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________________ 'शतअष्टोत्तरी' में जीव के सिद्धत्व अवस्था प्राप्त कर लेने का उल्लेख है। जीव अपनी विशुद्ध स्वाभाविक दशा में पहुंचकर परमात्मा हो जाता है। जीव कर्मों के आवरण से मुक्त होते ही सांसारिक दशा से मुक्त होकर अपनी शाश्वत एवं सिद्धत्व अवस्था प्राप्त कर लेता है तथा विश्व का ज्ञाता और द्रष्टा हो जाता है। ___ यह स्थिति उसी समय सम्भव है, जब मनुष्य परसंगति का परित्याग कर राग, द्वेष, मोह, मिथ्यात्व का परिहार कर दे।' आत्म स्वरूप के विपरीत पर-प्रीति उसे नरकोन्मुख करने वाली है। अपने स्वभाव को भूल जाना ही उसके जगत् परिभ्रमण का, अनेक योनियों में भटकने का कारण है। रत्नत्रय (सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र) का पालन तथा अपने मूल स्वरूप के परिज्ञान से मनुष्य को शुद्ध बुद्धत्व प्राप्त होता है । आत्मा ही उसका देव और गुरू है। जीव निर्जरा अवस्था के पश्चात् परमात्मा पद पर प्रतिष्ठित हो जाता है । ऐसी स्थिति में सेवक और स्वामी का भेद मिट जाता है। वह स्वयं ही सेवक है और स्वयं ही स्वामी है।" __सारांश यह है कि जैन काव्यों में स्थान-स्थान पर जीव तत्व विविध रूपों में उभर कर प्रत्यक्ष हुआ है। इसके अतिरिक्त जीव के साथ अजीव तत्व भी उल्लेखनीय अजीव: अजीव चैतन्य शून्य द्रव्य है। पार्श्वपुराण के रचयिता ने अजीव तत्व का उल्लेख करते हुए जीव तत्व को चेतनायुक्त एवं अजीव तत्व को जड़ कहा है।' आत्रवः कर्म पुद्गलों का जीव की ओर अग्रसर होना आस्रव है। 'पार्श्वपुराण' में इस अवस्था का प्रतिपादन किया गया है। जबतक कर्मास्रव की धारा और बन्ध-परम्परा गतिशील रहती है, तब तक जीव का संसार परिभ्रमण समाप्त नहीं होता। 'सीता चरित्र' में भी आस्रव अवस्था का उल्लेख है। इस अवस्था में अज्ञान के कारण मनुष्य कान होते हुए भी नहीं सुनता, नेत्र होते हुए उसे दिखाई नहीं देता, उसका हृदय विवेक और बुद्धि से शून्य होता है, वह उन्मादवश कर्म की ओर प्रेरित होता है । बन्धः दो पदार्थों के विशिष्ट सम्बन्ध को बंध कहते हैं। जैन दर्शन में आत्मा के साथ कर्मों का बंधना ही 'बन्ध' कहलाता है । 'पावपुराण' में कवि ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि यदि एक बार आत्मा कर्म-शृंखला से मुक्त हो गया है, तो वह पुनः कर्मबंध में नहीं बंधता। 'शतअष्टोत्तरी' में भी कवि ने बन्ध तत्व का विवेचन किया है। कवि के अनुसार आत्मा से आबद्ध कर्मों के कारण मनुष्य स्वर्गीय सुखों का उपभोग करता है या इसके विपरीत एक-एक कण के लिए कष्ट उठाता है । संवर : आत्मा की ओर अग्रसर कर्म-परमाणुओं को रोकना संवर है। इससे आत्मा के तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524564
Book TitleTulsi Prajna 1990 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangal Prakash Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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