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________________ समतामूलक दृष्टिकोण जैनागमों में कहा गया है कि अहिंसा और अपरिग्रह का मूलाधार एक है। वह हैसमता । अहिंसा के संदर्भ में समता से तात्पर्य है-मन व धन और काम से किसी भी प्राणी को क्षति न पहुंचाएं। आक्रमण तथा प्रत्याक्रमण की नीति का त्याग करना। अस्तित्व की दृष्टि से सभी आत्मा एक है जैसा कि ठाणं में उल्लेख मिलता है । वहां पाठ है"एगे आया" जब आत्मा एक है तब कौन किसको दुःखी बना सकता है। एक का दुःख सब पर प्रभाव डालेगा। अतः शांत सहवास के लिए इस सूत्र का पालन जरूरी है। अनुभूति की दृष्टि से देखें तो भी सुख-दुःख सबको समान रूप से अनुभव में आते हैं। संवेदन का अनुभव जितना चींटी को होगा उतना ही विशालकाय हाथी को। इसीलिए सब आत्मा को अपने समान समझा जाए । इस एकात्मकता की अनुभूति के लिए आचारांग का यह सूत्र "आया तुला पयासु'' आलम्बन सूत्र बन सकता है। मनोवैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर सभी जीवों की समानता सिद्ध होती है। प्रत्येक प्राणी जीना चाहता है। उसे सुख प्रिय तथा दुःख अप्रिय है। इसी मनोवृत्ति का आचारांग में वर्णन किया गया है--- “सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्खपडिकला अप्पियवहा पियजीविणो जीविउकामा । सव्वेसि जीवियं पियं" । सभी प्राणियों को सात वेदनीय अनुकूल तथा असातवेदनीय स्थिति प्रतिकूल लगती है। सभी को जीवन प्रिय है। इसीलिए अहिंसा और अपरिग्रह के रूप में समता का व्यावहारिक प्रयोग करके ही सभी जीवों को प्राणदान तथा अभयदान दिया जा सकता है। जैन मुनि का पूरा जीवन समता का अखंड प्रयोग होता है । आयारो' में कहा गया है-"पंतं लू हं सेवंति वीरा समत्तदंसिणो।" यह सूत्र आहार की आसक्ति से मुक्त साधु के संदर्भ में कहा गया है कि वह कैसा भोजन करता हुआ सम रहता है। लेकिन समत्वदर्शी विशेषण से यह प्रतिध्वनित होता है कि वह गरीब से गरीब व्यक्ति को अपने समान समझता हुआ प्राप्त (अवशिष्ट) तथा रूक्ष (रसहीन) आहार ग्रहण करता है । किसी भी जीव को हीन या अतिरिक्त नहीं मानता । वह अपनी भावना को आत्मा—इस सूत्र “णो हीणे णो अइरित्ते" की भावना से भावित करता रहता है । इससे अहंकार रूप परिग्रह को पुष्ट होने का अवसर नहीं मिलता तथा हिंसा में प्रवृत्ति नहीं होती है। ____ अपरिग्रह के संदर्भ में समता का अर्थ है-लाभ-हानि में सम रहना । आयारो" में इसे व्यक्त किया गया है कि "लाभो त्ति न मज्जेज्जा" तथा अलाभो त्ति ण सोयए" (इष्ट वस्तु का) लाभ होने पर मद न करे तथा (इष्ट वस्तु का) लाभ न होने पर शोक न करें। आज अधिकतर बीमारियों का कारण मनःस्थिति का असंतुलन है । सामाजिक व आर्थिक स्तर पर अपने से निर्बल लोगों के साथ असमानतापूर्वक व्यवहार किया जाता है । श्रम का अवमूल्यन हो रहा है । तिरस्कार किया जाता है। शोषण बढ़ता जाता है । निरीह पशुओं पर अतिरिक्त भार लादा जाता है। इन सब स्थितियों का प्रमुख कारण आत्मा की समानता के सिद्धांत की विस्मृति है। समाज की दृष्टि से अपरिग्रह का समता पर आधृत रूप व्यावहारिक होगा यदि न्यूनतम आवश्यकताओं की समानस्तरीय पूर्ति हो । आर्थिक समानता को लाया जाए ताकि सबका साथ-साथ योग्यता तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524564
Book TitleTulsi Prajna 1990 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangal Prakash Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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