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भगवतीसूत्र (८/१०) में सम्यक् दर्शन, ज्ञान व चारित्र के भेद से आराधना के तीन भेद किए गए हैं एवं इन तीनों आराधनाओं के उत्कृष्ट, मध्यम एवं जघन्य के भेद से तीन-तीन भेद भी किए गए हैं ।३१
भगवती आराधना एवं प्रकीर्णकों में भी इन चारों आराधनाओं के उत्कृष्ट, मध्यम व जघन्य के भेद से तीन-तीन भेद और किए गए हैं ।३२ अर्थात् साधक इन चारों आराधनाओं का पालन उत्कृष्ट, मध्यम एवं जघन्य इन तीन रूपों में करता है । अतः जो सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप का उत्कृष्ट रूप में आराधन करता है वह उसी भव से मोक्ष प्राप्त कर लेता है तथा जो इन चारों आराधनाओं की मध्यम आराधना करता है, वह कर्म रूपी धूलि से छूटकर तीसरे भव से मोक्ष प्राप्त करता है एवं दर्शन आदि चार भेद रूप जघन्य आराधना की आराधना करके जीव सात-आठ भव से मोक्ष प्राप्त करता है ।२३ मरण समाधि प्रकीर्णक में मध्यम आराधक को चौथे भव से मोक्ष प्राप्ति का निर्देश दिया गया है । चारों आराधनाओं का स्वरूप
श्री अपराजितसूरि ने अपनी विजयोदय टोका में सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा है कि तत्त्वार्थ श्रद्धान को सम्यक दर्शन कहते हैं। स्व और पर के निर्णय को सम्यक् ज्ञान कहते हैं। पाप का बन्ध कराने वाली क्रियाओं के त्याग को चारित्र व इंद्रियों तथा मन के नियमन को तप कहते हैं ।३५ मनुष्य ज्ञान से जीवादि पदार्थों को जानता है । दर्शन से उनका श्रद्धान करता है, चारित्र से (कर्मास्रव का) निरोध करता है और तप से (कर्मों को) विशुद्ध करता है।३६
सम्यक् दर्शन के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए तत्वार्थसूत्र (उमास्वामि) में कहा गया है-तत्वों के अर्थ को समझना और उनके श्रद्धान को अथवा उनमें विश्वास करने जोमयदर्शन कहते हैं । ३० जो जीव उपदिष्ट अर्थात् जिनागम में श्रद्धान करता है वह सम्यग्दष्टि है। जो वीर वचनों का (जिनागम का) श्रद्धान करते हुए सम्यक्त्व में अनरत रहते हैं और धर्म-अधर्म, आकाश, पुद्गल तथा जीव का श्रद्धान करते हैं, उनके दर्शन आराधना होती है । चारित्र विहीन सम्यग्दृष्टि तो (चारित्र धारण करके) मिति प्राप्त कर लेते हैं, किन्तु सम्यक् दर्शन से रहित (जीव) सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते । सम्यक दर्शन युक्त शास्त्रज्ञान व्यवहारज्ञान' है और रागादि की निवत्ति में प्रेरक शुद्धात्मा का ज्ञान निश्चय सम्यक् ज्ञान है। जिससे तत्त्व का ज्ञान होता है, चित्त का निरोध होता है तथा आत्मा विशुद्ध होती है उसी को जिन शासन में ज्ञान कहा गया है।४२ संसार के कारणभूत कर्मों के बन्ध के लिए योग्य जो क्रियाएं हैं उनका निरोध कर शद्ध आत्म स्वरूप का लाभ करने के लिए जो सम्यक् ज्ञान पूर्वक प्रवृत्ति है उसे सम्यक चारित्र या संयम कहते हैं।
सम्यक चारित्र की आवश्यकता को बताते हुए कहा गया है कि सम्यग्दर्शन से रहित साधक उत्कृष्ट चारित्र की साधना करने के बावजूद भी कर्मों की उतनी निर्जरा नहीं कर पाता जितनी कि सम्यक दृष्टि का साधक स्वल्प साधना से कर लेता है। इसलिए संसार रूपी भवसागर को पार करने के लिए सम्यक् दर्शन पूर्वक अणव्रत
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तुलसी प्रज्ञा
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