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दृष्टि में रखकर की गई । कवि ने तत्कालीन समाज से नरबलि जैसे दुष्कृत्य को समाप्त करने के लिए इस ग्रंथ का कथानक तैयार किया ।
सारांश यह है कि हिन्दी जैन काव्य साहित्य में जैन दार्शनिक प्रवृत्तियों - जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, अहिंसा आदि का स्थान-स्थान पर विवेचन हुआ है । उपरोक्त दार्शनिक तत्व रचना के कथा-पट में भलीभांति गूंथ दिये गये हैं और इनके निरूपण में अत्यन्त गंभीर शैली का व्यवहार किया गया है ।
सन्दर्भ :
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१. जस जाति की चार गति कही तिह में दुष नाना परकार ।
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देव नरक पसु मनषज सही ॥ सुख एक पल नाहि लगार ॥
२. प्राणी जे करम कमावै, ताको फल जो करम सुभासुभ होई, निहच ते
- बंकचोर की कथा, पद्य २६१, पृ० ३०
निह
पावे ।
फल सोई ॥
३. केवल प्रकाश होय, अन्धकार नाश होय, ज्ञान को विलास होय, और लौं निवाहवी । सिद्ध में सुवास होय, लोकालोक भास होय, आपु रिद्ध पास होय, और की न चाहवी ॥
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- यशोधर चरित, पद्य - ११७
-शतअष्टोत्तरी- भैया भगवतीदास, पद्य - ६१, पृ० २
४. शतअष्टोत्तरी, पद्य ६७, पृ० ३० ५. ए हो चेतन राय परसों प्रीति कहा करी ।
जे नरकहि ले जाहि, तिनही सों राचे सदा ॥
१०. सीता चरित, पद्य - १५२, पृ० ५२ ११. शतअष्टोत्तरी, पद्य ७५, पृ० २५ १२. क्रोधादिक जबही करें, परिग्रह के संयोग सौं,
६. भूलो आप आप न पायो । याही मूल जगत चौरासी लब में फिरयो ही । काल अनादि न जाणें
७. शतअष्टोत्तरी, पद्य - ३६, पृ० १६
८. चेतन जीव अजीव जड़, यह सामान्य स्वरूप ।
६. जो कर्मन करें आगमन, आस्रव कहिये ताके भेद सिद्धांत में, भावित दरवित
वही, पद्य ८३, पृ० २६ भरमायो ॥
सोय ।
दोय ॥
- पार्श्वपुराण, पद्य - २५, पृ० १४१
बंधे कर्म तब आन । बंध निरन्तर जान ॥
क्योंही ॥
- सीता चरित, पद्य २२१७
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वही, पद्य १३१, पृ० १५४
तुलसी प्रज्ञा
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