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परमं साम्यमुपैति । यह साम्य प्राचुर्य विषयक है, अभेदविषयक नहीं । भगवान् के साथ जीव के चैतन्यांश के कारण एकता है । समस्त गुणों की दृष्टि से तो उनमें भेद होता ही है अर्थात् मुक्तावस्था में जीव और ब्रह्म में अभेद नहीं होता ।" द्वैतवादियों ने संसारावस्था के समान मोक्षावस्था में भी जीवों में पारस्परिक अन्तर और आनन्द का तारतम्य स्वीकार किया है । निम्बार्काचार्य का कहना है कि मुक्त होने पर भी जीवों का ईश्वर के साथ भेदाभेद सम्बन्ध बना रहता है । जीव ब्रह्म के साथ एकाकार होकर भी अपना सर्वथा पृथक् और स्वतन्त्र अस्तित्व बनाए रखता है । चैतन्यात्मक तथा ज्ञानाश्रय रूप से ईश्वर की तरह होकर भी ( मुक्त दशा में ) जीव ईश्वर पर आश्रित होता है । निम्बार्क मुक्त जीव में कर्तृत्व मानते हैं, कुछ मुक्त जीव निरतिशय आनन्दरूप भगवदभाव को पाने वाले होते हैं एवं दूसरे मुक्त जीव अपने आत्मज्ञान से स्वरूपानन्द की प्राप्ति करने वाले हैं ।" वल्लभाचार्य के विचार में मोक्षदशा में जीव आनन्दांशों को प्रकट कर सच्चिदानन्द हो जाता है । भगवान् से अभिन्न होने पर जीव दुःख एवं जड़ता से छुटकारा पाकर स्वरूपतः आनन्दरूप से स्थित होता है ।
जीव की मुक्त दशा के विषय में नास्तिक, षड् आस्तिक और ब्रह्मसूत्र के प्रमुख भाष्यकारों के अलग-अलग विचार हैं । मोक्षदशा में जीव की स्वरूपावस्थिति के विषय में सभी विचारक एकमत हैं किन्तु आत्मस्वरूप के सम्बन्ध में विचारों के पार्थक्य के कारण जीव की मुक्तावस्था में परस्पर अन्तर हो जाता है । इस दशा में दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति तो सभी ने स्वीकार की है। कुछ दार्शनिक संसारावस्था के समान मोक्षदशा में भी जीवों का पृथक् और स्वतन्त्र अस्तित्व मानते हैं । इसके विपरीत कुछ विचारकों ने मुक्त जीवों का एक ही अनन्त चैतन्य में लय माना है । जैनसम्मत मोक्षदशा का किसी एक दर्शन में मान्य मोक्षदशा से पूर्ण साम्य नहीं है किन्तु यह निर्विवाद तथ्य है कि जैनों की इस विषय में अन्य दर्शनों से आंशिक समानता है । जनमतानुयायी भी अन्य भारतीय अध्यात्मवादियों की तरह मुक्तदशा में जीव की अपने यथार्थ स्वरूप में स्थिति स्वीकार करते हैं । मोक्ष की स्थिति में जीव की दशा से सम्बन्धित तीन प्रमुख विचारधारायें हैं— सत्, चित् और आनन्द । कुछ बौद्धों के अतिरिक्त सभी दर्शनों में मुक्त स्थिति में जीव को सत् बताया गया है । न्याय, वैशेषिक एवं अधिकांश मीमांसक तो इस स्थिति में जीव को सत् मात्र ही स्वीकार करते हैं, चित् और आनन्दमय नहीं । सांख्य एवं योग दार्शनिक इस दशा में आत्मा को सत् के साथ-साथ चित् भी कहते हैं । वेदान्त दर्शनों में ( मुक्त दशा में) जीव को सत्, चित् और आनन्द स्वीकार किया है । वेदान्त के समान जैन तत्त्वज्ञों ने भी इस अवस्था में जीव द्रव्य को सत्, चित् ( चैतन्यमय अथवा ज्ञानमय होने से ) एवं दिव्यानन्दानुभूति से युक्त कहा है किन्तु अद्वैत वेदान्तियों की तरह जैनाचार्य मुक्त जीवों का एक अनन्त चैतन्य में लय नहीं मानते । वे न्याय-वैशेषिक, सांख्ययोग, मीमांसादि अनेकात्मवादियों के समान मुक्तावस्था में जीवों के अलग-अलग अस्तित्व के कट्टर समर्थक हैं । कुछ वैष्णव सम्प्रदायों ने मुक्तावस्था में भी जीव में कर्तृत्व और भोक्तृत्व शक्ति स्वीकार की है" किन्तु जैनसम्मत मुक्त जीव ( इस अवस्था में) न्याय, मीमांसादि के मुक्तात्मा के समान कर्तृत्व और भोक्तृत्व से रहित है ।
खण्ड १६, अंक ३ ( दिस०, ६० )
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