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होती है किन्तु तप की आराधना से चारित्र की आराधना भजनीय है, वह कैसे ? उसका उत्तर देते हुए टीकाकार कहते हैं कि तप की आराधना करने वाले के द्वारा असंयम का त्याग किया भी जा सकता है और नहीं भी किया जाता। इसलिए तप की आराधना में चारित्र आराधना भजनीय है । इन चारों आराधनाओं में चारित्र आराधना की महत्ता स्पष्ट करते हुए आचार्य शिवार्य कहते हैं कि - "चारित्र की आराधना में ज्ञान, दर्शन, तप सब आराधित होते हैं । ज्ञान, दर्शन और तप में से किसी की भी आराधना में चारित्र की आराधमा भाज्य होती है ।"
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प्रकीर्णकों में आराधन किसका ? एवं आराधक कौन ? इसको स्पष्ट करते हुए आराधना के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है । जो दुष्कृत कार्यों को जानते हुए, शुभ ध्यान करते हुए एवं शुभ मार्ग का अनुसरण करने वाला कीर्ति को प्राप्त करता है, तथा अपनी बुराइयों की (गूढ़ बातों की ) निन्दा करता है उसे आराधना कहा गया है । पांच महाव्रतों का पालक अच्छे चारित्र व शील से युक्त श्रमण आराधक होता है । जो स्वयं को एवं अपनी आत्मा को जानता है वह ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप में स्थित मुनि होता है ।" आराधक के इस वर्णन से स्पष्ट होता है कि पांच महाव्रत, शील, तप एवं रत्नत्रय ( सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र ) आदि का पालन करना या श्रद्धान करना ही आराधना कहलाता है ।
आराधक का स्वरूप
आराधक के स्वरूप को लेकर भगवती आराधना में कहा गया है कि जो गुरु सम्मुख अपने दोषों की आलोचना या अपने अपराधों की निन्दा करने का दृढ़ संकल्प लेकर घर से निकल जाये किन्तु मार्ग में ही उसकी मृत्यु हो जाए या गुरु की ही मृत्यु हो जाए अथवा उन दोनों में वाक्-शक्ति का अभाव हो जाए, फिर भी वह आराधक कहलाता है । १४ क्योंकि उसने अपने दोषों की आलोचना या अपराधों की निन्दा करने का दृढ़ संकल्प लेकर प्रायश्चित किया है । जो गुरु के पास सभी भावशल्य को छोड़कर शल्यों से रहित होकर मृत्यु को प्राप्त करता है वह आराधक होता है, किन्तु जो गुरु के पास भावशल्य को बिलकुल भी नहीं छोड़ता वह न तो समृद्धिशाली होता है, और न ही आराधक होता है । " चारों कषायों का त्याग, इंद्रियों का दमन एवं राग-द्वेष से रहित होकर आराधक अपनी आराधना-शुद्धि करता है। आचार्यों ने इन दोनों ग्रन्थों में कहा है कि तीन गारव व तीनों शल्यों" से रहित होकर, रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र) का आचरण करने वाला समस्त दुःखों का क्षय करने वाला होता है । "
भगवती आराधना एवं प्रकीर्णकों के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों में भी आराधना का वर्णन मिलता है | आचारांगसूत्र में सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप एवं वीर्य ये आचार के पांच भेद बतलाते हुए साधक को इनकी आराधना करने का निर्देश दिया है । इसी प्रकार सूत्रकृतांग में भी सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र व तप इन चारों का साधक को समाधि के लिए ( मरणकाल में ) आचरण करने का आदेश दिया गया है । समवायांग नामक अंग आगम में तीन प्रकार की विराधना का वर्णन किया गया है । भगवतीसूत्र में कहा
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तुलसी प्रज्ञा
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