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________________ जैन एवं अन्य भारतीय दर्शनों में मोक्षदशा : एक तुलनात्मक दृष्टि - कु० कमला जोशी* भारतीय अध्यात्मवादियों ने मोक्ष को जीवन का प्रमुख एवं अन्तिम लक्ष्य निर्धारित किया है । मोक्ष का तात्पर्य है-राग, द्वेष, मोह, लोभादि दुर्भावों से सदा के लिए छुटकारा पाना । परिणामस्वरूप व्यक्ति दुःखों, तनावों, कर्मबन्धनों एवं जन्म-मरण के चक्र से भी सदा के लिए मुक्त हो जाता है । यह अवसानार्थक भ्वादिगण परस्मैपदीय या चुरादिगण की उभयपदीय मोक्ष धातु और धञ् (पा० सू०-३।३।१८) प्रत्यय से निष्पन्न है। दर्शन जगत में मोक्ष, मुक्ति, निर्वाण, अपवर्ग, निःश्रेयस एवं कैवल्य पर्यायवाची हैं। मोक्ष होने के बाद जीव की कैसी दशा होती है ? उसे कैसी अनुभूति होती है ? वस्तुतः यह अत्यन्त गम्भीर विषय है । आधुनिक विज्ञान अभी इतना सक्षम नहीं हो पाया है कि मृत्योपरान्त जीव की स्थिति की कल्पना और समीक्षा कर सके । किन्तु भारतीय दार्शनिकों ने अपने-अपने गहन ज्ञान, अनुभव, सिद्धान्त एवं तार्किक बुद्धि के आधार पर इस स्थिति को स्पष्ट किया है। प्रस्तुत लेख में जैन दर्शन एवं अन्य प्रमुख भारतीय दर्शनों में स्वीकृत मोक्षावस्था सम्बन्धी विचारों का तुलनात्मक विश्लेषण करने का प्रयास किया जा रहा है। जैनों के अनुसार मोक्षदशा में जीव अपने निर्मल स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। सिद्ध (मक्त जीव) संसारियों के मति, अवधि और मनःपर्याय जैसे साधारण ज्ञानों से - ऊपर उठकर केवलज्ञानी हो जाता है । इसीलिए मुक्त जीव केवली भी कहलाते हैं। केवलज्ञान अतीन्द्रिय और सुखरूप माना गया है । आत्मा के केवल ज्ञानमय रूप होने से सुख आत्मा का स्वभाव है। आत्मज्ञान से पारमार्थिक सुख के अभिन्न होने के कारण स्वभावतः मुक्त दशा में जीव को इन्द्रिय सुखों से भिन्न, नित्य एवं दिव्य सुख की अनुभूति होती है। वह सभी पदार्थों का उनके पर्यायों के साथ (अवग्रहादि चरणों के बिना) प्रत्यक्ष दर्शन करने से अनन्त दर्शन से सम्पन्न, अनन्तज्ञानी होने से सर्वज्ञ एवं अनन्तशक्ति वाला होने से सर्वशक्तिमान कहा गया है । अनन्त दर्शन, अनन्त.ज्ञान और अनन्त शक्ति के पूरी तरह प्रकट हो जाने से कर्म जीव को अपने चक्कर में पुनः नहीं फंसा सकते। कर्ममुक्त होने से संसार में पुनः मुक्त जीव का आगमन भी नहीं होता । इस स्थिति में सिद्ध जीव को किसी तरह की इच्छा और दुःख नहीं रहता है। वह लोकाग्र में स्थिर एवं * शोधच्छात्रा [संस्कृत विभाग], कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल [यू० पी०] तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524564
Book TitleTulsi Prajna 1990 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangal Prakash Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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