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________________ इन्हें कच्वा खाने का निषेध तो है पर पकाकर, तलकर (निर्जीवकरण, अचित्त) खाने का निषेध नहीं है । रोगी को स्वस्थ होने के लिये डॉक्टर आलू खाने का निर्देश देते हैं। लू लगने से बचने के लिये महिलायें अभी भी यात्रा के समय गांठ में कुछ पैसों के साथ प्याज की गांठ बांधती हैं । लहसुन तो रक्तचाप, गैस आदि अनेक बीमारियां दूर करता है । उसके सत्व से निर्मित बिस्किटें आज बाजार में खूब मिलती हैं । हल्दी की उपयोगिता प्रसवोत्तरा महिला से पूछिये । - जीव की संरचना के कोशिकीय संघटन के आधार पर वनस्पतियों का प्रत्येक और अनंत कायिक रूप में वर्गीकरण अब एक ऐतिहासिक तथ्य है । दोनों प्रकार के वनस्पति बहकोशिकीय पाये गये हैं और प्रत्येक जीव अपने विकास के समय नितनयी सजीव कोशिकायें बनाता और नष्ट करता रहता है । यही नहीं, शास्त्रीय परिभाषानुसार गन्ना आदि की अनंतकायिकता स्वयं आपतित है जिसके प्रत्येक पर्व से पृथक्-पृथक् इक्षु-वृक्ष उत्पन्न होते हैं। इसकी तो भक्ष्यता ही प्रचलित है। इसी प्रकार बहुबीजक भी अनंतकायिक ही माने जाएंगें । इन की अलग कोटि क्यों बनाई गई, यह अन्वेषणीय है। शरीर के स्वास्थ्य की अनुकूलता एवं विशिष्ट आहार-घटकों की पूर्ति के आधार पर भक्ष्याभक्ष्यता को निरूपित करने से अनेक सैद्धान्तिक समस्याएं स्वयमेव समाधान पा जाएंगी। उदाहरणार्थ-धुइयां सामान्यतः दुष्पाच्य है, अतः प्रायः लोग इसे नहीं लेते। प्याज एवं लहसुन के विषब में विचार करने की आवश्यकता है । अनेक लोग इनकी गंध के कारण इन्हें नहीं खाते । तामसिकता उत्पन्न करने की बात कहकर लोकरुचिविरुद्धता के कारण लोग इन्हें नहीं खाते । यह संभव है कि इन्हें आहार का चावल-दाल के समान बहुमात्रिक घटक मानने पर यह सत्य हो, पर अल्पमात्रिक घटक (मसाले, चटनी के समान) के रूप में इन्हें लेने पर यह दुर्गुण उत्पन्न नहीं करता और रोगप्रतिकार क्षमता बढ़ती है । ये नियमित औषध का काम कर शरीर तंत्र की सक्रियता को जीवन्त बनाये रखते हैं । आचार्य जैन ने इस संबंध में धर्म एवं स्वास्थ्य की मान्यताओं के इस अन्योन्य विरोध पर किंचित् विचार किया है । फलतः इस कोटि के पदार्थों को अभक्ष्यता की कोटि में सम्मिलित करने में कोई आचार-गत पवित्रता का उद्वेश्य प्राप्त होता हो, ऐसा नहीं लगता । इनका उपयोग न करने वाले लोगों में भी वे सभी गुणावगुण पाये जाते हैं जो अन्यों में होते हैं। कभी-कभी तो इनके अवगुणों की तीक्ष्णता परेशान कर देती है। अभी एक प्रमुख मासिक में एक डाक्टर से शाकाहार के संबंध में प्रचलित कुछ लोकोक्तियों की वैधता की बात पूछी गई, तो उन्होंने इसे स्पष्ट रूप से अमान्य किया । संभवतः उनका आशय था कि लोकोक्तियां देश-काल-सापेक्ष धारणाओं पर चल पड़ती हैं। आज के विस्तारवान् विश्व के युग में उनकी व्यापकता का मूल्यांकन किये बिना उन्हें सार्वत्रिकता का रूप कैसे दिया जा सकता है ? क्या हम संत ईसा, मूसा या जरथुस्त के योगदानों को नकार सकते हैं ? ललवानी ने सही प्रश्न किया है-जो वस्तु हिंसा से उत्पन्न होती है, उसका उपयोग या उपभोग कर हम हिंसा से किसी हालत में नहीं बच सकते । जब कृत, कारित और अनुमोदन का सिद्धान्त हमारे यहां प्रचलित है, तब हिंसा से उत्पन्न द्रव्य को उपयोग में लेना हिंसा कैसे नहीं है ? सचित्त को अचित्त बनाने में भी तो जीवघात होता तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524564
Book TitleTulsi Prajna 1990 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangal Prakash Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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