Book Title: Tulsi Prajna 1990 12
Author(s): Mangal Prakash Mehta
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 10
________________ जीव और शरीर के सम्बन्ध सेतु समणी मंगलप्रज्ञा विश्व-प्रहेलिका को सुलझाने का प्रयत्न सभी दार्शनिकों ने किया है । जगत् की व्याख्या सभी ने अपनी दृष्टि से भिन्न-भिन्न प्रकार से की है। सभी के सामने यह प्रमुख समस्या थी कि इस जगत् का नियामक तत्व क्या है ? जगत् का सम्पूर्ण प्रपंच एक तत्व का विस्तार है अथवा अनेक तत्वों की समन्विति है । द्वैतवादी और अद्वैतवादी विचारधारा विश्व-व्याख्या के संदर्भ में दो प्रकार की विचारधाराओं का प्रस्फुटन हुआ--द्वैतवादी और अद्वैतवादी । अद्वैतवादियों ने एक तत्व के आधार पर विश्व-व्याख्या प्रस्तुत की । द्वैतवाद ने दो तत्वों को विश्व व्याख्या में आधारभूत बनाया । अद्वैतवाद में भूताद्वैत तथा चैतन्याद्वैत प्रसिद्ध है । भूताद्वैतवादियों के अनुसार यह जगत् जड़ द्रव्य से पैदा हुआ है । जड़ से भिन्न किसी चेतन नामक द्रव्य का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। चेतन की उत्पत्ति जड़ से ही हुई है । चेतनाद्वैतवाद में कहा है-सम्पूर्ण जगत् चेतनामय है । चेतन भिन्न जड़ का कोई अस्तित्व नहीं है । चेतनाद्वैत (ब्रह्माद्वैत) में वेदान्त तथा भूताद्वैत (जड़ाद्वैत) में चार्वाक का शीर्षस्थ स्थान है। द्वतवाद की जगत् व्याख्या दो तत्वों की फलश्रुति है। उनके अनुसार यह दृश्यमान चराचर जगत् न केवल जड़ से पैदा हुआ है और न ही चेतन से । चेतन तथा जड़ की समन्विति से ही यह जगत् है । चेतन जड़ को पैदा नहीं कर सकता। अचेतन चेतन का उत्पत्तिकारक नहीं है । दोनों का स्वतः स्वतन्त्र अस्तित्व है। इन दोनों के योग से सृष्टि का जन्म होता है, यह द्वैतवाद की अवधारणा है। अद्वैतवाद के सामने सम्बन्ध की समस्या नहीं थी यद्यपि ब्रह्म (चेतन) से जड़ अथवा जड़ से चेतन की उत्पत्ति कैसे हुई यह समस्या उनके सामने थी परन्तु दो विसदृश तत्वों का योग कैसे हुआ यह कठिनाई उनके समक्ष नहीं थी। द्वैतवादी दर्शनों को इस समस्या से जूझना पड़ा। दो विसदृश पदार्थों का परस्पर सम्बन्ध कैसे हो सकता है, इसका समाधान देना उनके लिए आवश्यक हो गया था। राजप्रश्नीय एवं सूत्रकृतांग सूत्र में तज्जीव तच्छरीरवाद का उल्लेख है। तज्जीव तच्छरीरवाद के सामने सम्बन्ध की समस्या नहीं थी । सांख्य प्रकृति एवं पुरुष ये दो तत्व मानता है। पुरुष अमूर्त, अकर्ता है। उसने बन्ध पुरुष को माना ही नहीं है। उनके अनुसार प्रकृति ही बन्धती है और वही मुक्त होती है। "प्रकृतिरेव मानापुरुषाश्रया सती बध्यते संसरति मुच्यते च न पुरुष इति ।। तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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