Book Title: Tulsi Prajna 1990 12
Author(s): Mangal Prakash Mehta
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 30
________________ ३. त्रस/स्थावर जीवघात : (६) मधु या शहद शास्त्रों में तीन मकारों की अभक्ष्यता में मधु का नाम भी समाहित है। निशीथचणि में कोंतिय, माक्षिक एवं भ्रामर-तीन प्रकार का मधु बताया गया है । इस युग में भी दूध, दही, घी और मक्खन भोजन के सामान्य घटक थे। साधुओं के लिये भी ये ग्राह्य थे । कोंतिय मधु तो आम्र-लतिकाओं से प्राप्त होता है। माक्षिक एवं भ्रामर के नाम ही अनेक स्रोतों को व्यक्त करते हैं। मधु को अप्रशस्त विकृति का पदार्थ माना गया है। यह विकृति इसलिये है कि यह मधुमक्खियों या प्राणियों के संघात से उत्पन्न होता है और उनके लार से संपृक्त होने से अशुचि कहा जाता है। इसके खाने से सात गांवों के जलाने के बराबर पाप लगता है। मधुमक्खियां पुष्पों के रसों को पीकर उसका वमन करती हैं, अतः यह उच्छिष्ट है । इसे हिंसक पुरुष ही खाते हैं । इसे औषध के रूप में खाने पर भी दुःख होता है। मधु में उत्कृष्ट कोटि की मधुरता होती है, इसलिये इसे मधु कहा गया है। रासायनिक दृष्टि से यह ग्लूकोस और फ्रक्टोस का समपरिमाणी मिश्रण होता है। उसे खाने पर ऊर्जा एवं ताजगी मिलती है । उग्रादित्य ने इसे रसायन माना है। इसे दूध के साथ लेने पर पीलिया दूर होता है। प्राचीन समय में इसे प्राप्त करने में निश्चित रूप से पर्याप्त त्रसघात होता था, पर नये युग में स्थिति बदल गई है। अब मधु संश्लेषित रूप में भी तैयार किया जाने लगा है । इसलिये अब यह भी आल्पघात-बहुफल की कोटि में आता है । यह आहार का सामान्य घटक भी नहीं है । यह प्रायः औषंधों में लेह्य या पेय के रूप में काम आता है। इसके बदले शक्कर की चाशनी काम आती है जिसमें चीनी विपरिवर्तित होकर मधु के समकक्ष हो जाती है । प्राकृतिक मधु उत्पादन दोष से अभक्ष्य माना जाता है, प्रभाव दोष से नहीं। इसका उत्पादन-दोष मक्खन से उच्चतर जीवघात की कोटि का है। (७) मांस अहिंसक जैनाचार में मांस और उसके विविध रूपों एवं उत्पादों को नितांत अभक्ष्य माना गया है । अभक्ष्यता के अनेक आधारों में त्रस और स्थावर जीवघात इसके लिये उत्तरदायी हैं । इस विषय में शास्त्रों में दिये गये तथ्य सारणी-५ में प्रस्तुत किये गये हैं जहां एतत् संबंधी वैज्ञानिक मान्यताएं भी दी गई हैं। इससे स्पष्ट है कि जहां मांसप्रेमी पूर्वी संस्कृतियों में इसे धार्मिक या अन्य रूप से परोक्ष मान्यता दी गई है, वहीं पश्चिमी जगत् ने कुछ वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर इस दिशा में अपना पक्ष प्रबल किया है । पर बीसवीं सदी के मध्य से इसके ऐसे अनेक दोष सामने आये हैं कि सामान्य विवेकशील मानव इस ओर अरुचि प्रदर्शित करता दिखता है। दिल्ली में आयोजित शाकाहार सम्मेलनों में विभिन्न आहार विशेषज्ञों ने मांस भक्षण से होने वाली अनेक शारीरिक और मनोवैज्ञानिक हानियों का प्रयोगसिद्ध विश्लेषण कर हमें जागरूक बनाया है और जैन मान्यता को पुष्ट किया है । यद्य पे वैज्ञानिकों ने हमारे शास्त्रीय तर्कों को स्थूल माना, और योग साधक' भी आहार की प्रकृति का प्रारंभिक महत्त्व नहीं मानते, फिर भी वे यह २६ तुलसी. प्रज्ञा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76