Book Title: Tulsi Prajna 1978 10
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 11
________________ सफल नहीं हो पाई तब कुछ लोगों ने अहिंसात्मक दृष्टिकोण अपनाया। अपराधी को यातना देने के स्थान पर उसे रचनात्मक क्षेत्र दिया गया। अधिकारियों की आत्मीयता, वातावरण की स्वस्थता और सम्मानपूर्ण जीवन जीने की चाह ने व्यक्ति को बहुत अधिक रूपान्तरित कर दिया। इस सुफल को देखा इस दिशा में नई शोध हुई, नए प्रयोग हुए और आज अहिंसा के प्रयोक्ताओं में इस वर्ग को सहज रूप से सम्मिलित किया जा रहा है। एक युग था जब सामाजिक संघर्ष की स्थिति में जाति बहिष्कार जैसी परम्पराएं प्रचलित थीं। जन-जीवन में आतंक और प्रतिशोध के भाव व्याप्त थे । आज ऐसा कुछ नहीं है, यह बात तो नहीं है। फिर भी अहिंसा के प्रति आस्थाशील कुछ व्यक्ति सामाजिक संघर्षों को भी अहिंसा के धरातल पर समाप्त करने का प्रयत्न कर रहे हैं। ऐसे प्रयासों से भी अहिंसा का वर्चस्व बढ़ा है। परिवार समूह-चेतना की दृष्टि से सबसे छोटी संस्था है । एक परिवार के सदस्य भी कभी-कभी विचार-भेद के तीव्र आक्रमण से आक्रान्त हो जाते हैं। पिता-पुत्र के मध्य संघर्ष छिड़ जाता है। मां-बेटी में अनबन हो जाती है । भाई-भाई में दुराव हो जाता है । पति-पत्नी में बोलचाल तक बन्द हो जाती है। ऐसे विषम वातावरण में अहिंसा के प्रयोक्ता शान्ति स्थापित कर देते हैं। इससे आग्रह की दीवारें टूट जाती हैं और जीवन सरल बन जाता है । सन्देह की उभरती हुई रेखाएं सम हो जाती हैं और पारस्परिक विश्वास प्रगाढ़ हो जाता है। अपने व्यक्तिगत जीवन में भी अहिंसा के प्रयोग करने वालों की संख्या कम नहीं है। जिन लोगों की आध्यात्मिक रुचि परिष्कृत है। जो कर्मणा धार्मिक हैं । जो धर्म को जीवन के रूपान्तरण की प्रक्रिया मानते हैं, उन्हें अहिंसा के प्रयोग करने ही होते हैं । इस प्रकार व्यक्ति से शुरू हुए ये प्रयोग अन्तर्राष्ट्रीय क्षितिज तक लोक जीवन को प्रभावित करते हैं और आनन्द का अनाबाध मार्ग प्रशस्त करते हैं। जिन लोगों ने अपने जीवन में अहिंसा का प्रयोग किया है, उनके लिए यह असंदीन द्वीप के समान है । असंदीन द्वीप में रहने वालों के सामने कभी जल का खतरा नहीं रहता। वे सदा निश्चिन्त रहते हैं । भयंकर तूफान भी उन्हें आतंकित नहीं कर पाता । अहिंसा की अर्हता तो इससे लाख गुना अधिक है, इसलिए इसकी छत्र-छाया में रहने वाले ब्यक्ति किसी भी क्षण संत्रस्त नहीं हो सकते । सारा संसार प्रवाह के पीछे-पीछे चल रहा है, किन्तु जो व्यक्ति कुछ होना चाहता है, कुछ प्राप्त करना चाहता है, कुछ ग्रहण करना चाहता है, उस व्यक्ति को अपनी आत्मा को प्रतिस्रोत में लगा देना चाहिए । स्रोत के साथ-साथ नहीं चलना चाहिए। -दशवकालिक सूत्र, द्वितीय घूलिका, सूत्र २ खण्ड ४, अंक ३,४ १९५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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