Book Title: Tulsi Prajna 1990 12
Author(s): Mangal Prakash Mehta
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 17
________________ लिए मोक्ष की भूमिका तैयार हो जाती है । संवर के लिए मन, वाणी और कर्म की स्वच्छन्द प्रवृत्तियों पर नियंत्रण आवश्यक है। पंचेन्द्रियां जीव को सदैव पाप कर्मों में लिप्त रखती हैं । उनकी प्रीति से जीव घोर दुःख सहता है और दीर्घ काल तक संसार में परिभ्रमण करता है । मन इंद्रियों का राजा है । वह आठों प्रहर इंद्रियों को कार्य के लिए प्रेरित करता रहता है । इन्द्रियों द्वारा मन की संगति से विषयों की इच्छा तीव्र होती है, विषयासक्ति जीव की मुक्ति प्राप्ति में बाधक है । अतः संवर के लिए रागादि से सम्बन्ध तोड़कर इन्द्रियों से मन मोड़कर आत्मा से प्रीति करनी चाहिए । 'पार्श्वपुराण' के रचयिता ने भी 'संवर' तत्व को मोक्ष मार्ग का प्रकाशक माना है । ' मानव की सम्पूर्ण साधना की सफलता इसी पर निर्भर है । निर्जरा : मोक्ष के दो हेतु हैं - एक संवर और दूसरा निर्जरा । संचित कर्मों का आत्मा से पृथक् हो जाना निर्जरा है । 'संवर' से यद्यपि नवीन कर्मों का आना रुक जाता है तथापि पुरातन कर्म तो आत्मा में संचित ही रहते हैं; उनको ही दूर करने के लिए आत्मा को विशेष प्रयास की आवश्यकता होती है क्योंकि वे एक साथ आत्मा से विलग नहीं हो जाते, अपितु क्रम-क्रम से दूर होते हैं । कर्मों के इसी क्रम क्रम से दूर होने को निर्जरा कहते हैं । 'नेमिचन्द्रिका' में कवि सफल निर्जरा की प्राप्ति के लिए आत्मध्यान अर्थात् तपश्चर्या को अनिवार्य माना है । तप द्वारा कर्म - श्रृंखला छिन्न-भिन्न होती है और जीव मुक्तावस्था प्राप्त करता है । इस प्रकार आत्म ध्यान ही सर्वश्रेष्ठ है और इसके द्वारा ही जीव को निर्जरावस्था प्राप्त होती है । इस अवस्था के पश्चात् मोक्षप्राप्ति होती है । मोक्ष : बन्ध के अभाव का नाम ही मुक्ति या मोक्ष है । आत्मा अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख आदि से युक्त हो जाता है । मोक्ष की अवस्था में आत्मा पूर्ण स्वतंत्र होकर अपनी अनुपम आभा से प्रभासित हो उठता है । यही आत्मा की सिद्ध और सर्वोच्च अवस्था है ।" यहां के सुख अनुपमेय हैं । 'चेतन कर्म चरित्र' में कवि ने उल्लेख किया है कि मोक्ष चेतन के लिए शिव-सुख स्वरूप अविचल धाम है । यहां पहुंचकर चेतन अनंत काल तक ध्रुव विश्राम करता है, जन्म-जरा-मरण के चक्र से सदैव के लिए मुक्त हो जाता है ।" 'परमात्मप्रकाश' में भी मोक्ष प्राप्ति का उल्लेख है । १६ अहिंसा : अहिंसा का मूलाधार जीवदया है। जीवदया ही उत्तम धर्म है । जैन कवियों अहिंसा के प्रति अपनी आस्था प्रकट की है । 'परमात्मप्रकाश' में कवि ने अहिंसा तत्व का वर्णन करते हुए लिखा है कि जीवों की हिंसा से नरकगति प्राप्त होती है और अभयदान देने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है । अतः सर्वथा हिंसा त्यागकर अहिंसा का मार्ग ग्रहण करना चाहिये ।" 'जसहर चरिउ' की रचना अहिंसा के व्यापक प्रभाव को ही खण्ड १६, अंक ३ ( दिस०, ६० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only १३ www.jainelibrary.org

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