Book Title: Tulsi Prajna 1990 12
Author(s): Mangal Prakash Mehta
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 5
________________ अहिंसा और अपरिग्रह सिद्धान्त का सम्बन्ध निरूपण समणी मल्लिप्रज्ञा "अपरिग्रह-दर्शन" नामक अध्याय में अपरिग्रह सिद्धांत की विभिन्न दृष्टियों से व्याख्या प्रस्तुत की गई है । एक और महत्वपूर्ण पक्ष है जिस पर स्वतंत्र रूप से प्रकाश डाला जा सकता है अतः यहां पर अपरिग्रह का अहिंसा के साथ संबंध का निरूपण किया जा रहा है । प्राचीन साहित्य में दोनों तत्वों को समान महत्व दिया गया तथा एक के लिए दूसरे को कसौटी के रूप में विश्लेषित किया गया । कालान्तर में पैसे को परमेश्वर मानने की अवधारणा जोर पकड़ती गई । परिणाम यह हुआ कि अपरिग्रह की चर्चा अतीत की स्मृति बनकर रह गई । आज सभी समस्याओं का जो केन्द्रक बन गया है वह है-परिग्रह । जब तक संग्रह अथवा पकड़े रखने की मनोवृत्ति कम नहीं होगी तब तक अहिंसा की बात भी गले नहीं उतर सकती । अतः अहिंसा को तेजस्वी बनाने के लिए अपरिग्रह के व्यावहारिक रूप परिग्रह परिणाम को जीवन व्यापी बनाना ही होगा। इस कथन से यह सिद्ध हो गया कि अहिंसा के लिए अपरिग्रह और अपरिग्रही के लिए अहिंसा एक अनिवार्य तत्व है। अहिंसा और अपरिग्रह के मध्य विभिन्न दृष्टिकोणों से संबंध की विवेचना की जा रही है। एक कपड़े के दो छोर अहिंसा और अपरिग्रह में घनिष्ट संबंध है । ये दोनों कपड़े के दो छोर हैं। एक छोर का स्पर्श करेंगे तो स्वतः दूसरा पक्ष स्पंदित होगा तथा दूसरे का प्रभाव पहले पर पड़ेगा ही। जैन धर्म में पांच महाव्रतों की चर्चा उपलब्ध होती है। वहां पर भी यही भावना प्रतिध्वनित होती है कि एक साधक अहिंसा से यात्रा प्रारंभ करता है और मंजिल के रूप में अपरिग्रही बन जाता है । इसी प्रकार कोई साधक अपरिग्रह से चलता है तो उसकी अहिंसा में जाकर यात्रा संपन्न हो जाती है। किसी भी कीमत पर इन दोनों का अलग-अलग अभ्यास नहीं किया जा सकता है। इसलिए दोनों को एक कपड़े के दो छोर कहना सार्थक है। शब्द संयोजना और निकटता शब्द रचना की दृष्टि से भी दोनों में अद्भुत सामंजस्य परिलक्षित होता है। केवल शब्द विश्लेषण से ही इनके कार्य-कारण संबंध की स्थापना हो जाती है। बम १० (दिस०, १०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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