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________________ अहिंसा तत्व में से "अ" और अपरिग्रह रूप तत्व एक ही सिक्के के दो पहलू सिद्ध होते हैं । जैसे- हिंसा कार्य है, उसका कारण परिग्रह है उसी प्रकार अहिंसा निष्पत्ति है तथा अपरिग्रह पृष्ठभूमि में रहता है । तत्व दो, परिभाषा एक अहिंसा और अपरिग्रह का अर्थ है-अप्रमाद । हिसा और परिग्रह का अर्थ है-. प्रमाद । इस शब्द का जैन दर्शन में विशेष प्रयोजन से प्रयोग किया जाता है। प्रमाद का तात्पर्य राग-द्वेष युक्त प्रवृत्ति से है । इस प्रवृत्ति में सदैव भय बना रहता है। जैसा कि आचारांग में उल्लेख मिलता है---आरंभजीवी उ भयाणुपस्सी । हिंसक व्यक्ति भय का दर्शन करता है। भगवान् महावीर ने यह भी कहा----सव्वतो पमत्तस्स भयं" और सव्वतो अप्पमत्तस्स नत्थि भयं । प्रमत्त व्यक्ति को सब ओर से भय है तथा अप्रमत्त को किसी ओर से भय नहीं सताता । व्यक्ति भय से बचने के लिए ही हिंसा करता है । जब अभय बन जाता है तब हिंसा की जरूरत ही नहीं रहती । विधेयभाव में अभय की साधना वही कर सकेगा जो अहिंसक, अपरिग्रही दोनों होगा। अभय का ही पर्याय अप्रमाद दोनों तत्वों का आधार बिंदु बनता है। महावीर की साधना का सार एक शब्द में प्रस्तुत किया जा सकता है, वह है-जागरूकता (अप्रमाद की साधना)। इसी माध्यम से महावीर उच्चतम कोटि के अहिंसक व अपरिग्रही एक साथ कहलाए। यह कथन तर्कसंगत भी है । आभ्यन्तर प्रमाद (भूर्णी) हिंसा और परिग्रह का निमित्त बनता है तथा अप्रमाद अहिंसा और अपरिग्रह का साधन बनता है । साधना की दृष्टि से भी दोनों का साथ-साथ विकास होगा। अतः दोनों में परिभाषा की एकरूपता भी घनिष्ट सम्बन्ध को बतलाती है । इसी प्रसंगवश संदर्भ में युवाचार्य' भी यही लिखते हैं कि अहिंसा की लम्बी-चौड़ी परिभाषा नहीं । जब आदमी अपने प्रति जागता है तब ममत्व का धागा टता है, अहिंसा का विकास होता है । जब आदमी अपने प्रति सोने लगता है तब ममत्व का धागा फैलता है, हिंसा बढ़ जाती है । व्यक्तिपरक दृष्टिकोण अध्यात्म प्रधान भारतीय संस्कृति में अनेक महापुरुषों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । यथा-भगवान् महावीर, गौतम बुद्ध, महर्षि दधीचि तथा महात्मा गांधी, आचार्य भिक्षु आदि महान् विभूतियां थीं । इन सभी व्यक्तियों में दोनों तत्वों का युगपत् दर्शन विकास देखा जा सकता है । भगवान् महावीर को निग्रंथ इसीलिए कहा जाता है कि उन्होंने परिग्रह के नाम पर तन पर रखे वस्त्र को त्यागने के साथ-साथ शरीर तक का व्युत्सर्ग करने के लिए कठोरतम कष्टों को सहन किया । उपर्युक्त विवेचन से यह तथ्य सत्यापित हो जाता है कि बिना अपरिग्रही बने अहिंसा असंभव और बिना अहिंसा भाव के अपरिग्रही होना असंभव है। आज के जन-जीवन में विसंगत व्यवहार व्याप्त है। एक ओर व्यक्ति असीम वैयक्तिक स्वामित्व की मनोवत्ति से अभिप्ररित होकर श्रमिकों के श्रम से अनुचित लाभ उठाता है। ऐसा करके वह बंधुआ मजदूर के रूप में पुरानी दास-प्रथा का नया संस्करण तैयार कर तुलसी प्रशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524564
Book TitleTulsi Prajna 1990 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangal Prakash Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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