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________________ भगवती आराधना की तरह ही आराधना के भेद, स्वरूप व संलेखना द्वारा मरण आदि का वर्णन किया गया है। चतुःशरण नामक प्रकीर्णक में इस संसार को अशान्ति एवं दुःख का प्रतीक मानते हुए, अरहन्त, सिद्ध, साधु और सर्वज्ञ-प्ररूपित धर्म को शरणभूत कहा गया है। तंडुलवैचारिक नामक प्रकीर्णक में मुख्य रूप से गर्भविषयक वर्णन है। जीवनभर में जो श्रेष्ठ व कनिष्ठ कर्म किए हैं, उनका लेखा लगाकर अन्तिम समय में दुष्प्रवृत्तियों का परित्याग कर, संयम धारण कर संस्थारक पर आसीन पण्डित मरण को प्राप्त करने वाला श्रमण मुक्ति को वरण करता है। बृहत्कल्प एवं व्यवहार सूत्रों के आधार पर लिखा गया गच्छाचार प्रकीर्णक श्रमण-श्रमणियों के आचार-सिद्धांत का निरूपण करता है। गणविद्या नामक प्रकीर्णक में ज्योतिष सम्बन्धी व देवेन्द्रस्तव में ३२ देवेन्द्रों का विस्तारपूर्वक वर्णन पाया जाता है। आराधना का स्वरूप आराधना के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए भगवती आराधना में कहा गया है कि सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र व सम्यक् तप के उद्योतन, उछवन, निर्वहन, साधन और निस्तरण को आराधना कहते हैं । अर्थात् सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप से आशंका आदि दोषों को दूर करना (उद्योतन), बार-बार आत्मा का सम्यक दर्शन आदि रूप में परिणत होना (उछ्वन), परीषह आदि आने पर भी आकुलता के बिना सम्यक् दर्शन आदि धारण करना (निर्वहन), नित्य या दैनिक कार्यों को करने से सम्यक् दर्शन आदि में व्यवधान आने पर उसमें पुनः मन को लगाना (साधन) तथा दूसरे भव में भी सम्यक् दर्शन आदि को साथ ले जाना या आमरण पालन करना (निस्तरण) ही आराधना है । तत्वार्थ श्रद्धान को सम्यग्दर्शन तथा स्व और पर के निर्णय को सम्यक् ज्ञान कहते हैं । पाप का बन्ध कराने वाली क्रियाओं के त्याग को सम्यक् चारित्र तथा इन्द्रिय एवं मन के नियमन को सम्यक् तप कहते हैं । भगवती आराधना में सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप इन चारों आराधनाओं को सम्यक् दर्शन व सम्यक् चारित्र इन दो आराधनाओं में समाविष्ट कर दिया है। दर्शन की आराधना करने पर ज्ञान की आराधना नियम से होती है किन्तु ज्ञान की आराधना करने से दर्शन की आराधना भजनीय है-होती भी है, नहीं भी होती। तथा संयम या चारित्र की आराधना करने पर तप की आराधना नियम से होती है, किन्तु तप की आराधना में चारित्र की आराधना भजनीय है। ऊपर कहा गया है कि श्रद्धान (दर्शन) की आराधना करने पर सम्यक् ज्ञान की आराधना अवश्य होती है, किन्तु यहां प्रश्न किया जाता है कि दर्शन और चारित्र आराधना के स्थान पर ज्ञान और चारित्र आराधना भेद क्यों नहीं किए गए ? इसके उत्तर में विजयोदयटीकाकार ने अपनी टीका में कहा है कि—सम्यक् ज्ञान की आराधना करने पर सम्यग्दर्शन की आराधना होती है। किन्तु मिथ्याज्ञान की आराधना में दर्शन की आराधना नहीं होती। इसलिए मूल ग्रंथकार ने “मयणिज्ज' शब्द के प्रयोग से इसे स्पष्ट कर दिया है कि ज्ञान की आराधना से दर्शन की आराधना भजनीय है (अर्थात् होती भी है और नहीं भी होती।) अतः ज्ञान का प्राधान्य न होने के कारण ज्ञानाराधना भेद नहीं किया गया। इसी प्रकार चारित्र को आराधना से तप की आराधना अवश्य खण्ड १६, अंक ३ (दिस०, ६०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524564
Book TitleTulsi Prajna 1990 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangal Prakash Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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