SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है । जैन ने जीवों को दो भागों में विभक्त किया-सिद्ध एवं संसारी। सिद्धात्मा सर्वथा अमूर्त होती है अतः उसके साथ कर्म पुद्गलों का सम्बन्ध नहीं हो सकता। आत्मा स्वरूपतः अमूर्त है किन्तु संसारावस्था में वह कथंचित् मूर्त भी है। संसार दशा में जीव और पुद्गल का कथंचिद् सादृश्य होता है । अतः उनका सम्बन्ध होना असम्भव नहीं है। संसारी आत्मा सूक्ष्म और स्थूल---इन दो प्रकार के शरीरों से आवेष्टित है । एक जन्म से दूसरे जन्म में जाते समय स्थूल शरीर छूट जाता है, सूक्ष्म शरीर नहीं छूटता । सूक्ष्म शरीरधारी जीव ही दूसरा शरीर धारण करते हैं, इसलिए अमूर्त जीव मूर्त शरीर में प्रवेश कैसे करता है—यह प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता है क्योंकि संसारी आत्मा कथंचिद् मूर्त है । भगवती सूत्र में इस प्रश्न को सुलझाया गया है। वहां कहा गया है कि अरूप सरूप नहीं हो सकता । कर्म, राग, मोह, लेश्या एवं शरीर के कारण जीव मूर्त भी है। शरीर सम्बन्ध के कारण जीव पांच वर्ण, गंध आदि से भी युक्त है। जीव स्वरूप से अमूर्त है किन्तु बद्धावस्था की अपेक्षा मूर्त भी है अत: उसका पुद्गल के साथ सम्बन्ध होता है । सेन्टरी पेटल आकर्षण पुद्गल का है तथा सेन्टरी फ्यूगल आकर्षण जीब का है । पुद्गल जीव को आकर्षित करते हैं तथा जीव भागने की कोशिश करता है । पूरा भाग नहीं सकता अतः संसार में परिभ्रमण करता है। जब भाग जाता है. तब मुक्त बन जाता है । जीव और पुद्गल में भोग्य-भोक्तृ सम्बन्ध है । जीव भोक्ता है, पुद्गल भोग्य जीव और शरीर जीव और शरीर का परस्पर भेदाभेद है। यह भेदाभेद अनेकान्त दृष्टि के द्वारा ही समझा जा सकता है । गौतम ने भगवान महावीर से पूछा "आया भंते ! काये ? अण्णे काये ? गोयमा ! माया वि काये, अण्णे वि काये।" इत्यादि। आत्मा और शरीर में सर्वथा अभेद नहीं है, यदि सर्वथा अभेद होता तो ये दोनों एक ही हो जाते । सर्वथा भेद भी नहीं है। सर्वथा भेद होने से परस्पर कभी-भी नहीं मिल सकते थे। अतः अपने विशेष गुणों के कारण इनमें परस्पर भेद भी है और सामान्य गुणों के कारण अभेद भी है। भगवान् महावीर ने आत्मा को शरीर भिन्न और अभिन्न दोनों कहा है। ऐसी स्थिति में दो प्रश्न हमारे सामने उपस्थित होते हैं ----यदि शरीर आत्मा से अभिन्न है तो उसे आत्मा की तरह अरूपी और सचेतन भी होना चाहिए। जैन दर्शन में समाधान प्राप्त है कि शरीर रूपी भी है और अरूपी भी है। सचेतन भी है और अचेतन भी है। आत्मा और शरीर में अत्यन्त भेद माना जाए तो कायकृत कर्मों का फल आत्मा को नहीं मिलना चाहिए । अत्यन्त अभिन्न मानें तो शरीर दाह के समय आत्मा भी नष्ट हो जाएगी जिससे परलोक सम्भव नहीं है। इन्हीं दोषों को देखकर भगवान् बुद्ध ने कह दिया कि भेद और अभेद-ये दोनों पक्ष उचित नहीं हैं। जबकि भगवान् महावीर ने दोनों विरोधिवादों का समन्वय स्थापित किया है। एकान्त भेद और अभेद मानने पर जो दोष आते हैं वे उभयवाद की स्वीकृति में विलीन हो जाते हैं। जीव और शरीर का खण्ड १६, अंक ३ (दिस०, ६०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524564
Book TitleTulsi Prajna 1990 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangal Prakash Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy