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________________ जैन शास्त्रों में भक्ष्याभक्ष्य विचार [] नंदलाल जैन* ( गतांक से आगे ) २. परिरक्षित खाद्य : (५) अचार -मुरब्बा वर्तमान युग में अचार-मुरब्बा या संधानित खाद्यों को परिरक्षित खाद्यों की कोटि का प्रतिनिधि मानना चाहिए । संभवतः सर्वप्रथम बाइस अभक्ष्यों की धारणा के विकास के समय ही इन खाद्यों को अभक्ष्यता की कोटि में विशिष्ट नाम देकर रखा गया । यही कारण है कि प्राचीन ग्रन्थों में इनका नाम नहीं मिलता । धर्म संग्रह में संधानों की अभक्ष्यता का कोई कारण नहीं बताया गया है पर जैन क्रिया कोश में कहा गया है कि जब आम, नींबू आदि में राई, कलौंजी आदि मिला कर तेल मिलाया जाता है, तब उनमें अनेक सजीव उत्पन्न होते हैं । अतः इनके खाने से मांस- दोष लगता है । संभवतः आज का सामान्य शिक्षित व्यक्ति इस कथन को नहीं मान सकेगा । यही कारण है कि अचार-मुरब्बा आदि परिरक्षित पदार्थों का सेवन स्वाद, स्वास्थ्य एवं रसमयता के कारण दिनोंदिन बढ़ रहा है । वस्तुतः प्रत्येक व्यक्ति इस तथ्य से परिचित है कि सामान्य हरे फल या भोज्य पदार्थ विशिष्ट ऋतुओं में पैदा होते हैं और वे कुछ समय बाद आंतरिक एवं बाह्य जीवाणुओं के प्रभाव 'विकृत होने लगते हैं । उनकी बहुत दिनों तक उपयोगिता बनाये रखने के लिये यह आवश्यक है कि उनमें विकारोत्पादी घटकों की सक्रियता को समाप्त कर दिया जाए। नमक, तेल, शक्कर, सिरका आदि पदार्थ यह काम सरलता से करते हैं । आजकल सोडियम बेन्जोएट के समान अनेक रासायनिक पदार्थ भी इस काम आते हैं । अचार प्राय: खट्टे माने जाते हैं और मुरब्बे मीठे । पर आजकल मीठे अचार भी बनने लगे हैं । इनमें परिरक्षकों के अतिरिक्त अन्य घटकों को मिलाने से उनकी उपयोगिता औषधीय दृष्टि से भी बढ़ जाती है। यही नहीं, उनकी विकृति रुक जाने से परिरक्षित पदार्थों को वर्ष की सभी ऋतुओं में काम में लिया जा सकता है। तकनीकी दृष्टि से अचार -मुरब्बे बनाने की इस क्रिया को ही 'परिरक्षण' कहते हैं । इस विधि विकास से अब आम नींबू की तो बात ही क्या, गाजर, मूली, अदरख, मिर्च, गोभी, करेला आदि अनेक शाकभाजियों के अचार-मुरब्बे बनाये जाने लगे हैं । यद्यपि ये खाद्य हमारे आहार के अल्पमात्रिक घटक हैं और खाद्य कोटि में आते हैं, फिर भी इनके I * जैन केन्द्र, रीवा, म० प्र० २४ Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा www.jainelibrary.org
SR No.524564
Book TitleTulsi Prajna 1990 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangal Prakash Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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