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निष्क्रिय रहता है। यह दशा आत्मा के स्वाभाविक गुणों की आवृत्ति से भी सम्बद्ध है। इस अवस्था में आत्मा के परिणाम का अर्थ है-अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान एवं अनन्तवीर्य रूप आत्म गुणों की आवृत्ति होते रहना । इस तरह द्रव्य होने के कारण सिद्ध जीव में भी व्यय-उत्पाद-नित्यता होती है। मुक्तावस्था में जीव में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के अनेक रूप कहे जा सकते हैं । इच्छारहित वृत्ति से मुक्त जीवों का ज्ञान भी परिवर्तित होता रहता है । इसी प्रकार संसार पर्याप का नाश, सिद्ध परिणाम की उत्पत्ति एवं शुद्ध जीवत्वरूप पैसे नित्यता होती है । सिद्धों में ज्ञान या चैतन्य गुण का अभाव नहीं होता। संसारी जीवों के समान समस्त मुक्तात्मा अपने आप में स्वतन्त्र है। अपने-अपने स्वतन्त्र अस्तित्व के साथ सभी सिद्ध जीव बिना किसी विरोध के सिद्धशिला में रहते हैं। इस अवस्था में जीवों में कोई भी गति, वेद (लिंग), चरित्र, अचरित्र, शरीर एवं क्रिया नहीं होती । न इनमें किसी तरह का स्वरूपगत वैषम्य ही होता है।
अन्य दार्शनिकों ने भी अपने-अपने सिद्धान्तों के अनुसार जीव की मोक्षदशा को व्याख्यायित किया है। निर्वाणावस्था के विषय में सभी बौद्ध सम्प्रदायों के विभिन्न मत हैं। सामान्यतः सभी वैभाषिक बौद्ध मोक्षावस्था को अभावात्मक और सत्तात्मक मानते हैं । तिब्बतीय परम्परा के अनुसार प्राचीन समय में कुछ वैभाषिक इस स्थिति में क्लेशोत्पादक संस्कारों के द्वारा प्रभावित होने वाली चेतना का सर्वथा निरोध स्वीकार करते थे अर्थात् निर्वाण दशा में क्लेशोत्पादक संस्कारों से प्रभावित न होने वाली कोई चेतना अवश्य रहती थी। सौत्रान्तिकों का कहना है कि इस अवस्था में चरम शान्ति में डूबी चेतना रहती है। इसके विपरीत तिब्बतीय परम्परा से पता चलता है कि कुछ सौत्रान्तिक निर्वाणावस्था में चेतना का अभाव मानते थे। चेतना की स्थिति एवं अभाव सम्बन्धी इन मतों के अतिरिक्त हीनयान बौद्ध सम्प्रदाय में यह दशा दुःखाभावरूप और लोकोत्तर है । इस दशा की कल्पना की जा सकती है। इस स्थिति में सुख-दुःख जैसी कोई अनुभूति भी नहीं रहती है । महायानियों (योगाचार और माध्यमिक) ने मोक्षावस्था को अनिर्वचनीय सुखरूप, (जीव की) सर्वज्ञता से युक्त एवं लोकोत्तरतम माना है।" संक्षेप में दोनों बौद्ध सम्प्रदाय निर्वाण दशा में व्यक्तित्व का निरोध स्वीकार करते हैं । जैसे-जलती हुई आग बुझाने पर नहीं दिखायी देती है, उसी प्रकार निर्वाण प्राप्ति के बाद व्यक्ति भी नहीं दिखायी देता । अश्वघोष ने इस विषय में दीपक का उदाहरण दिया है कि जैसे बुझा हुआ दीपक पृथ्वी, अन्तरिक्ष, दिशा, विदिशा कहीं नहीं जाता अपितु तेल की समाप्ति से केवल शान्त हो जाता है। इसी प्रकार मुक्त पुरुष कहीं न जाकर क्लेशनाश से शान्ति पा लेता है। इसीलिए बौद्ध दर्शन में मोक्ष को निर्वाण शान्त (निर्वाणं शान्तम् ) कहा गया है। हीनयान और महायान में निर्वाण दशा से सम्बन्धित प्रमुख अन्तर क्रमशः (इस दशा को) दुःख का अभावमात्र और आनन्दरूप मानना है।
व्याकरण दर्शन के अनुसार मुक्ति में शब्दात्मना जीव की स्थिति रहती है । नैयायिकों एवं वैशेषिकों का कहना है कि इस दशा में (देहविहीन होते ही) आत्मा के विशेष गुणों का अत्यन्ताभाव हो जाता है । आत्मा पूर्णतः चैतन्यरहित, यथार्थ रूप में
खण्ड १६, अंक ३ (दिस०, ६०)
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