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________________ स्थिति से उर्मिविहीन (भूख, प्यास, लोभ, मोह, शीत एवं उष्ण से रहित) और क्लेशरहित हो जाता है । यह आत्मा की अनुभूतिशून्य (ज्ञान, दुःख एवं सुखानुभूति से रहित) अवस्था है । उल्लेखनीय तथ्य है कि आज मोक्ष की कल्पना में नैयायिकों और वैशेषिकों में कोई अन्तर नहीं है किन्तु न्यायसार (पृ० ४०-४१) और सर्वसिद्धान्तसंग्रह से प्राचीन काल में आनन्दरूपा मुक्ति के समर्थक एकदेशी नैयायिकों के अस्तित्व की जानकारी मिलती है। वैशेषिकों ने तो मोक्षदशा को सदैव ही दुःखात्यन्तनिवृत्तिरूपा एवं आत्मविशेषगुणोच्छेदरूपा बताया है। सांख्य एवं योग दर्शन ने मोक्षावस्था में पुरुष या चितिशक्ति की (केवली होकर) स्वरूप में स्थिति मानी है। हीनयान बौद्धसम्प्रदाय, न्यय-वैशेषिक के समान सांख्य एवं योग दार्शनिक भी इस दशा में दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति स्वीकार करते हैं । उनके विचार में यह दशा दुःखाभाव रूप ही है, सुखानुभूति रूप नहीं । सांख्ययोगाचार्य इस अवस्था में सुखानुभूति न मानते हुए भी चित्स्वरूपपुरुष की स्वरूपावस्थिति के समर्थक हैं । उनका मत है कि आत्मा किसी भी स्थिति में चैतन्यरहित नहीं हो सकता। मुक्त पुरुष साक्षी और द्रष्टा होकर प्रकृति को देखता है और पुनः प्रकृतिबन्धन में नहीं पड़ता। मीमांसकों के अनुसार मोक्षदशा में जीव सुख, ज्ञान और आनन्दरहित होता है।" इस अवस्था में आत्मज्ञान का अभाव होने पर भी जीव में ज्ञानशक्ति मात्र अवश्य रहती है । आत्मा की ज्ञानशक्ति कभी लुप्त नहीं होती और उसकी सत्ता, दृश्यत्व आदि धर्म भी उसमें रहते ही हैं । यही आत्मा की स्वरूपावस्थिति है। इस दशा में आत्मा के ज्ञानशक्ति रूप रहने पर भी इस शक्ति की कोई अभिव्यक्ति नहीं होती है। इसलिए मुक्तात्मा प्रयत्न इच्छादि से रहित है और ज्ञानस्वरूप एवं आनन्दस्वरूप नहीं कहलाता। समान्यतः मीमांसकों ने इस अवस्था को दुःखात्यन्ताभाव के साथ सुखाभावरूप भी स्वीकार किया है। देहविहीन आत्मा प्रिय-अप्रिय और हर्ष-शोक से अप्रभावित रहता है । भाट्टों के एक पक्ष का कहना है कि सांसारिक पदार्थों से सदा के लिए सम्बन्धनाश होने के कारण इस अवस्था में विषयजन्य सुख का अनुभव नहीं हो सकता किन्तु आत्मा के शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति से शुद्धानन्द का आविर्भाव अवश्यमेव होता अद्वैतवेदान्तसम्मत मुक्तात्मा नितान्त आनन्दमयी दशा है । जीव सभी उपाधियों से रहित होकर ब्रह्मत्व पा लेता है जिससे दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति के साथ ही अलौकिक आनन्द की अनुभूति होती है।" मुक्त जीव सच्चिदानन्दमय हो जाता है । भास्कर वेदान्ती संसारावस्था के जीव का मोक्षदशा में परमात्मा में लय स्वीकार करते हैं । ऐसी स्थिति में ज्ञान आत्मा में रहता है और मुक्तात्मा आनन्दानुभूति करता है । रामानुज के विचारानुसार इस दशा में जीव एवं ब्रह्म का भेद बना रहता है । विशिष्टाद्वैतवादियों के अनुसार जीवों में रहने वाला ज्ञान नित्य, द्रव्यात्मक, अजड़, संकोचविकास युक्त और आनन्दस्वरूप है । बद्ध जीव मुक्त होकर अपनी स्वाभाविक दशा में आकर ब्रह्म के समान हो जाता है । माध्ववेदान्तियों के विचार में मुक्त स्थिति में जीव परमसाम्य को पा लेता है । जैसा कि मुण्डक (३।१।३) में कहा गया है—निरञ्जनः तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524564
Book TitleTulsi Prajna 1990 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangal Prakash Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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