Book Title: Tulsi Prajna 1990 12
Author(s): Mangal Prakash Mehta
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 19
________________ बंध अभाव मुक्ति है, यह जानै सब कोय । बंध हेत बरते जहां, मुक्ति कहां से होय ।। -~-पार्श्वपुराण, पद्य-१५३-५४, पृ० १५: १३. जासौं सुख तुम कहत हो, सोई दुःख निदान । सबै सुख तप के किये, मानो वचन प्रमान ॥ जो सुख चाहै तप करो, फेरि घरै मत जाव । जैसी संगति खेलि हो, तैसे परि है दाव ॥ -नेमिचन्द्रिका, पृ० २४-२५ १४. शतअष्टोत्तरी, पद्य-१२, पृ० १० १५. चेतन कर्म चरित्र, पद्य-२८४-८५, पृ० ८३ १६. दसणु णाणु अणंत-सुह समउ ण तुट्टइ जासु। सो पर सासउ मोक्ख-फलु बिज्जउ अस्थि ण तासु ॥ -परमात्मप्रकाश, पृ० १२५ १७. जीव वहंतहं गरय-गइ अभय-पदाणे सग्गु । बे पह जबला दरिसिया जहिं रुच्चइ तहिं लग्गु ॥ वही, पृ० २४३ 1100 (शेषांश पृष्ठ १० का) उसमें कर्म लगने का कोई कारण ही नहीं बनता। कर्म को आत्मा से पहले मानें तो जीव के बिना कर्म करेगा कौन ? जीव और कर्म के सम्बन्ध का आदि नहीं है । उनका सम्बन्ध अपश्चानुपूर्विक ही है। ___Madical science ने भी शरीर और मन के सम्बन्ध को स्वीकार किया है। वे परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं अतः उनमें परस्पर सम्बन्ध है। भाव शरीर की बीमारी को पैदा करता है । ईर्ष्या से अल्सर इत्यादि रोग हो जाते हैं। शरीर भाव को प्रभावित करता है। यदि लीवर खराब है तो भाव विकृत हो जाएगा। शरीर और आत्मा में सम्बन्ध है अतएव उनमें अन्तक्रिया होती है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि अनेकान्त दृष्टि से जीव और शरीर में भेदाभेद है । जैन दर्शन के अनुसार संसारी आत्मा कथंचित् मूर्त है। वह पुद्गल (कर्म) युक्त है । आश्रव जीव एवं शरीर के सम्बन्ध का सेतु है । संसारी अवस्था में जीव और शरीर को पृथक् नहीं माना जा सकता। संदर्भ: १. स्याद्वाद मञ्जरी, पृ० १३८ ४. भगवई, १३/१२८ २. भगवई ५. आयारो ३. वही 000 खण्ड १६, अंक ३ (दिस०, ६०) • Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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