Book Title: Tulsi Prajna 1990 12
Author(s): Mangal Prakash Mehta
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 23
________________ गया है कि ज्ञान और शील दोनों की संगति ही श्रयस की सर्वांगीण आराधना है । अतः ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना ही श्रेयष्कर है। उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक नामक मूल आगम साहित्य में भी आराधना के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। उत्तराध्ययन में सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप को मोक्ष का साधन बताते हुए, इनका श्रद्धान (आराधन) करने को कहा गया है । दशवैकालिक सूत्र में भी सभिक्षु के लक्षण बताते हुए कहा गया है कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप की आराधना द्वारा पुराने कर्मों को प्रकम्पित (क्षय) करके जो मन, वचन और काय से सुसंवृत्त है, वह भिक्षु है। __ शौरसेनी आगम साहित्य के प्रसिद्ध आचार्य वट्टर द्वारा रचित 'मूलाचार' नामक ग्रन्थ में आराधना के भेद व स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। मूलाचार के बृहद्प्रत्याख्यान संस्तव अधिकार में कहा गया है कि श्रमण को पापों से मुक्त होकर जीवन के अन्तिम क्षणों में सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप इन चार आराधनाओं में स्थित रहकर, क्षुधादि परीषहों पर विजय प्राप्त कर निष्कषाय रहने का आदेश दिया गया है। सम्यक्त्व प्राप्त हो जाने के बाद जीवादि पदार्थों के श्रद्धान को आराधना कहा है । जैनेन्द्र सिद्धांत कोश में आराधना के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि सम्यक् दर्शन, ज्ञान चारित्र व तप इन चारों का यथायोग्य रीति से उद्योतन करना, उनमें पारणति करना, इन को दृढ़तापूर्वक धारण करना, उनके मंद पड़ जाने पर पुनःपुनः जागृत करना और उनका आमरण पालन करना (निश्चय) आराधना है।२४ द्रव्यसंग्रह " में भी इन चारों आराधनाओं सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप का निवासस्थान आत्मा को माना गया है अर्थात् इन चारों की आराधना करना ही आत्मा में निवास करना है। इसीलिए आत्मा को इन चारों आराधनाओं का शरणभूत बतलाया गया है। आराधना के भेद-प्रभेद आराधना के स्वरूप के साथ-साथ उसके भेद-प्रभेद पर भी आचार्यों ने प्रकाश डाला है। भगवती आराधना में सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप के भेद से आराधना के चार भेद बतलाए गए हैं तथा संक्षेप में आराधना के सम्यक्त्व (दर्शन) आराधना एवं चारित्र आराधना ये दो भेद भी किए गए हैं । २७ सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप इन चारों आराधनाओं को कवि ने सम्यक दर्शन व चारित्र इन दो आराधनाओं में ही समाहित कर दिया है। क्योंकि सम्यक दर्शन की आराधना से ज्ञान की एवं चारित्र की आराधना से तप की आराधना नियम से होती है, किन्तु ज्ञान की आराधना करने पर दर्शन की एवं तप की आराधना से चारित्र की आराधना भजनीय है (अर्थात् होती भी है, नहीं भी होती) । प्रकीर्णकों में आराधना के सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र ये तीन भेद बतलाए गये हैं२९ तथा सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप के भेद से आराधना चार प्रकार की भी कही गई है। समन्तभद्रकृत रत्नकरण्ड श्रावकाचार एवं पं. आशाधरकृत अनगारधर्मामृत में सम्यक् दर्शन, ज्ञान व चारित्र इन तीन आराधनाओं का ही वर्णन मिलता है। इसी प्रकार खण्ड १६, अंक ३ (दिस०, ६०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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