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________________ नुसार विकास हो सके। आर्ष वाणी में भी शाश्वत धर्म की चर्चा में जीवन के शाश्वत मूल्यों का ही विश्लेषण किया गया है। परिणामतः अपरिग्रह परमो धर्मः की स्थापना होती है। आयारो' में वर्णित गुरु-शिष्य संवाद की कुछ पंक्तियां इसी प्रसंग की पुष्टि करती हैं । वे हैं-परूवेंति-सव्वे पाणा सम्वे भूता सव्वे जीवा सव्वे सत्ता ण हंतव्वा, ण अज्जावेयव्वा ण परिवेतव्वा, ण परितावेयव्वा, ण उद्दवेयन्वा । भगवान् महावीर शाश्वत धर्म की प्ररूपणा करते हुए कहते हैं-किसी भी प्राणी-भूत, जीव तथा सत्व का हनन नहीं करना चाहिए, उन पर शासन नहीं करना चाहिए, उनको अपना दास नहीं बनाना चाहिए तथा उनका प्राण वियोजन नहीं करना चाहिए। प्रश्न उठ सकता है कि क्यों नहीं करना चाहिए ? इसका सुन्दर व स्थाई समाधान पुनश्च आचारांग' की ही भाषा में दिया गया है । वह है तुमंसि नाम सच्चेव जं 'हंतव्वं' ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं 'अज्जावेयव्वं' ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जंपरितावेयव्वं' ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं परिघेतव्वं' ति मन्नसि । तुमंसि नाम सच्चेव जं 'उद्दव यव्वं' ति मन्नसि । जिसे तू हनन योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू आज्ञा में रखना चाहता है, वह तू ही है । जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू दास बनाने योग्य मानता है, वह तू ही है । जिसे तू मारने योग्य समझता है, वह तू ही है। यह एक ऐसा शाश्वत तथा सर्वव्यापी सिद्धांत है जिसको ध्यान में रखकर स्वस्थ समाज का आसानी से निर्माण किया जा सकता है । उपर्युक्त विश्लेषण से हमने पाया कि समता, अहिंसा और अपरिग्रह के बीच सेतुबंध है। समतामूलक दृष्टि से दोनों तत्वों की युगपत् प्रतिष्ठा होगी । एक व्यक्ति अथवा समाज यह कहे कि हमारा हिंसा में विश्वास नहीं लेकिन शोषण किया जा सकता है अथवा शोषण नहीं, प्राणों का हनन किया जा सकता है तो इसमें समता नीचे से खिसक जाती है । अतः समता के संदर्भ में दोनों का विवेचन परस्पर एकरूपता को सिद्ध करता है । अहिंसा और अपरिग्रह एक हैं। दोनों का सहअस्तित्व रहेगा तथा इनमें अविनाभावी सम्बन्ध है। संदर्भ: १. आयारो, ३।३० ७. आयारो २. वही, ३१७५ ८. वही, २।६३-६४ ३. अहिंसा के अछूते पहलू, पृ० १४ ६. वही, २।१६४ ४. वही, पृ० ७७ १०. वही, २१११४-११५ ५. वही, पृ०७७ ११. वही, ४११ ६. ठाणं सूत्र १२. वही, ५॥१०१ OD बम १६, बंक ३ (दिस०, ६.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524564
Book TitleTulsi Prajna 1990 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangal Prakash Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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