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________________ जैनसम्मत सिद्ध निष्क्रिय होकर लोकान में स्थिर रहता है । जैनों के धर्म एवं दर्शन में रत्नत्रय रूप ऐश्वर्य से सम्पन्न होने के कारण सभी मुक्तात्मा पूज्य और ईश्वर माने जाते हैं, संसार की नित्यता एवं कर्मस्वातन्त्र्य को मानने के कारण जैनों को सृष्टि करने और विनाश करने वाले कर्मफलदाता के रूप में (न्याय, वैशेषिक, योग एवं कुछ वैष्णव सम्प्रदायों के समान) एक ईश्वर को मानने की आवश्यकता नहीं है। ब्रह्मसूत्र के कुछ भाष्यकारों ने मुक्त जीवों का ब्रह्म में लय माना है तो कुछ वेदान्तियों ने ईश्वर और मुक्त जीवों का पृथक्-पृथक् अस्तित्व स्वीकार करते हुए मुक्त दशा में जीवों में ईश्वर के समान गुणों की कल्पना की है किन्तु मुक्त दशा में स्थित सभी जीवों को ईश्वर मानना जैन मनीषियों को सर्वथा मौलिक बुद्धि का परिचायक है । भारतीय अध्यात्म जगत् में अन्यत्र कहीं भी मुक्त दशा में स्थित सभी जीवों में ईश्वरत्व की कल्पना सम्भवतः नहीं की गयी है। जैन मतानुसार मोक्ष दशा में सभी जीव समान हैं । वस्तुतः एकात्मवादी हों या अनेकात्मवादी, कुछ वैष्णव सम्प्रदायों को छोड़कर शेष दर्शनों में मुक्तावस्था में स्वरूप, गुण, शक्ति आदि किसी भी दृष्टि से कोई अन्तर नहीं बताया गया है। कुछ वैष्णव सम्प्रदाय मुक्त जीवों में भी अन्तर स्वीकार करते हैं।" सांख्य, योग, अद्वैत वेदान्त आदि दर्शनों के समान जैन दर्शन में भी मुक्त दशा में स्थित जीवों के पुनः संसार में लौटने का निषेध किया गया है। ___ इस विवेचन के निष्कर्षस्वरूप कह सकते हैं कि जैनसम्मत मोक्ष दशा की अन्य दर्शनों में स्वीकृत मोक्ष दशा से अनेक स्थलों पर समानता स्पष्टतः प्रतीत होती है किन्तु अनेक अंशों में साम्य होने पर भी इसकी किसी एक दर्शन से पूर्ण समानता कदापि नहीं कही जा सकती । मोक्ष दशा में लोकाग्र भाग (सिद्धशिला) में स्थिरता, ईश्वरत्व की कल्पना जैसे मौलिक विचार इस मत को विशिष्ट बना देते हैं। सन्दर्भ : १. तत्त्वार्थसूत्र १०/२,३, मुण्डक २/२/८, ३/२/८, न्यायसूत्र १/१/२२, वैशेषिकसूत्र ५/२/१८, ६/२/१६, सांख्य सूत्र ३/६५, योगसूत्र २/२५, ३/३४, कठोपनिषद् २/३/१४, श्रीभाष्य १/१/१ इत्यादि। २. A History of Indian Philosophy, Dasgupta, Vol. I, P. 207. ३. सयमेव जहादिच्चो तेजो उण्हो य देवदा णभसि । सिद्धो वि,तहा णाणं सुहं च लोगे तहा देवो ॥ -प्रवचनसार । ४. देखिए शोधलेख 'उत्तराध्ययन में मोक्ष की अवधारणा, प्रस्तुतकर्ता-डॉ० महेन्द्र नाथ सिंह, श्रमण', मई, १९८६, पार्श्वनाथ शोध संस्थान, वाराणसी ५. जया कम्म खवित्ताणं सिद्धि गच्छइ नीरओ। तया लोगमत्थयत्थो सिद्धो हवई सासओ ॥ -दशवकालिक ४/२५ ६. भारतीय दर्शन, बलदेव उपाध्याय, पृ० ५७२-५७३ । ७. त्रिशिकाविज्ञप्ति भाष्य, पृ० १५ (स्थिरमतिकृत और डॉ० सिल्वन लेवी द्वारा सम्पादित)। तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524564
Book TitleTulsi Prajna 1990 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangal Prakash Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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