य प्रकरण में विषों का महत्त्व नहीं है क्योंकि ये न तो हमारे आहार के परंपरागत सूक्ष्म मात्रिक घटक हैं और न वर्तमान आहार शास्त्री ही इन्हें खाद्यपदार्थ के रूप में मान्यता देते हैं । प्रचंड भावुकता, कष्ट और तनावों की तीव्रता की स्थिति में ही प्रायः लोग इनका सेवन करते हैं । इनका जीवननाशी होना ही इनकी अभक्ष्यता का निर्विवाद प्रमाण है । खण्ड १६, अंक ३ (दिस०, ६० ) ३५ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध अभक्ष्य पदार्थ उपरोक्त अभक्ष्यों के अतिरिक्त दौलतराम ने अन्य अनेक अभक्ष्य बताये हैं । इनमें (१) सभी प्रकार के पुष्प, पत्तेवाली सब्जियां, आम की बौर, क्षीरी पदार्थ, हरितकाय एवं अन्य समाहित हैं। शाह ने बाइस अभक्ष्यों की नई सूची दी है । इसमें पूर्वोक्त १८ पदार्थों के साथ (१) खसखस ( २ ) सिंधाड़ा नामक पदार्थ भी समाहित हैं । इन सभी का समाहरण अभक्ष्यों की पूर्वोक्त चार कोटियों में ही हो जाता है । उन्होंने मिलों का मैदा, सिके काजू, डिब्बा बंद दूध, मुरब्बा आदि, कोलड्रिंक्स और पेस्ट्री तथा ऐलोपैथिक दवाओं आदि को भी बहु-आरंभ, जीवघात संभावना एवं चलितरसता के कारण अभक्ष्य बताया है । पुराना गुड़, खांडसारी चलित रसता, सूक्ष्म जीवाणुघात के कारण अभक्ष्य है । रात्रि भोजन के समान प्रायः उन्हीं कारणों से होटल भोजन और अनछने पानी की अभक्ष्यता भी प्रतिपादित की गई है । वर्तमान युग में विभिन्न प्रकार के परिरक्षित एवं प्रक्रमित खाद्य पदार्थों की संख्या बढ़ रही है । इनकी भक्ष्याभक्ष्यता पर विद्वानों ने विचार प्रकट नहीं किये हैं । वे अभी भी बाइस अभक्ष्यों की शास्त्रीय चर्चा करते हैं । वस्तुतः इस वर्गीकरण में नाम - विशेष के स्थान पर जाति विशेष की कोटियां होनी चाहियें। इस आधार पर लेखक ने उनकी चार कोटियां निरूपित की हैं। साधु एवं विद्वज्जनों से इस महत्त्वपूर्ण विषय पर समुचित मार्गदर्शन अपेक्षित है । यह नवीन आहार शास्त्रीय अन्वेषणों पर भी आधारित हो, तो नयी पीढ़ी के लिये कल्याणकर होगा । भक्ष्य पदार्थ विभिन्न अभक्ष्यों की चर्चा के बाद सैद्धांतिक रूप से सामान्य श्रावक के लिये भक्ष्य पदार्थों पर भी कुछ विचार करना आवश्यक है । इनमें प्रथम तो सभी प्रकार के विभिन्न धान्य ( १७, १८ या २४) आते हैं । ये हमारे लिये आटा-चावल ( शकंरीय ), दालें (प्रोटीन) और तिलहन (तेल) की सम्यक् पूर्ति करते हैं । वनस्पतियों में हम संभवतः कोई भी ताजी एवं हरी शाक नहीं खा सकते । पांचवीं प्रतिमा पर तो यह कहा गया है कि सचित्त को विभिन्न विधियों से अचित्त कर खाया जा सकता है, पर इस पूर्व ऐसा कोई नियम नहीं है । इससे ज्ञात होता है कि इसके पूर्व कुछ प्रतिबंधों के साथ सचित्त पदार्थं खाये जा सकते थे । कच्चे दूध और उससे प्राप्त उत्पादों के अभक्ष्य होने से उबले दूध के उत्पादों को हम भक्ष्य मान लेते हैं । फलों में केवल आम, केला और सूखे मेवे ही भक्ष्य के रूप में बचते हैं । सुखाई राई या परिरक्षित सब्जियां भी ऋतु में कौन खाता है ? बाद में वे समय सीमा पार कर अभक्ष्य ही हो जाती हैं । फलतः जैन श्रावक का आहार अधिमात्रिक घटकों से तो पूर्ण सिद्ध होता है, पर वह अल्पमात्रिक एवं अनिवार्य (खनिज, विटामिन, हॉर्मोन आदि ) घटकों की दृष्टि से अपूर्ण रहेगा । साथ ही, फल मेवे पाचन में गरिष्ट हैं, खोवा, मलाई एवं घृत-तैल पक्व पदार्थ भी गरिष्ट होते हैं | श्रावकों का सामान्य व्यवसाय ( आधुनिक अपवादों को छोड़ ) भी श्रम साध्य नहीं होता । अतः अनेक क्षेत्रों के श्रावक मुटापे के रोग उनकी पाचन शक्ति भी क्रमशः दुर्बल होने लगती है । इस स्थिति से से ग्रस्त होते हैं । उबरने का उपाय तुलसी प्रज्ञा ३६ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यही है कि हम अपने शास्त्रीय आहार शास्त्र में आधुनिक वैज्ञानिक तथ्य समाहित करें और अल्पमात्रिक घटकों वाले रुचिकर, अनुकूल एवं हितकारी पदार्थों को सामान्य भक्ष्यता की कोटि में समाहित करें। यही नहीं, किण्वन से प्राप्त हितकारी खाद्यों को भक्ष्यता की कोटि में लाएं। ____ इस दिशा में तीर्थंकर' ने 'आहार विशेषांक' के रूप में एक प्रयोग किया है। लेकिन इसमें वैज्ञानिक आहार शास्त्र की ही प्रमुखता है। यदि इसमें शास्त्रीय आहार शास्त्र के समीक्षापूर्वक सुझाव दिये जाते, तो उनकी उपयोगिता अधिक होती । इससे तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह औद्योगिक प्रगति और परिवेश को नकार कर हमें बहुत पीछे ले जाना चाहते हों। यह रुख हमें वस्तुस्थिति से विचारपूर्ण समाधानपूर्वक नहीं अपितु पलायन की मनोवृत्ति की ओर प्रेरित करता है । क्या हम कुंदकुंद के मत का अनुसरण न करें जहां उन्होंने श्रावकों को देश, काल, श्रम और क्षमता के आधार पर अन्योन्यनिरपेक्ष उत्सर्ग और अपवाद पर ध्यान न देते हुए विचार-पूर्वक आहार की अनुज्ञा दी है ? सन्दर्भः १. सागार धर्मामृत-कैलाशचन्द्र शास्त्री (अनु.), पृ. ४३-१२५, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, १९८१ २. योग विद्या, पृ. ३०, बिहार योग विद्यालय, मुंगेर, नवम्बर, १९७८ ३. जग० शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ-आचार्य राज कुमार जैन ४. तीर्थकर नेमीचंद जैन, इन्दौर, जनवरी, १९८७ ५. तीर्थकर-गणेश ललवानी, पृ.३२, इन्दौर, जनवरी, १९८६ ६. दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन-मुनि नथमल (सं०), पृ. ११३, ११६, तेरापंथी महासभा, कलकत्ता, १९६७ ७. प्रवचनसार-कुंदकंदाचार्य, पृ. २७७, २८१, पाटनी ग्रन्थमाला, मारोठ, १९५६ 10 बम १६, अंक ३, (दिस०, १.) ३७ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन एवं अन्य भारतीय दर्शनों में मोक्षदशा : एक तुलनात्मक दृष्टि - कु० कमला जोशी* भारतीय अध्यात्मवादियों ने मोक्ष को जीवन का प्रमुख एवं अन्तिम लक्ष्य निर्धारित किया है । मोक्ष का तात्पर्य है-राग, द्वेष, मोह, लोभादि दुर्भावों से सदा के लिए छुटकारा पाना । परिणामस्वरूप व्यक्ति दुःखों, तनावों, कर्मबन्धनों एवं जन्म-मरण के चक्र से भी सदा के लिए मुक्त हो जाता है । यह अवसानार्थक भ्वादिगण परस्मैपदीय या चुरादिगण की उभयपदीय मोक्ष धातु और धञ् (पा० सू०-३।३।१८) प्रत्यय से निष्पन्न है। दर्शन जगत में मोक्ष, मुक्ति, निर्वाण, अपवर्ग, निःश्रेयस एवं कैवल्य पर्यायवाची हैं। मोक्ष होने के बाद जीव की कैसी दशा होती है ? उसे कैसी अनुभूति होती है ? वस्तुतः यह अत्यन्त गम्भीर विषय है । आधुनिक विज्ञान अभी इतना सक्षम नहीं हो पाया है कि मृत्योपरान्त जीव की स्थिति की कल्पना और समीक्षा कर सके । किन्तु भारतीय दार्शनिकों ने अपने-अपने गहन ज्ञान, अनुभव, सिद्धान्त एवं तार्किक बुद्धि के आधार पर इस स्थिति को स्पष्ट किया है। प्रस्तुत लेख में जैन दर्शन एवं अन्य प्रमुख भारतीय दर्शनों में स्वीकृत मोक्षावस्था सम्बन्धी विचारों का तुलनात्मक विश्लेषण करने का प्रयास किया जा रहा है। जैनों के अनुसार मोक्षदशा में जीव अपने निर्मल स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। सिद्ध (मक्त जीव) संसारियों के मति, अवधि और मनःपर्याय जैसे साधारण ज्ञानों से - ऊपर उठकर केवलज्ञानी हो जाता है । इसीलिए मुक्त जीव केवली भी कहलाते हैं। केवलज्ञान अतीन्द्रिय और सुखरूप माना गया है । आत्मा के केवल ज्ञानमय रूप होने से सुख आत्मा का स्वभाव है। आत्मज्ञान से पारमार्थिक सुख के अभिन्न होने के कारण स्वभावतः मुक्त दशा में जीव को इन्द्रिय सुखों से भिन्न, नित्य एवं दिव्य सुख की अनुभूति होती है। वह सभी पदार्थों का उनके पर्यायों के साथ (अवग्रहादि चरणों के बिना) प्रत्यक्ष दर्शन करने से अनन्त दर्शन से सम्पन्न, अनन्तज्ञानी होने से सर्वज्ञ एवं अनन्तशक्ति वाला होने से सर्वशक्तिमान कहा गया है । अनन्त दर्शन, अनन्त.ज्ञान और अनन्त शक्ति के पूरी तरह प्रकट हो जाने से कर्म जीव को अपने चक्कर में पुनः नहीं फंसा सकते। कर्ममुक्त होने से संसार में पुनः मुक्त जीव का आगमन भी नहीं होता । इस स्थिति में सिद्ध जीव को किसी तरह की इच्छा और दुःख नहीं रहता है। वह लोकाग्र में स्थिर एवं * शोधच्छात्रा [संस्कृत विभाग], कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल [यू० पी०] तुलसी प्रज्ञा Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निष्क्रिय रहता है। यह दशा आत्मा के स्वाभाविक गुणों की आवृत्ति से भी सम्बद्ध है। इस अवस्था में आत्मा के परिणाम का अर्थ है-अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान एवं अनन्तवीर्य रूप आत्म गुणों की आवृत्ति होते रहना । इस तरह द्रव्य होने के कारण सिद्ध जीव में भी व्यय-उत्पाद-नित्यता होती है। मुक्तावस्था में जीव में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के अनेक रूप कहे जा सकते हैं । इच्छारहित वृत्ति से मुक्त जीवों का ज्ञान भी परिवर्तित होता रहता है । इसी प्रकार संसार पर्याप का नाश, सिद्ध परिणाम की उत्पत्ति एवं शुद्ध जीवत्वरूप पैसे नित्यता होती है । सिद्धों में ज्ञान या चैतन्य गुण का अभाव नहीं होता। संसारी जीवों के समान समस्त मुक्तात्मा अपने आप में स्वतन्त्र है। अपने-अपने स्वतन्त्र अस्तित्व के साथ सभी सिद्ध जीव बिना किसी विरोध के सिद्धशिला में रहते हैं। इस अवस्था में जीवों में कोई भी गति, वेद (लिंग), चरित्र, अचरित्र, शरीर एवं क्रिया नहीं होती । न इनमें किसी तरह का स्वरूपगत वैषम्य ही होता है। अन्य दार्शनिकों ने भी अपने-अपने सिद्धान्तों के अनुसार जीव की मोक्षदशा को व्याख्यायित किया है। निर्वाणावस्था के विषय में सभी बौद्ध सम्प्रदायों के विभिन्न मत हैं। सामान्यतः सभी वैभाषिक बौद्ध मोक्षावस्था को अभावात्मक और सत्तात्मक मानते हैं । तिब्बतीय परम्परा के अनुसार प्राचीन समय में कुछ वैभाषिक इस स्थिति में क्लेशोत्पादक संस्कारों के द्वारा प्रभावित होने वाली चेतना का सर्वथा निरोध स्वीकार करते थे अर्थात् निर्वाण दशा में क्लेशोत्पादक संस्कारों से प्रभावित न होने वाली कोई चेतना अवश्य रहती थी। सौत्रान्तिकों का कहना है कि इस अवस्था में चरम शान्ति में डूबी चेतना रहती है। इसके विपरीत तिब्बतीय परम्परा से पता चलता है कि कुछ सौत्रान्तिक निर्वाणावस्था में चेतना का अभाव मानते थे। चेतना की स्थिति एवं अभाव सम्बन्धी इन मतों के अतिरिक्त हीनयान बौद्ध सम्प्रदाय में यह दशा दुःखाभावरूप और लोकोत्तर है । इस दशा की कल्पना की जा सकती है। इस स्थिति में सुख-दुःख जैसी कोई अनुभूति भी नहीं रहती है । महायानियों (योगाचार और माध्यमिक) ने मोक्षावस्था को अनिर्वचनीय सुखरूप, (जीव की) सर्वज्ञता से युक्त एवं लोकोत्तरतम माना है।" संक्षेप में दोनों बौद्ध सम्प्रदाय निर्वाण दशा में व्यक्तित्व का निरोध स्वीकार करते हैं । जैसे-जलती हुई आग बुझाने पर नहीं दिखायी देती है, उसी प्रकार निर्वाण प्राप्ति के बाद व्यक्ति भी नहीं दिखायी देता । अश्वघोष ने इस विषय में दीपक का उदाहरण दिया है कि जैसे बुझा हुआ दीपक पृथ्वी, अन्तरिक्ष, दिशा, विदिशा कहीं नहीं जाता अपितु तेल की समाप्ति से केवल शान्त हो जाता है। इसी प्रकार मुक्त पुरुष कहीं न जाकर क्लेशनाश से शान्ति पा लेता है। इसीलिए बौद्ध दर्शन में मोक्ष को निर्वाण शान्त (निर्वाणं शान्तम् ) कहा गया है। हीनयान और महायान में निर्वाण दशा से सम्बन्धित प्रमुख अन्तर क्रमशः (इस दशा को) दुःख का अभावमात्र और आनन्दरूप मानना है। व्याकरण दर्शन के अनुसार मुक्ति में शब्दात्मना जीव की स्थिति रहती है । नैयायिकों एवं वैशेषिकों का कहना है कि इस दशा में (देहविहीन होते ही) आत्मा के विशेष गुणों का अत्यन्ताभाव हो जाता है । आत्मा पूर्णतः चैतन्यरहित, यथार्थ रूप में खण्ड १६, अंक ३ (दिस०, ६०) ३६ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिति से उर्मिविहीन (भूख, प्यास, लोभ, मोह, शीत एवं उष्ण से रहित) और क्लेशरहित हो जाता है । यह आत्मा की अनुभूतिशून्य (ज्ञान, दुःख एवं सुखानुभूति से रहित) अवस्था है । उल्लेखनीय तथ्य है कि आज मोक्ष की कल्पना में नैयायिकों और वैशेषिकों में कोई अन्तर नहीं है किन्तु न्यायसार (पृ० ४०-४१) और सर्वसिद्धान्तसंग्रह से प्राचीन काल में आनन्दरूपा मुक्ति के समर्थक एकदेशी नैयायिकों के अस्तित्व की जानकारी मिलती है। वैशेषिकों ने तो मोक्षदशा को सदैव ही दुःखात्यन्तनिवृत्तिरूपा एवं आत्मविशेषगुणोच्छेदरूपा बताया है। सांख्य एवं योग दर्शन ने मोक्षावस्था में पुरुष या चितिशक्ति की (केवली होकर) स्वरूप में स्थिति मानी है। हीनयान बौद्धसम्प्रदाय, न्यय-वैशेषिक के समान सांख्य एवं योग दार्शनिक भी इस दशा में दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति स्वीकार करते हैं । उनके विचार में यह दशा दुःखाभाव रूप ही है, सुखानुभूति रूप नहीं । सांख्ययोगाचार्य इस अवस्था में सुखानुभूति न मानते हुए भी चित्स्वरूपपुरुष की स्वरूपावस्थिति के समर्थक हैं । उनका मत है कि आत्मा किसी भी स्थिति में चैतन्यरहित नहीं हो सकता। मुक्त पुरुष साक्षी और द्रष्टा होकर प्रकृति को देखता है और पुनः प्रकृतिबन्धन में नहीं पड़ता। मीमांसकों के अनुसार मोक्षदशा में जीव सुख, ज्ञान और आनन्दरहित होता है।" इस अवस्था में आत्मज्ञान का अभाव होने पर भी जीव में ज्ञानशक्ति मात्र अवश्य रहती है । आत्मा की ज्ञानशक्ति कभी लुप्त नहीं होती और उसकी सत्ता, दृश्यत्व आदि धर्म भी उसमें रहते ही हैं । यही आत्मा की स्वरूपावस्थिति है। इस दशा में आत्मा के ज्ञानशक्ति रूप रहने पर भी इस शक्ति की कोई अभिव्यक्ति नहीं होती है। इसलिए मुक्तात्मा प्रयत्न इच्छादि से रहित है और ज्ञानस्वरूप एवं आनन्दस्वरूप नहीं कहलाता। समान्यतः मीमांसकों ने इस अवस्था को दुःखात्यन्ताभाव के साथ सुखाभावरूप भी स्वीकार किया है। देहविहीन आत्मा प्रिय-अप्रिय और हर्ष-शोक से अप्रभावित रहता है । भाट्टों के एक पक्ष का कहना है कि सांसारिक पदार्थों से सदा के लिए सम्बन्धनाश होने के कारण इस अवस्था में विषयजन्य सुख का अनुभव नहीं हो सकता किन्तु आत्मा के शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति से शुद्धानन्द का आविर्भाव अवश्यमेव होता अद्वैतवेदान्तसम्मत मुक्तात्मा नितान्त आनन्दमयी दशा है । जीव सभी उपाधियों से रहित होकर ब्रह्मत्व पा लेता है जिससे दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति के साथ ही अलौकिक आनन्द की अनुभूति होती है।" मुक्त जीव सच्चिदानन्दमय हो जाता है । भास्कर वेदान्ती संसारावस्था के जीव का मोक्षदशा में परमात्मा में लय स्वीकार करते हैं । ऐसी स्थिति में ज्ञान आत्मा में रहता है और मुक्तात्मा आनन्दानुभूति करता है । रामानुज के विचारानुसार इस दशा में जीव एवं ब्रह्म का भेद बना रहता है । विशिष्टाद्वैतवादियों के अनुसार जीवों में रहने वाला ज्ञान नित्य, द्रव्यात्मक, अजड़, संकोचविकास युक्त और आनन्दस्वरूप है । बद्ध जीव मुक्त होकर अपनी स्वाभाविक दशा में आकर ब्रह्म के समान हो जाता है । माध्ववेदान्तियों के विचार में मुक्त स्थिति में जीव परमसाम्य को पा लेता है । जैसा कि मुण्डक (३।१।३) में कहा गया है—निरञ्जनः तुलसी प्रज्ञा Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमं साम्यमुपैति । यह साम्य प्राचुर्य विषयक है, अभेदविषयक नहीं । भगवान् के साथ जीव के चैतन्यांश के कारण एकता है । समस्त गुणों की दृष्टि से तो उनमें भेद होता ही है अर्थात् मुक्तावस्था में जीव और ब्रह्म में अभेद नहीं होता ।" द्वैतवादियों ने संसारावस्था के समान मोक्षावस्था में भी जीवों में पारस्परिक अन्तर और आनन्द का तारतम्य स्वीकार किया है । निम्बार्काचार्य का कहना है कि मुक्त होने पर भी जीवों का ईश्वर के साथ भेदाभेद सम्बन्ध बना रहता है । जीव ब्रह्म के साथ एकाकार होकर भी अपना सर्वथा पृथक् और स्वतन्त्र अस्तित्व बनाए रखता है । चैतन्यात्मक तथा ज्ञानाश्रय रूप से ईश्वर की तरह होकर भी ( मुक्त दशा में ) जीव ईश्वर पर आश्रित होता है । निम्बार्क मुक्त जीव में कर्तृत्व मानते हैं, कुछ मुक्त जीव निरतिशय आनन्दरूप भगवदभाव को पाने वाले होते हैं एवं दूसरे मुक्त जीव अपने आत्मज्ञान से स्वरूपानन्द की प्राप्ति करने वाले हैं ।" वल्लभाचार्य के विचार में मोक्षदशा में जीव आनन्दांशों को प्रकट कर सच्चिदानन्द हो जाता है । भगवान् से अभिन्न होने पर जीव दुःख एवं जड़ता से छुटकारा पाकर स्वरूपतः आनन्दरूप से स्थित होता है । जीव की मुक्त दशा के विषय में नास्तिक, षड् आस्तिक और ब्रह्मसूत्र के प्रमुख भाष्यकारों के अलग-अलग विचार हैं । मोक्षदशा में जीव की स्वरूपावस्थिति के विषय में सभी विचारक एकमत हैं किन्तु आत्मस्वरूप के सम्बन्ध में विचारों के पार्थक्य के कारण जीव की मुक्तावस्था में परस्पर अन्तर हो जाता है । इस दशा में दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति तो सभी ने स्वीकार की है। कुछ दार्शनिक संसारावस्था के समान मोक्षदशा में भी जीवों का पृथक् और स्वतन्त्र अस्तित्व मानते हैं । इसके विपरीत कुछ विचारकों ने मुक्त जीवों का एक ही अनन्त चैतन्य में लय माना है । जैनसम्मत मोक्षदशा का किसी एक दर्शन में मान्य मोक्षदशा से पूर्ण साम्य नहीं है किन्तु यह निर्विवाद तथ्य है कि जैनों की इस विषय में अन्य दर्शनों से आंशिक समानता है । जनमतानुयायी भी अन्य भारतीय अध्यात्मवादियों की तरह मुक्तदशा में जीव की अपने यथार्थ स्वरूप में स्थिति स्वीकार करते हैं । मोक्ष की स्थिति में जीव की दशा से सम्बन्धित तीन प्रमुख विचारधारायें हैं— सत्, चित् और आनन्द । कुछ बौद्धों के अतिरिक्त सभी दर्शनों में मुक्त स्थिति में जीव को सत् बताया गया है । न्याय, वैशेषिक एवं अधिकांश मीमांसक तो इस स्थिति में जीव को सत् मात्र ही स्वीकार करते हैं, चित् और आनन्दमय नहीं । सांख्य एवं योग दार्शनिक इस दशा में आत्मा को सत् के साथ-साथ चित् भी कहते हैं । वेदान्त दर्शनों में ( मुक्त दशा में) जीव को सत्, चित् और आनन्द स्वीकार किया है । वेदान्त के समान जैन तत्त्वज्ञों ने भी इस अवस्था में जीव द्रव्य को सत्, चित् ( चैतन्यमय अथवा ज्ञानमय होने से ) एवं दिव्यानन्दानुभूति से युक्त कहा है किन्तु अद्वैत वेदान्तियों की तरह जैनाचार्य मुक्त जीवों का एक अनन्त चैतन्य में लय नहीं मानते । वे न्याय-वैशेषिक, सांख्ययोग, मीमांसादि अनेकात्मवादियों के समान मुक्तावस्था में जीवों के अलग-अलग अस्तित्व के कट्टर समर्थक हैं । कुछ वैष्णव सम्प्रदायों ने मुक्तावस्था में भी जीव में कर्तृत्व और भोक्तृत्व शक्ति स्वीकार की है" किन्तु जैनसम्मत मुक्त जीव ( इस अवस्था में) न्याय, मीमांसादि के मुक्तात्मा के समान कर्तृत्व और भोक्तृत्व से रहित है । खण्ड १६, अंक ३ ( दिस०, ६० ) ४१ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसम्मत सिद्ध निष्क्रिय होकर लोकान में स्थिर रहता है । जैनों के धर्म एवं दर्शन में रत्नत्रय रूप ऐश्वर्य से सम्पन्न होने के कारण सभी मुक्तात्मा पूज्य और ईश्वर माने जाते हैं, संसार की नित्यता एवं कर्मस्वातन्त्र्य को मानने के कारण जैनों को सृष्टि करने और विनाश करने वाले कर्मफलदाता के रूप में (न्याय, वैशेषिक, योग एवं कुछ वैष्णव सम्प्रदायों के समान) एक ईश्वर को मानने की आवश्यकता नहीं है। ब्रह्मसूत्र के कुछ भाष्यकारों ने मुक्त जीवों का ब्रह्म में लय माना है तो कुछ वेदान्तियों ने ईश्वर और मुक्त जीवों का पृथक्-पृथक् अस्तित्व स्वीकार करते हुए मुक्त दशा में जीवों में ईश्वर के समान गुणों की कल्पना की है किन्तु मुक्त दशा में स्थित सभी जीवों को ईश्वर मानना जैन मनीषियों को सर्वथा मौलिक बुद्धि का परिचायक है । भारतीय अध्यात्म जगत् में अन्यत्र कहीं भी मुक्त दशा में स्थित सभी जीवों में ईश्वरत्व की कल्पना सम्भवतः नहीं की गयी है। जैन मतानुसार मोक्ष दशा में सभी जीव समान हैं । वस्तुतः एकात्मवादी हों या अनेकात्मवादी, कुछ वैष्णव सम्प्रदायों को छोड़कर शेष दर्शनों में मुक्तावस्था में स्वरूप, गुण, शक्ति आदि किसी भी दृष्टि से कोई अन्तर नहीं बताया गया है। कुछ वैष्णव सम्प्रदाय मुक्त जीवों में भी अन्तर स्वीकार करते हैं।" सांख्य, योग, अद्वैत वेदान्त आदि दर्शनों के समान जैन दर्शन में भी मुक्त दशा में स्थित जीवों के पुनः संसार में लौटने का निषेध किया गया है। ___ इस विवेचन के निष्कर्षस्वरूप कह सकते हैं कि जैनसम्मत मोक्ष दशा की अन्य दर्शनों में स्वीकृत मोक्ष दशा से अनेक स्थलों पर समानता स्पष्टतः प्रतीत होती है किन्तु अनेक अंशों में साम्य होने पर भी इसकी किसी एक दर्शन से पूर्ण समानता कदापि नहीं कही जा सकती । मोक्ष दशा में लोकाग्र भाग (सिद्धशिला) में स्थिरता, ईश्वरत्व की कल्पना जैसे मौलिक विचार इस मत को विशिष्ट बना देते हैं। सन्दर्भ : १. तत्त्वार्थसूत्र १०/२,३, मुण्डक २/२/८, ३/२/८, न्यायसूत्र १/१/२२, वैशेषिकसूत्र ५/२/१८, ६/२/१६, सांख्य सूत्र ३/६५, योगसूत्र २/२५, ३/३४, कठोपनिषद् २/३/१४, श्रीभाष्य १/१/१ इत्यादि। २. A History of Indian Philosophy, Dasgupta, Vol. I, P. 207. ३. सयमेव जहादिच्चो तेजो उण्हो य देवदा णभसि । सिद्धो वि,तहा णाणं सुहं च लोगे तहा देवो ॥ -प्रवचनसार । ४. देखिए शोधलेख 'उत्तराध्ययन में मोक्ष की अवधारणा, प्रस्तुतकर्ता-डॉ० महेन्द्र नाथ सिंह, श्रमण', मई, १९८६, पार्श्वनाथ शोध संस्थान, वाराणसी ५. जया कम्म खवित्ताणं सिद्धि गच्छइ नीरओ। तया लोगमत्थयत्थो सिद्धो हवई सासओ ॥ -दशवकालिक ४/२५ ६. भारतीय दर्शन, बलदेव उपाध्याय, पृ० ५७२-५७३ । ७. त्रिशिकाविज्ञप्ति भाष्य, पृ० १५ (स्थिरमतिकृत और डॉ० सिल्वन लेवी द्वारा सम्पादित)। तुलसी प्रज्ञा Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. मिलिन्द प्रश्न, पृ०६२ ६. दीपो यथा निवृत्तिमभ्युपेतो नवानि गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काञ्चिद् विदिशं न काञ्चित् स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ।। तथा कृती निवृत्तिमभ्युपेतो नैवानि गच्छति नान्तरिक्षम् ।। दिशं न काञ्चित् विदिशं न काञ्चित् क्लेशक्षयात केवलमेति शान्तिम् ॥ -सौन्दरनन्द, १६/२८-२९ १०. महाभारत, शान्ति पर्व, अध्याय-२७० । ११. (क) स्वरूपैकप्रतिष्ठानः परित्यक्तोऽखिलैर्गुणः। उमिषट्कातिगं रूपं तदस्याहर्मनीषिणः॥ संसारबन्धनाधीनदुःखक्लेशाद्यदूषितम् । -न्यायमञ्जरी, पृ० ७७ (ख) दग्धेन्धानवदुरशनो मोक्षः।-प्रशस्तपादमाष्य, पृ० १४४ १२. नित्यानन्दानुभूतिः स्यान्मोक्षे तु विषयावृते। ----६/४१ १३. सांख्यकारिका-६४, ६५।। १४. तस्मात् निःसम्बन्धी निरानन्दश्च मोक्षः। --शास्त्रदीपिका, पृ० १२५-३० । १५. (क) प्रकरणपाञ्चिका, पृ० १५७ ।। (ख) यदस्य स्वं नजं रूपं ज्ञानशक्तिमत्ताद्रष्यत्वादि तस्मिन्नवतिष्ठते । -शास्त्रदीपिका, पृ० १३० । १६. दुःखात्यन्तसमुच्छेदे सति प्रागात्मवतिनः। सुखस्य मनसा भुक्तिमुक्तिरुक्ता कुमारिलैः॥ -भारतीय दर्शन, बलदेव उपाध्याय, पृ० ६३५ में उद्धृत १७. (क) सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म । -तैत्तिरीयोपनिषद् २।१।१। (ख) विज्ञानमानन्दं ब्रह्म । -बृहदारण्यकोपनिषद् ३।६।२८ । (ग) ब्रह्मवेद ब्रह्म व भवति । --मुण्डकोपनिषद् ३।२६ (घ) बृहदारण्यकोपनिषद्-३।८।८, तैत्तिरीयोपनिषद-३।१११, माण्डव्यकारिका २२३२ इत्यादि। १८. भारतीय दर्शन, उमेश मिश्र, पृ० ४०२-४०३ १६. (क) पदार्थ संग्रह, पृ० ३२ (ख) जीवस्य तादृशत्वं च चित्वमात्रं न चापरम । तावन्मात्रेण चाभासो रूपमेषां चिदात्मनाम् ॥ -मध्वसिद्धान्तसार, पृ० ३० २०. भारतीय दर्शन, बलदेव उपाध्याय, पृ० ४१० २१. कर्ता शास्त्रार्थत्वात् । -ब्रह्मसूत्र-२॥३॥३२ पर पारिजात सौरभ २२. यः परमात्मा स एवाऽहं, योऽहं स परमस्ततः। अहमेव भयोपास्यो, नान्यः कश्चिदिति स्थितिः ।। -समाधिशतक-३१ २३. (क) भानुषादि विरिञ्चान्तं तारतम्यं विमुक्तिगम् । -ईशावास्यमाष्य (ख) दुःखाभावः परानन्दो लिंगभेवः समा मताः। तथापि परमानन्दो ज्ञानभेदात्तु मिद्यते ॥ ---मध्वसिद्धांतसार, पृ० ३२ २४. (क) रडास्य दर्शयित्वा निवर्तते नर्तकी यथा नत्यात् । पुरुषस्य तथाऽऽत्मानं प्रकाश्य निवर्तते प्रकृतिः॥ -सांख्यकारिका-५६ (ख) प्रकृतेः सुकुमारतरं न किञ्चिवस्तीति मे अतिर्भवति । या दृष्टाऽस्मीति पुनर्न दर्शनमुपैति पुरुषस्य ॥ --वही-६१ 000 खण्ड १६, अंक ३ (दिस०, ६०) ४३ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Enigma of the Universe Viśva-Prahelikä GEOMETRICAL AND PHILOSOPHICAL ASPECTS OF THEORY OF RELATIVITY Muni Mahendra Kumar Non-Euclidean Geometry And Einsteinian Space Geometry is a branch of mathematics, in which the structure of space is studied. It is a system of mathematical concepts concerning extension. The properties of point, line, plane, angle, etc. are included in it. Ancient Greek mathematician Euclid, (300 B C.) in his monumental work Elements, had laid down the rules and laws of geometry. This is called as 'Euclidean Geometry'. It was based on some self-evident axioms, which were regarded as universal truths. Discovery of Non-Euclidean Geometry The validity of Euclidean geometry was not questioned till the eighteenth century. Kant went to the extent of supporting his philosophical doctrine that space is a necessary representation a priori, on the basis of Euclidean geometry by considering the geometry of space as independent of experience. But, Saccheri (16671773) was the first man who tried to propound certain laws about 'angles' other than those laid down by Euclid. However he did not succeed fully in his efforts. In any way, the history of non-Euclidean geometry begins with Saccheri. In 1799, mathematician Gauss made a little progress in this field. He showed that it is possible that the sum of the three angles of a triangle, which should be equal to 180° according to the laws of Euclidean geometry, may be less than 180°. To decide this question, Gauss actually measured the triangle having for its vertices Inselsberg, Brocken, and Hoher Hagen (near Gottingen), using methods of the greatest refinement, but the deviation of the sum of the angles from 180° was found to lie within the limits of errors of observation.1 Thus, though it was not definitely decided whether Euclidean or non-Euclidean geometry held in the actual space, the above experiment served a great deal in the development of non-Euclidean geometry. The honour of the discovery of non-Euclidean geometry went to Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XVI, No. 3 Nikolai Ivanovich Lobachevsky (1793-1856), Proffessor of Mathematics at Kazan (in Russia), and Bolyai Janos (John) (1802-1860), a young Hungarian soldier, who during the period 1823-1829, worked on the subject independently of each other. They showed that Euclidean geometry is neither necessary nor is it universally true. It is not necessary because, Euclid's axioms are not self-evident, but may be replaced by other axioms which are incompatible with them and which have as good a claim to acceptance from the point of view of logic: and on these alternative axioms it is possible to build up other systems of geometry. In the geometries invented by them, the postulate of Euclid concerning the parrallel lines was modified and altogether new laws were propounded, This type of geometry was then known as 'hyperbolic geometry'. There are striking differences between hyperbolic and Euclidean geometry wihch become menifest when very large figures are concerned : parallel lines in hyperbolic geometry are not equidistant, but approach each other asymptotically at one end, and diverge to infinite separation at the other; and this is such a fundamental property that the unlikeness to Euclidean metry becomes very pronounced: in fact, nearly all the more important characteristics of Euclidean parallelism are lost. The sum of the angles of atriangle is less than two right angles, but the deficiency is proportional to the area of the triangle, and is inappreciable for the triangles we draw in diagrams, which are small compared the dimensions of the universe. Later on, in 1954, Bernard Riemann (1826-1866) developed systemetically the whole branch and in 1870, Felix Klein gave the strict and simplest proof of consistency of non-Euclidean geometry. Riemann also developed another kind of non-Euclidean geometry, which was then called as 'elliptic geometry'. In elliptic geometry, the assumption that the length of a straight line is infinite (which was accepted by Lobachevsky and Bolyai) was given up. Instead of this, Riemann conceived that all straight lines return into themselves, and are of the same length. In elliptic geometry, the sum of the angles of a triangle is always greater than two right angles, the excess being proportional to the area of the triangle, exactly as with triangles formed by great circles on the surface of a sphere in Euclidean space : indeed, the formula connecting the sides and angles of a tringle are the same as the formula of spherical triangle geometry; there are no parallels, as all straight lines interesect each other. Space : Euclidean or Non-Euclidean ? Thus, upto the end of the nineteenth century, the various forms of non-Euclidean geometry were developed. But the questur as to Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULASÍ-PRAJNA, Dec., 1990 46 which doctrine--the Euclidean, or some kind of non-Euclidean-is true, that is to say, is the geometry of the actual universe, was not settled. Here it is necessary to distinguish between pure or mathematical geometry and physical geometry. The statements of pure geometry hold logically, but they deal only with abstract structures and say nothing about physical space. Physical geometry describes the structure of physical space: it is a part of physics. Now, Euclidean and non-Euclidean geometries are mathematical geometries and propose different geometrical properties for the space. The question as to which of them is physical geometry, is an important one. For instance, if we draw a triangle, one of whose vertices is at the earth, one is somewhere in the Great Nebula in Andromeda, and one is in the spiral Nebula in conces venatici, will this triangle be Euclidean or non-Euclidean ? That is to say, will the sum of its three angles be axactly equal to 180°, or greater than 180° or less than 180° ? As we have seen, Newton thought that the Euclidean geometry is the physical geometry. When the above question was put to famous mathematician Poincare, he said that it was merely a matter of convenience. According to Poincare, the question can not be settled only by empirical observations. He maintained that we might adopt any of the possible forms of geometry, if we made the suitable modifications of the physical laws. To ask, which is the true geometry, is, in his view, as absurd as to ask whether the old or the metric system is the true one. Still he asserted that the physicists would always choose the Euclidean structure because of its simplicity. It follows from the above view of Poincare that in order to describe the mutual spatial relations of terrestrial objects, we have a choice of many different systems, any one of which will serve the purpose. The same is true of three-dimensional space, which has not in itself any definite structure or geometrical properties : essentially it is mere threefold continuity and nothing more, and the geometry to be used for the description of local relations is arbitrary and at the disposal of the mathematician. It would therefore seem to be impossible to tell by observation whether space is Euclidean or non-Eucli. dean. Also, since we can always map non-Euclidean space on Euclidean space, we can always assume Euclidean geometry to be the geometry of actual space, provided we make the requisite changes in our physical laws. It is purely a question of convenience, whether we prefer to have an easily intelligible geometry with complicated physical laws, or a less intelligible geometry with simple physical Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XVI, No. 3 laws.? But this does not mean that geometry is independent of experie. nce. For the validity of the statements of the physical geometry is to be established empirically-as it has to be in any other part of physics-after rules for measuring the magnitudes involved, especially length, have been stated. 8 Though the physicist is free to choose the rules for measuring length, after this choice is made, the question of the geometrical structure of physical space becomes empirical; it is to be answered on the basis of the results of experiments. Alternatively, the physicist may freely choose the structure of physical space; but then he must adjust the rules of measurement in view of the observational facts. Einsteinian Space : Non-Euclidean History refuted the prediction of Poincare that the physicists will always choose the Euclidean structure, only a few years later, when Einstein used the non-Euclidean geometry of Riemann in his general theory of relativity. Thereby Einstein obtained a considerable gain in simplicity for the total system of physics in spite of the loss in simplicity of geometry.10. This is in accordance with the consensus or opinion now, which is that geometry should be regarded as a part of physics and therefore, our system of geometry should be one in which the rest of physics can be expressed as simply as possible. 11 It was this consideration that ultimately led Einstein to the curved space of general relativity. Thus, it was only through the work of Einstein that the question of physical geometry was settled. Einstein's theory of relativity predicted the non Euclidean result which was confirmed by astrono. mical observations and thus gave a clear evidence of the fact that the universe was a four-dimensional continum of space and time, and the geometry of the space was a non-Euclidean one.12 Philosopbical Implications of Theory of Relativity Space and time as revealed by the theory of relativity have two aspects : Physical and philosophical. We have already discussed the physical aspect. Now, we shall consider the philosophical aspect. As in the case of the nature of reality, here also the physicists hold different views regarding the nature of space and time. To what exent space, time and the four-dimensional continuum of space and time represent subjective reality or objective reality is not agreed upon by all scientists. Einstein's Interpretation At one place, Einstein himself observes : "With the discovery of the theory of relativity of simultaneity, space and time were merged in Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULASI-PRĀJÑA, Dec., 1990 '13 a single continuum in the same way as the three dimensions of space had been before. Physical space was thus increased to a four-dimensional space which also included the dimension of time. The fourdimensional space of the special theory of the relativity is just as rigid and absolute as Newton's space Thus, according to Dr. Einstein, "Space and time are forms of intuition, which can no more be divorced from consciousness than can our concepts of colour, shape, or size. Space has no objective reality except as an order or arrangement of the objects we perceive in it, and time has no independent existence apart from the order of events by which we measure it."14 The philosophical implication of the theory of relativity in Einstein's view is: It must not be thought, however, that the spacetime continuum is simply a mathematical construction. The world is a space-time continuum; all reality exists both in space and in time, and the two are indivisible. All measurements of time are really measurements in space, and conversely measurements in space depend on measurements of time."15 Einstein has considered the space-time continuum to represent the objective reality. His view is: "But except on the reels of one's own consciousness, the universe, the objective world of reality, does not happen-it simply exists. It can be encompassed in its entire majesty only by a cosmic intellect. But it can also be represented symbolically, by a mathematician, as a fourdimensional space time continuum."16 We find that some scientists such as Sir James Jeans, Eddington, Weyl, Mach and Minkowski have made identical interpretations. All of them regard that when we divide the continuum into three dimensions of space and one of time, space and time sepretely become subjective realities but that when space and time are welded together to form a four dimensional continuum, through it we can get the knowledge of the objective universe. Sir James Jeans expresses this fact thus: "Yet, just because we can exhibit all nature within this framework (i.e. the four-dimensional continuum), it must correspond to some sort of an objective reality. But its division into Space and time is not objective; it is merely subjective."17 He further asserts that the main substance of the theory of relativity is that nature knows nothing about the division of continuum into space and time.18 As we have already quoted, Minkowski considers seperate space and time as mere shadows and the continuum as the objective reality. Hermann Weyl puts the thought in following words: "In the realm of physics, it is perhaps only the theory of relativity which has made it quite clear that the two essences, space and time, entering into our intuition have no place in the world constructed by mathematical 48 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XVI, No. 3 49 physics. 19 “The great advance in our knowledge described in this chapter consists in recognisiag that the scene of action of reality is not a three-dimensional Euclidean Space but rather a four-dimensional world, in which space and time are linked together indiscolubly. However deep the chasm may be that separates the intuitive nature of space from that of time in our experience, nothing of this qualitative difference enters into the objective world which physics endeavours to crystalise out of direct experience. It is a four-dimensional continuum, which is neither "time" nor "space".20 Thus, these scientists conceive space as a mere frame of reference, whose existence is just as real and just as unreal, as that of the equator, or the north pole, or the meridian of Greenwich. Reichenbach's Interpretation Some other scientists have interpreted the theory of relativity in a different way. Though they do not differ in the interpretation of physical aspect of the four-dimensional continuum of space and time, they do not accept the view that space and time exist only subjectively. Hans Reichenbach, who, in his critical work 'The Philosophy of Space and Time'-has discussed both the philosophical and physical aspects of the theory of relativity, stands prominent amongst these scientists. First of all, Reichenbach distinguishes between the mathematical space and physical space. He explains the distinction thus : “Mathematics shows a variety of possible forms of relations among which physics selects the real one by means of observations and experime Mathematics, for instance, teaches how the planets would move if the force of attraction of the sun should decrease with the second or third power of the distance; physics decides that the second power the real world........ Mathematics reveals the possible space; physics decides which among them corresponds to physical space. rast to all earlier conceptions, in particular to the philosophy of Kant. it becomes now a task of physics to determine the geometry of physical space, just as physics determines the shape of the earth or the motions of the planets, by means of observations and experiments."21 Thus, Reichenbach has clearly accepted the objective existence of physical space. Further, refuting the view of conventionalists (such as Poincare) who contended that it depended wholly upon our convention which structure is attributed to space, Reichenbach states: "From conventionalism the consequence was derived that it is impossible to make an objective statement about the geometry of physical space, and Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 TULASI-PRAJNA, Dec., 1990 that we are dealing with subjective arbitrariness only; the concept of geometry of real space was called meaningless. This is a misunderstanding. Although the statement about the geometry is based upon certain arbitrary definitions, the statement itself does not become arbitrary : once the definitions have been formulated, it is determined through objective reality alone which is the actual geometry. Let us use our previous example : although we can define the scale of temperature arbitrarily, the indication of the temperature of a physical object does not become a subjective matter. By selecting a certain scale we can stipulate a certain arbitrary number of degrees of heat for the respective body, but this indication has an objective meaning as soon as the coordinative of the scale is added. On the contrary, it is the significance of coordinative definitions to lend an objective meaning to physical measurements."22 It means : whether we regard the temperature of a certain body to be 15°C. or 59° F. depends upon our choice of measuring system, but it does not mean that the temperature of a substance is in itself dependent upon our choice; temperature remains an objeetive property of matter. In the same way, whatever system of geometry we choose, the objective characteristics of space remain unchanged. Reichenbach has considered that the formulation of spatial visualization as a developmental adaptation is itself already based on an epistemological assertion, which it merely tends to emphasize, namely, the assertion that there exists a real space independent of those spaces represented by mathematics, that it is a scientificaly meaningful question to ask which of the mathematically possible types of spaces corresponds to physical space, and that the "harmony" of nature and reason does not depend on an inner priority of Euclidean space, but that, on the contrary, the priority depends on this "harmony".23 Refuting the wrong belief of some scientists regarding the concept of time, Reichenbach writes : "Whereas the conception of space and time as a four-dimensional manifold has been very fruitful for mathematical physics, its effect in the field of epistemology has been only to confuse the issue. Calling time the fourth dimension gives it an air of mystery".24 Reichenbach believes that just as we determine any colour by the three basic colours viz. red, green and blue, by stating how much it contains of each of these three components, sɔ also the meaning of combining space and time in four dimensions is only that we can describe any event by means of four co-ordinates-three of space and one of time. He, therefore, says : "Our schematization of time as a fourth dimension, therefore does not imply any changes in the conception of time”25. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XVI, No. 3 He, further states: "We may, therefore, retain the perceptual difference between space and time without fear of contradicting the mathematical representation....The properties of time which the theory of relativity has discovered have nothing to do with its treatment as fourth dimension". 26 $1 Reichenbach is of the view that the statement of Minkowski that "from now on the ideas of space and time as independent concepts shall disappear and only a union of the two shall be retained as an independent concept", has unfortunately caused the erroneous impression that all visualizations of time as time and of space as space must disappear.27 Reichenbach has also pondered over the number of dimensions of space. Some scientists and mathematicians have conceived of space consisting of n dimensions where n may be greater than 3. But, Reichenbach has believed that objectively space can have only three dimensions. He states: "The number 3 of dimensions represents primarily a fact concerning the objective world.... We consider the parameter space merely by a mathematical tool with no objective reference, whereas we regard the three-dimensional space as the real space.28 Again, he positively asserts. "The statement that physical space has three dimensions has, therefore, the same objective character as, for instance, the statement that there are three physical states of matter, the solid, liquid, and gaseous state; it describes a fundamental fact of the objective world.",29 Thus, although Reichenbach has accepted the theory of relativity, he has maintained that the absolute space and time have objective existence. In the concluding chapter of his work on space and time, he observes: "We may, therefore, regard the following statement as the most general assertion about space-time order: everywhere and at all times there exists a space-time coordinate system. "This result implies the topological distinguish ability of space and time. In a space-time coordinate system one of the dimensions is to be considered as time and the three others as space" 30 Further, after having discussed the difference between subjectivity and objectivity, and their relation with space and time, in conclusion Reichenbach states: "The fact that an orering of all events is possible within the three dimensions of space and the one dimension of time is the most fundamental aspect of the physical theory of space and time. "The most important result of these considerations is the objectivity of the properties of spacc. The reality of space and time turns out to be the irrefutable consequence of our epistemological analyses, Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULASI-PRAJNA, Dec., 1990 which have led us through many important individual problems. "Philosophers have thus far considered an idealistic interpretation of space and time as the only possible epistemological position, because they overlooked the twofold nature of the mathematical and the physical problems of space. Mathematical space is a conceptual structure, and as such ideal. Physics has the task of coordinating one of these mathematical structures to reality. In fulfilling this task, physics makes statements about reality, and it has been our aim to free the objective core of these assertions from the subjective additions introduced through the arbitrariness in the description" 31 Thus the gist of Reichenbach's view is that he accepts the theory of relativity, and at same time he considers the assertion of objectivity of space and time the inevitable consequence of the theory of relativity. Prof. Margenau's Interpretation Eminent scientist-philosopher prof. Margenau is also amongst them who, in the philosophical interpretation of theory of relativity, have asserted the reality of space. As we have already seen, Margenau has introduced a new concept of “construct” to denote reality. With regards to space and time, he holds that time and space have a status commensurate with all the other constructs of physics.82 Also he has observed : "Let us resist the temptation to think of this new space-time as less "real". It is a construct, to be sure, but so was three-dimensional space, and so are many components of reality.... "33 About the fourth dimension of time, he says : ""The "discovery" of the fourth coordinate has no mysterious aspects and brings forth no ghosts. It is a discovery in the constructional sense just discussed". 34 He has also considered that the absolute space is a possible construct. He writes: "The advocate of absolute space bases his attitude on the simple fact that he can intuit three-dimensional space. even when it is vacant of objects. This kind of space is a possible construct, and it is absolute within the frame-work of the initial question”. 35 Further, Prof. Margenau has explained that this kind of absolute space is not adopted by the scientists only because it is not useful to them, but that it does not mean that the absolute space has ceased to exist. He clearly mentions "A strong preference has been expressed for the interpretation of space as a relational entity. It should now he emphasized that this admission reflects no prejudice upon the liv of space."936 Margenau considers spatial constructs such as point, line and surface as verifacts and hence allots them the Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XVI, No. 3 same status of reality which is attributed to reified objects encountered by us.38 Admitting the reality of space, he states: "From points lines, and surfaces, space can be constructed, and this new entity, though abstract, retains the functional alignment with Nature which has been posited as the character of reality. Physical reality is not synonymous with concreteness, as that term is ordinarily understood.39 He also confesses: "We here find ourselves in apparent contradiction with a judgement prevalent among scientists, namely, that perfectly straight lines, perfect triangles, and so forth "do not exist in nature."40 But, he also clarifies: "For it does not deny reality to the elements of geometry it merely asserts that bodies do not exist which exhibit perfectly straight lines or perfect triangles, which is true and not contrary to our conclusion. The geometric elements themselves are nevertheless real as constituents of abstract space, which is a physical reality".41 Thus, it means that even if we may not be able to perceive a perfectly straight line, it does exist between the two points of the space and the space consists of the real point. We can conclude the discussion on the philosophical interpretation of theory of relativity by saying that there does not exist an undivided opinion regarding the nature of space and time as revealed by the theory of relativity whether space and time are objective or subjective realities still haunts the minds of the scientists. 53 (C) Summary Inquisitive mind of man has persistently been endeavouring to solve the first aspect of the enigma of the universe viz. "What is the universe?" In this chapter, we have studied the views of various western philosophers starting from the ancient Greek philosophers to the modern philosophers as well as scientists from Newton to Einstein and Heisenberg. We may summarize our discussion by concluding that the dilemma of realism and idealism has not only perplexed the philosophers but also divided the scientists into several groups. The idealists consider the universe as a subjective reality, whereas the realists propound it as the objective reality. The space and time also presents a mystery. Some conceive of space as a 'plenum', whereas others believe in the possibility of 'vacuum* ; some try to prove the existence of 'absolute space'; some contend that space is an objective reality, whereas others assert that it is a subjective reality. Similar dissensions exist regarding the reality of time. In the field of science, Newton conceived of space and time as absolute and independent entities. The scientists assumed the Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULASI-PRAJÑA, Dec., 1990 existence of ether to fit in the Newtonian concepts, but later on the theory of relativity abandoned the hypothetical ether and established the existence of relative space and time. Einstein's theory of relativity brought a revolution in the field of physics. The concepts such as 'the four-dimensional continuum of space and time', 'the relatedness of space with time due to the finite velocity of light', 'the effect of motion on the dimensions of space and time', have resulted from the special theory of relativity, and those of 'curvature of space owing to the mass of material bodies', 'non-Euclidean properties space', 'equality of gravitation and inertia', etc. are the consequences of the general theory of relativity. Nevertheless, the reality of space and time remains enigmatic in the field of science. 54 References : 1. Cf. Space-Time-Matter by Herman Weyl, p. 93 2. From Euclid to Eddington, P. 34 3. It was klein who attached the now usual nomenclature to the three geometries; the geometry of Lobachevsky he called Hysperbolic, that of Riemann Elliptic, and that of Euclid Parabolic. See The Elements of Non-Euclidean Geometry, p. 20-25 4. From Euclid to Eddington, P. 35 5. The Philosophy of Space and Time, Introduction. p. VI 6. La Science et la Hypotheses, by H. Poincare. chap. V. p. 72 (English translation, pub. by Dover Publications). 7. From Euclid to Eddington, P. 35,36 8. Cf. The Philosophy of Space und Time, Introduction. p. V 10. Ibid, P. V 9. Ibid, P. VI 11. From Euclid to Eddington, p. 37 12. Cf The Universe and Dr. Einstein, p. 103 13 The world as I see it; quoted in Man and the Universe; The philosophers of science, Ed. by Saxe Commins & Rebert N. Linscott, Modern Pocket Library. New York, 1954, p. 478 14. The universe and Dr. Einstein, p. 21 16. Ibid, p. 78 18. Ibid, p. 94 20. Ibid, p. 216. 22. Ibid, p. 37 24. Ibid, p. 110 26. Ibid, p. 112 38. Ibid, p. 301 40. Ibid, p. 301 15. Ibid P. 76 17, The Mysterious Universe, p. 90 19 Space-Time-Matter, p. 3,4 21. The Philosophy of Sapce and Time P. 6 28. Ibid, p. 275 30. Ibid, p. 283 32 The Nature of Physical Reality, p. 149 34. Ibid, p. 151 36. Ibid, p. 300 37. "Valid constructs, verifects in short, are the elements of reality."-Ibid, p. 292 39. Ibid, p. 301 41. Ibid, p. 301 23. Ibid, p. 82-3 25. Ibid, p. 111 27, Ibid, p. 160 29. Ibid, p. 279 31. Ibid, p. 285-7 33. Ibid, P. 150 35. Ibid, p. 153 ☐☐☐ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE CONCEPT OF PRAMĀNA IN JAINISM: AN INTRODUCTION Narendra Kumar Dash The present paper entitled “The concept of pramāņa in jainism : an introduction" consists of two parts. The former part bears a detailed study on the definitions of pramāņa given by various jaina philosophers and the later part gives some elementary informations regarding pratyakșa and parokşa, the two pramāņas accepted by the jaina logicians. In jainism the source of valid knowledge (pramā) is technically called pramānal and pramā means right knowledge or true cognition of an object. knowledge in general (jñāna) may be true or false, but pramā is always true?. Though all most all the schools of Indian philosophy admit that pramā means valid knowledge, still they differ regarding the validity of knowledge. While the Naiyayikas regard true knowledge as true presentational knowledge tadvati tatprakara jñānams, the Bhäțţa Mimānsakas hold that truth of knowledge consists in non contradictoriness; i. e. pramå is defined as uncontradicted knowledge whose object was not known before (anadhigata“). On the other hand, the Jaina philosophers suggest that judgmental knowledge which is other than doubt, error etc. is true knowledge.5 Thus Hemacandra (12th Century A. D.), the great Jaina scholar suggests that right judgement about an object is called pramae. True knowledge (pramā) is generated through pramāna and therefore, pramāna is usually rendered as: 'Instrument of knowledge' or 'Authoritative evidences'. The Nyāyavārttika of Udyotakara defines it as : upalabdhi-hetuh pramānam? i. e. pramāna is a cause or condition of knowledge or cognition. The pramāņa is so to say the window of the mind, through which the objective world communicates its existence to us. The word pramāņa is derived from the root vmā (n) means 'to measure' DP. II, 53 along with the prefix "pra'. Then the suffix (1) yu (!)' is added here in the sense of karana and the -yu- portion of the suffix is changed to '-ana-' by p VII, 1, 1. Thus we get the • Senior Research Fellow, Dept. of Sanskrit, Visva Bharati University. Santiniketan-731235 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 TULASI-PRAJNA, Dec., 1990 word pramāna and the etimological sense of this very word suggests that this is a standard authority of right knowledge (pramā). All the systems of Indian philosophy agree with the view that pramana is the extraordinary means (sādhana) of right knowledge; but there are contradictory views regarding its characteristics. The Nyāya Bhāşya of Vātsyāyana (3rd-4th Century A. D.) suggests that pramāņa is prior to that of pramas and further he defines pramâna as the cause of apprehension objects. The Buddhists explain it as uncontradicted experience®; the Mimānsakas opine that pramāņa is a true knowledge of objects of which we have had no knowledge in the past10. The Sārkhya system of philosophy adds only a mental modification to that of Mīmānsaka's and calla it vstti or jñānal! The Jaina philosophers not only define the term pramāņa with suitable definitions; but they have refuted the views of other scholars belonging to various systems of Indian philosophy to eastablish their superiority. Thus vādideva Suri (12th. Century A. D.) in his Syadvādaratnākara explains the various definitions of pramāņa which are discussed in the other schools of Indian philosophy and finally rejects their views in a upper hand1%. The other Jaina thinker Hemacandra (12 th Century A. D.) also discusses the definitions given by other schools of philosophy and ultimately rejects those with sufficient logic.13 Akalanka, the famous ja ina logician during the last part of 7th Century A D opines that pramāņa is that which is uncontradicted and which manifests the unknown objects14. Another jaina scholar of the first half of 8th Century A D. says : knowledge which is self revealing and object-revealing and which is free from contradictions is called pramāņa viz., pramānum sva-parāvhāsi bādhāvivarjitam. 15 Māņikyanandi a follower of the great scholar Akalóka, defines the very term pramāņa by using the word '-apūrva-' in the same sense as that of Akalanka's. He says; svāpūrvārtha-vyavasāyatmakam jñānam pramānam16. Here the word sva - seems to be taken from the definition given by Siddbasena. Another jaina logician of 9th Century A. D., who prepared a learned commentary on Umasvati's Tautyârtha-sútra which is called Tattvārthe-ślokavārttika, does not support the view that the objects should be unknown and therefore, he removes the words like anachigata ','-avisamvādi-' and '-apūrva.' etc. discussed above. He simply says svārtha-vyava sāyātmokam jñānam pramāṇam17. Further, he also argues that the prepositions given by others are useless18. This opinion of vidyānandi is also Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XVI, No. 3 supported by another great logician of 12th Century A. D. i. c. Vādideva Suri19. He defines the term pramāna as knowledge which reveals itself and its objects, and which must be determinate, viz., sva-para. vyavas āyi-jñānań pramāņam20. Thus it may be concluded. that the logicians of 9th Century A. D. define the term as the determinate knowledge which reveals itself and the unknown objects. Besides, Hemacandra (12th Century A.D.) in his Pramāņamimānsā suggests that pramāna is the knowledge which possess that quality to determine truely the nature of the objects viz., samyagartha-nirnayab pramiānamai. This seems to be devoid of any error. Here the word -artha-' has been included in the sense of object and the word *samyak has the sense of judgment. Thus samyak nirnaya- means judgmental right knowledge which is apart from doubt, error etc. The definitions of pramāna, given by prominent jaina logicians if studied carefully, then we may classified those in two separate groups. The old jajna philosophers suggest that knowledge is pramāņa, which reveals itself and its objects; but Hemacandra does not support this view and he argues that knowledge is self-revealing, but it may not be identical with pramāņa. Further, he accepts that knowledge which is self-revealing includes the false ones and therefore, pramāņa may not be defined with the help of this selfrevealness. Thus Hemacandra belongs to the second group. The logic given by Hemacandra needs some discussion. If there were no knowledge, there would be no activity directed towards objects. knowledge has such type of power to lead to an acceptance or rejection of things. In other words knowledge enable us to reject the false ones and to accept the real ones. Thus pramāna itself may be knowledge. In support of our view we may refer to vādideva Suri. In his treatise he argues that pramāņa is knowledge, because it gives us an opportunity to accept the acceptables and to reject to those which should be rejected22. Thus it may be said that there is nothing which is not coming in the sphere of knowledge. II In the history of Indian philosophy we have seven different views regarding the number of pramäņas. The Cārvaka system of philosophy recognises to Perception only and argues that all other means of knowledge which are accepted by other schools have no validity. The Vaišeşikas and the Buddhists opine that there are two pramāṇas i.e. Perception and Inference. The Sāṁkhya system adds Verval Testimony to the Vaisesīkas and thus they have three pramanas. The Naiyāyikas accept four means of knowledge i.e. Perception, Inference, Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 TULASI-PRAJNA, Dec., 1990 Verval Testimony and Comparison. The Prāvākaras while recognise five pramāņas, the Bhāțțas say that there are six means of knowledge. The view of Bhāļļas is also supported by Vedāntins. The Paurāņikas, on the other hand, supersedes all the schools and they add two more pramāņas to that of Vedänta school's. 23 It may not be out of context to note that Vyomaśivācārya (71h Century A. D.) in his famous commentary called Vyomavatī argues that Vaišeşikas have three pramāṇas along with the Verbal Testimony.24 The jaina scholar Hemacandra also supports Vyomaśivācārya and says : pratyakşa-numānāgamāḥ pramāṇāni iti vaisesikäh.25 Almost all the commentators on the Vaišeşika-Sūtras, except the author of the 'Vyomavati' commentary, admit that there are only two pramäņas in the Vaiseșika system of philosophy. Prasastapāda (4th Century A.D.) himself also believes two pramāṇas, namely Perception and Inference. 26 Now it is intresting to mark the Hemacandra ignoring all other scholars of Vaišeșika school supports only to Vyomaśivācārya. It may not be argued that Hemacandra was ignorant about the Vaišeşikas, because Vādideva Suri, another Jaina logician of 12th Century A.D. suggests that the Vaišeşikas admit both the two fold and three fold division of pramāņas. 27 Thus, during the time of Hemacandra the view of Vyomaśivācārya and the view of other scholars of Vaišeşika school was popular among the scholars and we have no reason that wby Hemacandra follow the view of former's only. The Jaina Philosophers have only two pramanas, but they are unique inrespect of other systems of Indian Philosophy. They have accepted only to Pratyaksa 'clear knowledge' and Parokşa obscure knowledge. Furtber, while the all other Indian thinkers opine that Perception is the prime cause of knowledge and therefore, it is the supreme cause, the jainas simply reject this.28 The great Jaina logician of 8th Century A.D. ie. Māņikyanandi suggests that there are two pramāṇas in the Jainism and says : tadvidheti (11/1) and Pratyakşetarabhedāliti (11/2).29 Here Māņikyanandi opines that one is pratyakșa and the second is other than that, but Vādideva Suri clearly states that one is pratyakșa and the second is parokșa, viz., tad dvividham pratyakşam parokşam ceti, 30 This suggestion of Vadideva is also supported by Hemacandra. In the Pramāņamīmānsā he gives two sutra in this regard, viz , pramāṇam dvedhā (I. 1,9) and pratyakşam parokşam ca (I, 1,10).31 The word 'ca' in the sutra PM. I, 1, 10 indicates that both Pratyakşa and Parokşa have equal force and therefore, according to Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XVI, No. 3 Jains perception is not the head of other pramāṇas as accepted by other Indian Philosophers.32 Generally, all most all the Indian thinkers accept that perception is produced through sense organs;*3 but the old Jaina Philosophers suggests that the form pratyaksa is derived from akşa means 'self'; which knows all objects in space and time.34 Thus they think that the knowledge, which is derived from self is called pratyaksa and which is not derived from self is called parokşa.85 Later on the Jaina scholars like Akalanka, Prabhācındra (13th Century A.D.) argue that the knowledge produced through sense organs also called pratyakşa and they termed it as samvyavaharika pratyakşa or indriya pratyakşa. Thus the jaina Philosophers accept two kinds of pratyakşa i.e. the knowledge genarated through self is called päramärthika pratyaksa or anindriya pratyakșa and the knowledge produced by sense organs is called sāṁvyavahärika pratyakşa. Here the former one is also termed as mūkhya pratyakşa.36 Now, the opinion of Hemachandra is noteworthy. He says akşa means either self or sense organs and thus both the Mükhya pratyakşa and the sāṁvyavahärika pratyakşa accepted by him. Among these two, if we accept the ordinary sense of the word mūkhya in the former one, it may be said that the former one is superior than the later. Though the Jains accept the knowledge which is produced sense organs as pratyakşa, still the superiority is only that which produced directly in the self and the sensuous knowledge is pratyakşa in common practice or in the ordinary sense, but the real pratyakşa is the former one. Though both of them are direct knowledge, still the former one is direct in one sense and the later one is direct in another sense. It is a accepted theory that Perception generates clear knowledge and the Jains are not apart form this theory. In this connection Akalañka's opinion is noteworthy. He says : pratyakşam vişadam means what that is clear is pratyakşa. This is also supported by the other Jaina logicians like Māņikyanandi,38 Vādideva Suri39 and Hemacandra.40 Since pratyakşa is regarded as clear knowledge, parokşa, which is a separate means of valid cognition is defined as obscure knowledge as against clear knowledge and therefore, Hemacandra opines : avişadam parokşamiti. 41 Thus, in Jainism we have dual means of valid cognition and the valid cognition is also devoid of doubt, error etc. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 TULASI-PRAJNA, Dec., 1990 References: 1. Cf., pramäyäh karaṇam pramāṇam, The Nyāyamañjari, Varanasi, 1971, p. 14 2. Cf., yathārthanubhava-jñānam prama, The Nyayakusumanjali on the Sloka IV/1; Banaras, 1957, p. 450 3. Vide the Nyāyakoṣaḥ, Poona, 1978, p.551-52 4. In the Rgveda-bhāṣyopakramanika Sayana quotes from Pärthasarathi Mishra that anadhigatärthagantr pramäṇam; The Rgveda Samhitä, Vol. 1, Poona. 1933 This is also supported by Narayana in his Mänameyodayah He says: Here, as in the view of the logicians, means of valid knowledge is only the instrument of valid knowledge. But valid knowledge is the knowledge of an unknown real object, viz., pramākaraṇamevatra pramāṇam tarkapakṣavat | pramă ca'jnatatattvärtha jñānamevätra bhidyate || The Manameyodayah; Madras, 1933, p. 2 5. See the vitti of the Pramāṇamīmānsā of Hemacandra on the sutra I, 1,2 i.e. samyag-arthanirṇaya-pramāṇam. 6. Ibid. 7. See the Nyayakoṣaḥ; Poona, 1978, p. 551-52 8, Cf., upalabdhihetuḥ Pūrvam; The Nyayabhasyam on sūtra No. II, 1,11 9. Cf., Prāmāṇamavisoṇbādi jñānam; The Pramāṇavārttika-ṭīkā, 1. 3 10. Cf., anadhigātāṛthābhūtārthaniścayātmakam Pramāņam; The Śästradipikā, Banaras, 1916, p. 122 11. anadhigataviṣayāṇām vṛttau satyam budhestamo'abhinave sati yaḥ satvamudreekaḥ so'adhyavasaya iti vrttiriti jñānamiti cākhyāyate/idam tāvat pramāņam; Samkhya-tattva-kaumudi, Varanasi, 1971, p. 43 12. Cf., pramāṇamāvisaṇvādi vijñānamiti Bauddhāḥ, arthopalabdhi hetuḥ pramāṇamiti Akşapädaḥ, anadhigatärtha gantṛtvammiti Bhättäḥ, ā jñātārtha jñāpakamiti (Pramāṇasamuccaya-tikā), pramatṛvyāpāraḥ pramāṇamiti Prābhākarāḥ, aduṣṭakāraṇārabdham pramāṇam lokasammatamiti Kumarilaḥ || Vide; S.C. Nyāyācārya's article entitled "Jaina-darşanerdigdarśana" in Our Heritage, Vol. XIX, Pt. 1, 1971, p. 13 13. See the Pramāņa Mimānsā; 1939, p. 3 14. Cf., pramāṇam avisaṇbādi jñānam anadhigatādhigatalakṣaṇatvāt | Vide; the Aştasahasrï, Bombay, 1915, p. 175 15. Vide; the Pramāņa Mimänsä; 1939, p. 3 16. See the Prameykamalamārtaṇḍaḥ, 1; a commentary on the Parikşamukha of Mänikyanandi, Bombay, 1841 17. Vide; the Pramāņa Mīmānsä, 1939, p. 3 18. Cf., tadevărthavyavasāyātmakam jñānam manyeta yatha, lakṣaṇenagatārthatvāt vyarthamanyam viseṣaṇām/Vide, Above, 15 19. Cf., sva-para-vyavasāyi jñānam pṛamāņam; See the Commentary called Syadvadaratnākara on the Pramāṇanayatattväloka, Beyaver, 1942 20. Ibid. 21. The Pramāņa Mimänsä on I, 1,2; 1939 22. Cf., abhimatanabhimatavastusvikāratiraskārakṣamam hi pramāņam ato jñānameve dam; The Pramāṇanayatattväloka I, 3, Beyaver, 1939 23. Cf., pratyakṣamekam cārvākāḥ kaṇāda-sugatau punaḥ | anumanam ca taccāpi samkhyāḥ śnbdam ca te ubhe || nyayaikadesino'apyevamupamānamca kacana | arthäpatya sahaitāni catvāryāhuḥ prabhakaraḥ || The Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XVI, No. 3 a bhāvaşasthyetani bhatta vedäntinastatha / sambhayaitiyayuktāni iti pauranika jaguh // and also cf., cārvākāstāvadekam dvitayamapi punarbauddhavaiśeşiaku dau / bhåsarvajñaśca samkhyastritayamudayanadyacatuskam vadanti || prāhuḥ prabhākaraḥ pañcakamapi ca vayam te'api vedän-tavijñā / satkam paurāņikästvaştakamabhid adhire sambhavaitihya // See the Mānameyodaya of Nārāyana; Kärikā-6 24. For details see the article entitled : Jainadarśaner digdarśana (in Bengali); Our He.itage, Vol. XIX, 1961, P. 14-15 25. Ibid 26. See the Prasastapādabhāsyah. 27. See the commentary on the Pramāņapayatattvāloka called the Syädvādaratnākara, Beyaver, 1942, p. 313 28. Raghupātha Širomani in his Anumitididhiti suggests : atropajivyopajivakabhāvaḥ phalataḥ svarupatašca, pratyakşaphalasyānumityunuvyavasāyāderanumityupajivakatve' api na sarvā pratyakşamitistathā, anumitayastu sarvāḥ sāksāt paramparayå vă vyāptyādi pratyakşopajivikāḥ, puraskytaścāyamupajīvaktotkarşaḥ // This is also supported by other schools of Indian P..ilosophy. 29. See the Pariksāmukha of Manikyanandi. 30. See the Pramāṇanayatattvālañkāra; Vijayadharmasuri Granthamālā, Ujjain. 31. See the Pramāņamimänsā; 1939, Sutras I, 1, 9 and 10 32. Cf., ca kara svavişaye tulyavalastāpanārtņaḥ, tena yadāhūḥ :- Sakalapramànaiyes. tham pratyaksamiti tadapästham / Pratyakşapūrvakatvaditarapramāņānāmiti cet ? na, pratyakşasyāpi pramänäntarapurykatvopalabdheḥ, lingådāptopadeśadvā bahnyadikamavagamya pravstasya tadvişayapratyakşotpateḥ || The Pramānamjmānsā; 1939, p. 7 33. Cf., akşasya akşasya prativişayam vstti pratyakşam; The Nyāya Bhåşya on I, 1,3 34. Cf, akşnoti vyāpnoti jānāti iti akșa ātmā; The Sarvārthasiddhi, Calcutta, 1960 35. See the Tattvārthasūtra, Atmānanda Janma-satābdi smāraka Granthamālā (No, 1) Bombay 36. For details see the Nyāyakumudacandra of Prabhācandra, Bombay, 1930 and Bothra Puspa's 'The Jaina Theory of Perception', Motilal Banarasidass, 1976, p. 21-22 37. aśnute aśnoti vă vyåpnoti sakala dravyakşetrakālabhāvāt iti akşo sivah; The Pramā namīmānsă on I, 1, 10 and also cf.. aśnute visayamiti akşamindriyam ca; Ibid. 38. Cf, visadam pratyakşam; The Prameyakamalamārtaņda, Bombay, 1941 39. Cf. spaştam pratyaksam; The pramānanayatattvālokā, Beyaver, 1942 40. Cf., visadam pratyakşam; The Prámāņamīmānsă, 1939 41. See the Pramāṇamīmānsā for details. OOD Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SOME PROBLEMS OF MĀGADHI DIALECT Jagat Ram Bhattacharyya* (Continued from the previous Number) 4. The Treatment of Sanskrit kş in Māgadbi : In Māgadhi ks frequently changes to various forms as stated by the grammarians Vararuci, Hemacandra, Trivikrama, Purusottama and Rāma-Tarkavāgisa formulate different sūtras about the changing of ks in Māgadhi. In this context, vararuci says in his sutra kşasya skaḥ (XI. 8) which means that ks becoming sk e.g. dakşaḥ> daske, rākşasaḥ>laskase. Here kş becomes sk. Hemacandra and Trivikrama have not formulated any general sūtra for the same in Māgadhi; but refer to the change of ks in some words by skaḥ prekşācakşo” (4.297) which means that anly in the two cases prekșa and acakşa, the kş becomes sk., for example, prekșate> peskadi and acakşate>ācaskadi. Trivikrama has followed Hemacandra in his sūtra skaḥ prekşā cakşeh (3.2 34). Hemacandra by the sūtra kşasyakaḥ (4 296) proves that generally in all cases kş becomes k, but it must be in the non-initial position. For example, yakṣaḥ>yake and rākṣasaḥ>lakaśe. But initial ks turns to kh in general. Such as kşaya-jaladhară>khayayalahalā. Trivikrama again has followed Hemacahdra in his sūtra kșahkah (3.2.33). Puruşottama, Rāma Tarkavāgisa and Markandeya are unanimous in making the sūtras for the change of kş in Māgadhi. They have all stated that kş becomes śk in Māgadhi (Pu. XII. 6; RT. 2.2.15; Mk. XII. 4). But they have formulated the sūtra in a different way. All have said that kkh becomes śk in Māgadhi (kkhasya śkaḥ Pu. XII. 6, kkhasyodita śkaḥ RT. 2.2.15; kkhasya śkaḥ Mk. XII 4.). The reason that they have said kkh is obvious. As ks becomes kkh in Mahārāştri they have all taken that the change of kş>kkh as standard for formulating their sūtras, and that which departs from the normal procedure (i.e. Mahārāștri) are to be recorded in the dialectal features. As a result, they have not mentioned directly that kş is changed into sk. 'Lecturer in the Dept. of Prakrit, J.V.B., Ladnun. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XVI, No. 3 For example rakṣa> Mahārāștrī> rakkha>Māgādhi laśkā; pakşa> Mahārāștri pakkha>Māgadhi paśka; prakṣālayatu>pakkhāladu (Hc. 4.228)>Māgadhi Paskāladu. But here a question is raised by all these three grammarians with regard to the word kkhu șk>śk by meta-thesis. In addition to this, Mārkandeya has two more sūtras which tell us the change of ks into śk and sca. Mārkandeya in his sūtra bulug bubhuk-sayām (V.8) refers that bu of bubhukça is to be elided. Thus the form should be bhuksā, but according to Mārkaņdeya it becomes bhuskā. Here kş becomes sk, but Märkandeya does not state any general rule for the change of ks. On the other hand, in case of vrkņa, Mārkandeya says that kş of vrkņa becomes Śc and it becomes thus vāśca. Mārkandeya did not find it necessary to make a general sūtra for the change of kş in Māgadhi, probably because the general development of ks in Mahārāştrī will hold good here. Apart from these, grammarians have mentioned some words with ks and their treatment in Māgadhi. In this respect opinions differ, In some cases, in some words kş is changed into śc and śk. For example bubhukşa>bhuśkā (Mk. XII. 8); räkşuḥ>laske (RT. 2.2.15); vilakşane> vilaśkane (RT. 2.2.16), vrkṣaḥ> vasco (Mk. XII. 19). In the Lalita-vigraha-rāja-nāțaka, śk is frequently used. For example, alakşya-māna> alaśkiyyamāņa (565,7), lakṣita^>laśkidaṁ (566,4), bhikṣām>bhiskām (566,8), prekșitum> peśkidum (566;7). The change of ks into śc in the word vrkşa scems to be problematic. Of course, Puruşottama, Rāma Tarkavāgisa and Mārkandeya all agree that cch becomes śc in Māgadhi (Pu. XII.11; RT. 2.2.18; Mk. XII. 19). The basis of the change of this sound scems to be ks which becomes cch in Mahārāștri (Hc. 2.3). In prakrit, Puruşottama, Råma Tarkavāgisa and Mārkaņdeya consider the change of this cch not always based on kş as it's source. Rāma Tarkavāgisa considers gacchati as gascadi(2.2.18). But Puruşottama has a general rule cchasya Ścaḥ (XII. 11) which may pre-suppose the existence of ks in the background. But Purusottama has one interesting sūtra as vrşer vassaŚca (XII. 34). This seems to be very straightforward. Why Puruşottama considers varsati vašśadi in Māgadhi is not really very clear, because this is the normal development of the word in Māgadhi. It is probably because of this reason, the two editors D.C. Sircar and MM Ghosh in their editions of Purușottama's Prākstānụśāsana have tried to Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 TULASI-PRAJNA, Dec., 1990 emend the reading of the entire sūtra as vrkṣe (se) r-yvaśśañca (śca) (Pu. XII. 34) of D.C. Sircar vrkşervaśćaṁca (Pu XII. 34) of M.M. Ghosh's edition Though both the Scholars have emended the sūtras on the strength o fother Prakrit grammarians like Mārkandeya with regard to this particular word the emendations of Ghosh as vsser instead of vokser seems to have done on the basis of this context which describes the substitutes of some verbs in Māgadhi Previous to this sūtra is tişthate--ścițiha (Pu. XII. 33), i.e. tişthati is substituted by Ścittha. Naturally Ghosh thinks that the next word should be vrse meaning varşati instead of vrkṣe which he has given in the foot note. Sircar perbaps has joissed the context and emphasised on the change of a word which he thinks would be vrkşa, and apparently he has to correct in two places as vrše into yrkṣe and añca into Śca. Though he is quite logical in doing so and this goes on a part with other grammarians, it has involved lots of conjectures. However, the fact is that the change of ks into śc is more important than the reading of their text. Judging all these facts, we are tempted to ask whether the change of kş into sk or śc is to be the dominent feature in Māgadhi or not. The answer is given in the following manner. To discuss the development of ks in Māgadhi is a problem. In Mahārāştri, generally kş is developed into (k) kh, (c) ch or (1) jh and this development is more or less uniform in Mahārāştri and all the grammarians are more or less unanimous. And in this respect the two schools (Eastern and Western) of prakrit grammarians differ from each other, even within the same school all the grammarians do not agree. Below is given a table where the views of other grammarians recorded : vr. kş ska Hc. 1 ks ik or Tv. kş Ki. Pu. kş=kkh RT. Mk. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XVI, No. 3 65 From the table it appears that Vararuci prefers sk whereas Hemacandra has a new idea i.e. visarjaniya plus k (=phonetically X ork), whereas Puruşottama, Rāma Tarkavāgisa and Mārkandeya prefer palatal sibilant plus k (=šk). This distinction between the two schools is very apparent. As Māgadhi has only palatal $ in place of the other two (i.e. ș and s) it seems quite logical that kş is developed into a sibilant cum velar (=sk). It is possible that sibilant could be a palatal one maintaining the general character of the Māgadhi language, otherwise the characteristics of Māgadhi with regard to palatal świll be confused. That even the Western Grammarians like Hemacandra, Trivikrama and others are not unanimous with regard to the development of kş intok shows that the Western grammarians are even in doubt about it. In this respect the Māgadhi passages in the Sanskrit dramas will not help us to rectify or to correct the views of the grammarians. As the Māgadhi passages in Sanskrit dramas are very often badly edited perhaps without following any norms) the readings are, in most cases, if not all, very corrupt and cannot even be justified by following any of the Prakrit grammarians. As a result to correct the views of the grammarians with the help of the Māgadhi passages of the Sanskrit dramas will not be wise. Though some editors like Pischel have tried their best to correct the Māgadhi passages of the Sakuntalā in the sixth act, there too the text seems to be not very authentic. As Pischel has corrected the Māgadhi passages in the sixth act of the Sakuntalā with the help of Hemacandra's Prakrit grammar, he too is liable to be mistaken. As Hemacandra belongs to the Western School and Pischel's edition of Sakuntalā belongs to the Bengal recension (therefore, to the Eastern School) a text of the Eastern school should not be corrected with the help of a grammarian belonging to the Western School. Māgadhi passages in the earlier texts as in Asvaghoşa and to some extent in Bhāsa are also not very reliable owing to the fact the earliest characteristics of Māgadhi of these authors are not recorded by any Prakrit grammarians. As a result it remains a problem even till today. However, as Māgadhi is a feature of the Eastern region of India and as in the Eastern region palatal šis spoken (even till today particularly in Bengali and other neighbouring languages), it seems probable that the conjunct with sibilant in Māgadh! will also be palatal ś. Hence, following the tradition of Eastern grammarians the conjunct with sibilant is corrected with palatal ś, For example kş>śk. The same principle may also be applicable in sibilants with other plossives, Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 TULASI-PRAJNA, Dec., 1990 5. On the Change of cch in Mägadbī: On the change of-cch, grammarians prescribe śc. All the gramma. rians did not make any sūtra on this particular issue But Hc. Tv., Pu , RT., and Mk. have some sūdras on this particular issue, But their pattern of making the sūtras is different. Hc. has suggested ch becomes śc by the sūtra chasya. Śconādau (4.295), where he mentions ch as the pattern of a sūtra. Hc. is followed by Tv. whereas Pu., RT., and Mk. have formulated the sūtra where cch becomes Śc (Pu. XII, 11. RT. 2.2.18, Mk. V.7) while Pu., RT., and Mk. are very clear and categorical in formulating the sūtra where-cch-becomes Śc, Hc. is pedantic in formulating the sútra. The reason that Hc mentions only ch is not dificult to understand. In a sense Hc. means cch. As in most of the cases non-initial ch is accompanied by cch, the formation of the word automatically will be chh and because initially conjunct cch does not occur. Hc. has not naturally mentioned cch in the sūtra, so that he can distinguish between initial ch (where initial ch can occur even in Prakrit and Sanskrit), Hc. did not feel it necessary to formulate the sūtra with cch. In this connection, his pattern of formulating sūtra even in the case of Mahārāștri is also the same. For example, in the case of substitute for ks-kkh. cch or jih noninitially Hc. has formulated the sūtra as kşh khaḥ kvacit tu-cha-jhau (2.3). The simple meaning of this sūtra is kş, initially or non-initi y becomes, kh, ch and jh. If initial, then kh remains, but if noninitial, then kh, ch, jh are reduplicated i.e. becoming kkh, cch and jjh by the rule anādau seşa-deśayor-dvitvam (2. 89), it means whenever there is a question of substitution for conjunct consonant, the substitution must always be doubled in non-initial position. So initially naturally it will not be doubled. In the case of aspirates like kh, ch, jh, the doubling of the aspirate is not tolerated, as a result the first one would be de-aspirated by the sūtra dvitiya turyayo-ruparipūrvaḥ (2. 90), Hc. has followed this principle of reduplication and substitution throughout his grammar and naturally here he wants to apply the same principle. For example, in another sūtra of Māgadhi rrajo jaḥ (4.294) the substitution of j is doubled ñ, which follows from the previous sūtra ny ny jñ ñj ññh (4.293). So according to Hc. gaccha becomes gaśca whereas chāle (Skt. kşāraḥ) and not ścāle. Probably the other grammarians have wanted to make the point clearer than other grammarians and hence, they have made the sūtra cch. But in the case of initial ch which should not be śc at least according to Hc. and Tv. is not clear from the sūtras of pu., RT., and Mk. In their vịttis they have not even given any example where their rule is violated, Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XVI, No. 3 67 The fact is that the substitution of ch or cch by $ is rather historical. It is normally seen that palatal ś or sibilants in general become ch. For example śāvaka>chãa, sa>cha and saptaparņa> chatti-vanno and Hc. has made a sūtra for that ---șaț-sami-śāva-sudhasaptarne-şvādeschaḥ (1.265). This implies that sibilants, particularly palatal sibilant, has a quality of palatal ch inherent in it. Naturally when ch is again replaced by a palatal sound in Māgadhi, it is replaced by palatal $ as every sibilants ș and s is changed into palatal sibilant in Māgadhi. Naturally there is every reason to believe that ch should be replaced by palatal s in Māgadhi and c is there simple because ch is only replaced and naturally the other part i, e, cis retained. It is only a question of metathesis that comes first making it Śc. It is a fact worthnoting in this connection that IE palatal k series is also changed into palatal in Sanskrit, though k, becomes s but kh will be what ? The answer is often given as sh wbich is ultimately, though lost, is revived again in Sanskrit in Sandhi like tarucchāyā, and this perhaps is again reflected in Māgadhi as śc. Though it is not certain whether this phenomenon can be historically established, it can be said only this much that there is a direct line of investigation where the above explanation can be offered for giving a proper appriciation of the development of—(c) ch--into śc in Māgadhi. 6. On tbe Formation of ññ in Māgadhi : On the development of jñ ñj into ññ in Māgadhi, there is a problem. In Māgadhi dialect ñ ñj becomes ññ. In almost in all the good editions of Sanskrit dramas this feature is found. Though occasionally in some edition jñ ñj changes into jj, for example, in the Sakuntală in some editions the reading lajjā de padiggahe dinne is found; where lajjā in Pischel's editions is found as laññā. This is almost true in all other good editions with regard to the development of jñ ñj into ññ. But it is strange to note that the Eastern Prakrit grammarians, such as Vr., Pu, Ki., RT. and Mk. are completely silent on this particular point. They have not formulated any sutra on this phenomenon. This phenomenon is regarded as one of the very vital points of Māgadhi. Māgadhi, being a dialect belonging to the eastern region of India, it seems alarming why they have not made any sūtra on this particular point. On the contrary Hc. and Tv. being Westerners have made a sūtra on this particular point. It is not only in and ñj but also ny and ny also become ññ. The sūtra of Hc, together with Tv. is given below, nya-nya-jña-ñjām ññaḥ (Hc. 4.293) nya-nya-jña-ñjām ñar (Tv. 3.2.37) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 TULASI-PRAJNA, Dec., 1990 In Māgadhi ny, ny, jň, ñj become ññ, for example, ny>ññ, abhimanyu-kumāraḥ>ahimañnu-kumäle, (Hc , Tv.) kanyakā>kaññaā (Tv.), añña-disaṁ (Hc.), sāmānyam> śāmaññaṁ (Hc., Tv ) ny> ññ, punya vān>puññavante (Hc., Tv.), abrahmanyam> abbamha ññam (Hc., Tv.), puññāham (Hc.), puññaṁ (Hc.), ji>ăã, prajña>pañña (Tv.), paññā- visale (Hc.), savvaññe (Hc.), avaññā (Hc.), nj> ññ, añjaliņ> aññali (Hc., Tv), dhanañjayaḥ> dhaņaññae (Hc., Tv.), pātañjalaḥ> păaññale (Tv.), paññale (Hc.). Both Hc. and Ty. have further said that in the root v vraj i.e. vrajati, į becomes ññ. For example, vrajati> vaññadi (Hc. and Tv.), vaññade (Tv.) Whether, the editors of Sanskrit dramas are influenced by Hc. with regard to this problem is not easy to ascertain. Question may be raised, what is the source of Hc. for this phenomenon of Māgadhi ? The Sanskrit dramas do not always record the change of jñfijas ññ. As said above both jj and ññ are found in Sanskrit dramas. Vr. has not even this sūtra and other prakrit grammarians like pu., KI, RT. and Mk. are later than Hc. As a result the question of influence by later grammarians does not arise. He was not either influenced by Vr., because Vr. has not got such sūtra for Māgadhi. So how could Hc. get this (ññ) as a character of Māgadhi ? The development of jñ ñj in prakritis manifold. Hc. in his prakrit grammar bas given them in different contexts. These are given below. jño ñatve' bhijñādau (Hc. 1.56) The a of words beginning with abhijña and others become u, for example, abhijñaḥ> ahiņņā, sarvajñaḥ> savvaạnú, krtajñaḥ>kayannü, āgamajñaḥ>āgamanņū etc. Here jñ is changed into nn. In some cases jñ becomes nn. And also mn becomes ạn. This is said by Hc. in his sūtra mnajñor naḥ (2. 42), for example, nimnaṁ> niņņam, pradyumnaḥ>pajjuņņo, jñānaṁ>ņāņu, samjñā> sannā, prajñā>paņņā, vijñānaṁ> viņņāņaṁ. In some cases of jñ ñj, ñ is just elided leaving behind only j, which is assimilated medially, for example, jñānam>jānań, also ņāņam, sarvajñaḥ>savvajjo, also savvaņņi, aimajñaḥ>appajjo, also appaņņū, daivajñaḥ> daivujjo, also daivannū etc. Not only iñ ñj becomes nn but also ny becomes nn and ñj for Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XVI, No. 3 69 which Hc. has a sūtra abhimanyau-ja-njau-vā (Hc. 2.25). In the word abhimanyu, ny has developed into nn or nn or it or ñj, for example ahimajju, ahimañju, ahimannu. In another sūtra where the word manyu, without any preposition occurs, Hc. has suggested different formation, for example, manyu apart from mannu, Hc. has mantu. The form mantu may be a contamination for past-participial form with man coming from the suffix matup/vatup. Incidentally, we may mention that the root v jñā becomes jāņa or nāna by the sūtra jňo jāņa-munau (4.7). All these developments of nj, fr, ny, ny, etc. in Mahārāştrí is also corroborated by eastern prakrit grammarians for Mahārāştri. It is therefore quite possible to think why the eastern prakrit grammari. ans have not made any sutras for Māgadhi. It can be asked at the same time why and how Hc. has got a clue to insert this phenomenon in the Māgadhi chapter of his prakrit grammar. It is to be noted that in the earliest specimen of Māgadhi dialect, that is, in the Dhauli version of Asokan Inscription, the form patiññā occurs. The palatal ñ occurs only in this example, whereas in its Jaugada version the same word occurs with nā. This fact is noticed by Hultzsch in bis Inscription of Asoka at page c (introduction) as follows : "The palatal pasal ñ occurs only in patimña (Dhau. Sep. II, 6), instead of which the Jaugada text reads pasiṁnā. It is replaced by dental n also ānapayāmi, à [na] p [ayl is [a] ti, nätisu”. Even in conjunct with jn, the development is in jin as in läjinä, lajine. Hultzsch has given the example patimñā for Dhauli version whose Jaugada version is pațiññā as doubtful, because in other forms where fõ occurs as in Sanskrit jñātişu Dhauli nätisu, so also anapayāmi for Sanskrit ajñāpayāmi, the ñ does not occur, (see Hultzsch ibid p. cii). However, this usage indicates the formation of ñ ñ from jññj is not very old. Infact even in modern IA language, particularly in the Māgadhi region, ñ from sanskrit jñ did not develop in the NIA languages in the eastern region. The inclusion of Hc. as one of the Māgadhi characters has very little support either from usage or from grammatical treatises. From above discussions, it appears that Hc. might have got this idea from pāli, where jñ ñj or even ny, develops into ññ, for example Sanskrit prajñā>pāli paññã, Sanskrit jñāti>pali &ati, and so on. As pāli was orginally considered a Māgadhi dialect (sā māgadhi müla bhāsā etc.), Hc. was perhaps guided with this idea that in Māgadhi ñiñi occurs in place of Sanskrit jñ/bj ny etc. This then is the Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULASI-PRAJÑĀ, Dec., 1990 reason why incourse of time in the manuscripts this phenomenon (ññ) has become one of the vital characteristic features of Magadhi. (To Continue) DO 70 References: 1. Ed. by Kielhorm, Nachrichten von der Konigl. Gesellschaft der Wissenschaften zu Gottingen, 1893, p. 552 ff.; see also R. Pischel, Grammatik der Prakrit Sprachen, Strassburg, 1900 302 ff. 2. In his edition of Sakuntala, Kiel, 1877, 2nd edn. published from H.O.S., bridge, Mass. 1922. साहित्य सत्कार जैन संस्कृत महाकाव्य : लेखक- डॉ० सत्यव्रत, प्रकाशक- जैन विश्व भारती, लाडनूं (नागौर), राजस्थान, प्रकाशन वर्ष - १६८६, पृष्ठ संख्या ५१०, मूल्य - १५०-०० रुपये । Cam " जैन संस्कृत महाकाव्य" नामक प्रस्तुत ग्रन्थ श्रेण्य संस्कृत साहित्य की समीक्ष- यात्रा का विशिष्ट मील पत्थर है । समीक्ष्य ग्रन्थ की एक आकर्षक विशेषता यह है कि इसमें लेखक ने संस्कृत के जैन ऐतिहासिक महाकाव्यों की समीक्षा के लिए एक स्वतन्त्र अध्याय ही सुरक्षित किया है, जिसके लगभग १०७ पृष्ठों में ऐतिहासिक जैन संस्कृत महाकव्यों का परिशीलन प्रस्तुत किया है । यह सामग्री सार्वजनीन हो जाने के कारण अब इतिहासकारों को उत्तर मध्यकालीन भारतीय विविध पक्षीय इतिहास के लेखन के लिए एक ही साथ प्रामाणिक सामग्री मिल सकेगी । लेखक ने प्रस्तुत ग्रन्थ को ५ अध्यायों में विभक्त किया है । प्रथम अध्याय उत्थानिक स्वरूप आलोच्य महाकाव्यों की प्रवृत्तियों एवं विशेषताओं पर प्रकाश डालकर आगे के अध्यायों में क्रमशः शास्त्रीय महाकाव्य, शास्त्र - काव्य, ऐतिहासिक महाकाव्य एवं पौराणिक महाकाव्यों की विस्तृत समीक्षा कर उपसंहार में अपने अध्ययन के निष्कर्ष प्रस्तुत किये हैं । 'वर्ण्य विषय का प्रस्तुतिकरण वैज्ञानिक, भाषा-शैली रोचक, मुद्रण शुद्ध एवं नयनाभिराम तथा कवर पृष्ठ आकर्षक है । ऐसे ग्रन्थों की उपादेयता स्वयं सिद्ध है । लेखक एवं प्रकाशक दोनों ही बधाई के पात्र हैं । डॉ० राजाराम जैन, अध्यक्ष, संस्कृत एवं प्राकृत विभाग, एच. डी. जैन कॉलेज, आरा (बिहार) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : Postal Department : NUR--08 Registration Nos. Registrar of Newspapers for India : 28340/75 Vol. XVI, No. 3 TULASI-PRAJNA December, 1990 जैन विश्व भारती, लाडनूं महत्त्वपूर्ण प्रकाशन वाचना प्रमुख : प्राचार्यश्री तुलसी, विवेचक तथा सम्पादक : युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ प्रागम ग्रंथ: 1. अंगसुत्ताणि 1 (आयारो, सूयगडो, ठाणं, समवायो) 85.00 2. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई : विवाहपण्णत्ती) 60.00 3. अंगसुत्ताणि 3 (णायाधम्मकहानो, उवासगदसामो, अंतगडदसायो, अणुत्तरोववाइयदसाओ, पण्हावागरणाइ, विवागसूयं) 80.00 4. नवसुत्ताणि (आवस्सयं, दसवेआलियं, उत्तरज्झयणाणि, नंदी, अणुओगदाराई, दसाओ, कप्पो, ववहारो, निसीहज्झयणं) पृ० 1300 250.00 5. उवंगसुत्ताणि, खण्ड 1 (ओवाइयं, रायपसेणियं, जीवाजीवाभिगमे) 200.00 6. उवंगसुत्ताणि, खण्ड 2 250.00 7. भगवती-जोड़, भाग-१ 130.00 8. भगवती-जोड़, भाग-२ 170.00 6. दसवेआलियं (द्वितीय संस्करण) पृष्ठ 612 साइज डिमाई 1/4 125.00 10. ठाणं पृष्ठ 1200, 170.00 11. पायारो-मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद तथा टिप्पण 50.00 12. समवाओ (द्वादशांगी का चतुर्थ अंग) पृष्ठ 468 साइज डिमाई 1/4 150.00 13. सूयगडो-१ (द्वादशांगी का द्वितीय अंग) पृष्ठ 700, साइज डिमाई 1/4 200.00 14. सूयगडो-२ 150.00 15. आगम शब्दकोश (अंगसुत्ताणि शब्दसूची) खण्ड 1, भाग 1 (नेट) 20.00 16. देशी शब्दकोश, (लगभग 14000 देशी शब्द सहित), पृ० 638 100-00 17. निरुक्त कोश, सम्पादक : साध्वी सिद्धप्रज्ञा एवं साध्वी निर्वाणश्री 60-00 18. एकार्थक कोश, सम्पादक : समणी कुसुमप्रज्ञा 70-00 आगमेतर ग्रंथ 8. Illuminator of Jaina Tenets -- Acharya Tulsi 150.00 __Eng. Trans.-Dr. N.M. Tatia and Muni Mahendra Kumar 2. भगवान् महावीर—प्राचार्य तुलसी 3. श्रमण महावीर-युवाचार्य महाप्रज्ञ 30.00 4. 50 Years of Selfless Dedication 15.00 5. जैन धर्म के प्रभावक आचार्य-साध्वी संघमित्रा 6. पाइअ संगहो, संकलनकर्ता : मुनि विमलकुमार 20-00 7. तुलसी मञ्जरी (प्राकृत व्याकरण), : युवाचार्य महाप्रज्ञ, 50-00 -: प्राप्ति-स्थान :Jain Vishva Bharati, Ladnun (Raj.) 341306 प्रकाशक-मुद्रक : रामस्वरूप गर्ग, संयोजक, प्रेस-पत्र-प्रचार-प्रकाशन, जैन विश्व भारती, लाडनूं, द्वारा जैन विश्व भारती प्रेस, लाडनूं में मुद्रित / 0 0 0 00000 0 0 0 0.99 0 0 5.00 50.00 ,