Book Title: Tulsi Prajna 1990 12
Author(s): Mangal Prakash Mehta
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 12
________________ (१) निराकार आत्मा साकार पीनियल में कैसे रहती है ? (२) दो भिन्न तत्वों में परस्पर अन्तक्रिया कैसे हो सकती है ? (३) देकार्ते का यह सिद्धान्त शक्ति संरक्षण के विरुद्व है। यह नहीं कहा जा सकता कि शारीरिक घटनाओं से मानसिक घटनाएं और मानसिक से शारीरिक घटनाएं होती हैं। देकार्ते के सिद्धान्त में उपर्युक्त कठिनाइयां होते हुए भी आधुनिक वैज्ञानिक शरीर और मन में अन्तक्रिया मानते हैं। इस समस्या को सुलझाने के लिए चिन्तकों का ध्यान केन्द्रित हुआ है तथा इसको सुलझाने के लिए प्रयत्न भी किए हैं। जैन दर्शन की मान्यता जैन दर्शन द्वैतवाद का पक्षधर है। इसके अनुसार जड़ और चेतन ये दो तत्व विश्व-व्यवस्था के नियामक हैं। दोनों का स्वभाव एवं अस्तित्व स्वतन्त्र है । चेतन और अचेतन अत्यन्ताभाव हैं फिर भी उनका परस्पर सम्बन्ध स्वीकार किया गया है । सिद्धसेन दिवाकर ने कहा-संसारी आत्मा कर्म के साथ क्षीर एवं नीर की तरह मिली हुई है, अतः अभिन्न है तथा उनका तात्त्विक अस्तित्व स्वतन्त्र है, अतः वे परस्पर भिन्न भी हैं । संसारावस्था में जड़, चेतन में परस्पर क्षीर-नीर की तरह एकीभाव सम्बन्ध है। जो अनुसंचरण करने वाला जीव है वह पुद्गल के साथ घुला-मिला है इसलिए चेतन और अचेतन सर्वथा स्वतन्त्र नहीं है । भगवती सूत्र में जीव और पुद्गल के सम्बन्ध सेतुओं का निरूपण करते हुए कहा गया है-"अत्यि णं जीवा य पोग्गला य अण्णमण्णबद्या, अण्णमण्णपुट्ठा, अण्णमण्णमोगाढा, अण्णमण्णसिणेहपडिबद्धा, अण्णमण्णघडताए चिट्ठ।" जीव और पुद्गल परस्पर बद्ध हैं, स्पृष्ट हैं, अवगाहित हैं, स्नेह से प्रतिबद्ध हैं । जीव और पुद्गल में आपस में मिलने की प्रायोग्यता को स्नेह कहा गया है। आश्रव जीव का स्नेह है तथा आकर्षित होने की अर्हता पुद्गल का स्नेह है । जीव में धन शक्ति है तथा पुद्गल में ऋण शक्ति है अतः वे परस्पर मिल जाते हैं। भगवती में भगवान् महावीर ने एक उदाहरण के द्वारा जीव और पुद्गल के परस्पर सम्बन्ध को स्पष्ट किया है। तालाब में पानी है। उसमें सैकड़ों छिद्रवाली नौका है। जिस प्रकार वह नौका पानी से भर जाती है वैसे ही जीव के छिद्र आश्रव हैं, कर्म रूपी पानी उन आश्रव रूपी छिद्रों में भर जाता है। राग-द्वेष से युक्त आत्मा के कर्म बंधते हैं। "स्नेहाभ्यक्तशरीरस्य रेणुना श्लिष्यते यथा गात्रम् । रागद्वेषक्लिन्नस्य कर्मबन्धो भवत्येव ॥" राग-द्वेष से युक्त आत्मा के कर्मों का बन्ध होता है। प्रश्न फिर भी बना रहता है कि जीव और पुद्गल के आपसी सम्बन्ध का सेतु क्या है ? इनका परस्पर सम्बन्ध कैसे होता है ? दोनों परस्पर विरोधी स्वभाव वाले हैं । चेतन अमूर्त और जड़ मूर्त है ? क्या इनका सम्बन्ध करवाने वाला कोई तीसरा पदार्थ है। जैसा कि न्याय-वैशेषिक ने द्रव्य और गुण में परस्पर सम्बन्ध करवाने के लिए तीसरे समवाय पदार्थ को स्वीकृति दी। ईश्वर को जड़-चेतन से सम्बन्धित करवाने के लिए स्वीकार किया है । जैन-दर्शन ने जगत् निर्माण में किसी भी ईश्वरीय शक्ति को स्वीकृति नहीं दी है। उन्होंने इस समस्या को समाहित करने का यौक्तिक प्रयत्न किया । जीव और पुद्गल का भौतिक सम्बन्ध तुलसी प्रशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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