Book Title: Tulsi Prajna 1990 12
Author(s): Mangal Prakash Mehta
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 20
________________ भगवती आराधना एवं प्रकीर्णकों में आराधना का स्वरूप 17 जिनेन्द्र कुमार जैन* आराधना विषयक ग्रंथ शौरसेनी जैन आगम साहित्य में शिवार्यकृत 'भगवती आराधना' एवं अर्धमागधी आगम साहित्य में 'प्रकीर्णकों' का प्रतिपाद्य विषय लगभग समान है । इन दोनों ग्रन्थों आराधना एवं संलेखना का विस्तृत वर्णन किया गया है । इन ग्रन्थों की अनेक गाथाएं भी एक-दूसरे में समान पायी जाती हैं। इन दोनों ग्रन्थों के आधार पर यहां आराधना के स्वरूप का विवेचन प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है । भगवती आराधना का मूल नाम 'आराधना है ।' किन्तु कवि ने अपनी कृति को परम आदरभाव व्यक्त करने के लिए आराधना से पहले 'भगवती' विशेषण लगाया है । इस ग्रन्थ के टीकाकार श्री अपराजित सूरि ( १० वीं शताब्दी) ने भी टीका के अन्त में इसका नाम 'आराधना' दिया है । इसी प्रकार देवसेन ने भगवती आराधना के आधार पर एक ग्रन्थ की रचना की थी जिसका नाम उन्होंने “आराधनासार" दिया है । " आचार्य अमितगति ने भी संस्कृत पद्यों में एक ग्रंथ लिखा जिसका नाम उन्होंने "आराधनैषा' अथवा 'आराधना' ही दिया है । भगवती आराधना के सम्पादकों एवं अन्य विद्वानों ने इस ग्रंथ के नामकरण, रचनाकाल आदि पर विशेष प्रकाश डाला है । भगवती आराधना आचार्य शिवार्यकृत भगवती आराधना के नाम से ही स्पष्ट प्रतीत होता है कि प्रस्तुत ग्रंथ में आराधना के भेद-प्रभेद व स्वरूप आदि का वर्णन किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द के बाद संभवतः ईसा की दूसरी शताब्दी में रचित इस ग्रंथ में कुल २/६४ गाथाएं हैं। जिनमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र व सम्यग्तप इन चार प्रकार की . आराधनाओं के साथ - साथ ५ मरण, १२ तप, संलेखना एवं श्रावक धर्म आदि का वर्णन किया गया है । चूंकि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप की आराधना से ही जीव मोक्ष प्राप्त कर सकता है, इसलिए ग्रन्थकार ने प्रथम २४ गाथाओं में आराधना के भेद, स्वरूप व इन चारों के सम्बन्ध आदि का वर्णन ग्रंथ में सबसे पहले किया है । प्रकीर्णक साहित्य अर्धमागधी आगम साहित्य में प्रकीर्णकों की संख्या १० मानी गई है ।" जिनमें आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा तथा मरणसमाधि नामक प्रकीर्णकों में * २१४, हिरनमगरी, से० ७, उदयपुर (राज० ), पिन - ३१३००१ । १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा www.jainelibrary.org

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