Book Title: Tulsi Prajna 1990 12
Author(s): Mangal Prakash Mehta
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 29
________________ उपयोग से भोजन का पाचन और उद्दीपन सरल हो जाता है। इनमें विद्यमान घटक स्वास्थ्य-वर्धक होते हैं । आंवले के मुरब्बे से कौन परिचित नहीं है ? वह तो औषधिक भी है । आंवले और आयुर्वेद का अविनाभाव संबंध है। आज के युग में अचार-मुरब्बों की कोटि के पदार्थों की विविधता बढ़ी है । इनमें टमाटर आदि के सांद्रित रसों से कैचप, सॉस, स्क्वैश आदि समाहित हैं। ये परिरक्षित कर वर्ष भर मिलते रहते हैं । अनेक फलों के रसों व खंडों से बने हुए जैम और जैली भी परिरक्षित पदार्थ हैं । वस्तुतः आजकल खाद्य -बाजार में जाने पर ऐसा लगता है कि अब परिरक्षित खाद्यों एवं पेयों का ही युग आ गया है । अंब्रोशिया की डिब्बे बन्द स्वादिष्ट खीर तो हमारे घरों में भी नहीं बनती। जनसंख्या की वृद्धि एवं जीवन की जटिलता एवं व्यस्तता ने मानव को इतना विवश कर दिया है कि वह परिरक्षित खाद्यों पर ही निर्भर रहने लगा है। इसीलिये अब प्रत्येक खाद्य के परिरक्षित रूप में मिलने की योजनायें चलने लगी हैं। भारत में भी यह प्रक्रिया तेजी से विकसित हो रही है । परिरक्षण की भी अनेक भौतिक एवं रासायनिक . विधियों का विकास हुआ है। प्रशीतन और वायुरोधी डिब्बाबन्दी ऐसी ही विधियां हैं । घरों में रेफ्रीजरेटर और बाजारों में प्रशीतन भंडारों में सब्जियों को प्रशीतित कर रखा जाने लगा है । बर्फ के तापमान पर जीवाणु खाद्यों को विकृत नहीं कर पाते । वायुरोधी डब्बाबंदी भी प्रशीतन के सहयोग से काम करती है। इससे दो लाभ होते हैं-वायु के जीवाणु एवं ऑक्सीजन से पदार्थों का विकृतिकरण रुक जाता है और प्रशीतन से विकृतिकरण की समय-सीमा में वृद्धि हो जाती है। अनेक लेखक इन विधियों के कुछ दुष्प्रभावों की ओर संकेत देते दिखते हैं पर यह तो 'अति सर्वत्र वर्जयेत, की उक्ति को ही चरितार्थ करता है। प्रत्येक प्रक्रिया की अपनी सीमा और सावधानी तो ध्यान में रखनी ही चाहिये । यदि इन संकेतों का पालन किया जाए तो शायद ही किसी खाद्य को आज ग्रहण कर सकें क्योंकि इस वैज्ञानिक युग में संभवतः प्रत्येक खाद्य का उत्पादन उसे विकृत ही दिखता है-प्राकृतिक खादों के बदले कृत्रिम खादों का उपयोग, कीटमार दवाओं का प्रयोग आदि विकृति के कारण बताये जा रहे ___परंपरागत श्रावकों के घरों में विभिन्न ऋतुओं की हरी सब्जियो और भाजियों को सुखाकर और यथावश्यकता खाने का रिवाज है । इस प्रक्रिया में, यदि गृहणियां खाद्यों को सुखाने से पूर्व उन्हें अच्छी तरह जीवाणुनाशी रसायनों के घोल में धोकर साफ कर लें, तो ज्यादा लाभ रहता है। सूखने से सब्जियों का जलांश काफी कम हो जाता है और उनमें विद्यमान प्राकृतिक परिरक्षकों की मात्रा बढ़ जाती है। दोनों ही स्थितियां जीवाणुओं या वायु द्वारा उनके विकृति-करण को रोकती है। इस विवरण से स्पष्ट है कि परिरक्षित खाद्यों में जीवघात अतएव अमक्ष्यता का प्रश्न विचारणीय है। हां, यह बात अलग है कि परिरक्षण के लिये आवश्यक प्रक्रिया एवं सावधानियों में प्रमाद किया गया हो । ऐसी स्थिति में खाद्य विकृत फलतः अभक्ष्य हो जाएंगे। बस १६, अंक ३ (दिस०, १०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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