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और अनुभूति की सजगता का मणिकांचन संयोग वादिराज के वर्णनों में सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। षष्ठ अध्यायः तात्कालिक स्थिति
पाश्वनाथ चरित के आन्तरिक अनुशीलन से उसमें प्रतिबिम्बित तात्कालिक स्थिति की झांकी दिखलाई पड़ती है। प्रकृत अध्याय में उसी का विवेचन किया गया है। तत्कालीन समाज में वर्णाश्रम व्यवस्था का पर्याप्त प्रभाव था। वैदिक और श्रमण दोनों ही सम्प्रदायों में ब्राह्मण वर्ण मौजूद था। चाण्डालों को अस्पृश्य माना जाता था। परिवार में कटु और मधुर उभयविध सम्बंध रहते थे। पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, पुत्रोत्पत्ति, नामकर्म, चौलकर्म, आदि संस्कारों ने धार्मिक मान्यता प्राप्त करली थी। अतएव उनका करना आवश्यक माना जाता था। सामान्यत: निरामिष भोजन का ही प्रचलन था, परन्तु जंगली जातियों में सामिष भोजन भी किया जाता था। चावल की विविध किस्में प्रयुक्त होती थी। उस समय इक्षुरस और मदिरा मुख्य पेय था । पहिनने के वस्त्रों में मुख्य रूप से ऊर्ध्ववस्त्र और अधोवस्त्र इन दो वस्त्रों का प्रयोग होता था। विट, अभिसारिका एवं वेश्या की वेषभूषा भिन्न होती थी। मनोविनोद के साधनों में प्रहासगोष्ठी, नृत्य, गान, वाद्य, गृहारामभ्रमण, दोलालीला आदि का प्रमुख स्थान था। वाद्यों में वल्लकी, पटह, वेणु, वीणा, दुदुभि, पणव, तुणव, मंजीर आदि का प्रयोग होता था। आभूषणों के रूप में कुण्डल, अवतंस, मणिहार, मुक्ताहार, वलय, अंगद, कांचनमेखला, मणिमेखला, किंकिणी, नूपुर, मणिनूपुर आदि का प्रयोग किया जाता था। प्रसाधन के साधनों में चन्दनलेप, केसरलेप, आम्रपल्लव, केसरपक्ष, कमलिनीपत्र, पद्मकुड्मल, कुकुमलेप, अंजन, दर्पण आदि का उपयोग होता था। आवागमन के साधनों में हाथी, घोड़ा, टटू, पालकी आदि का उपयोग किया जाता था। जीविकोपार्जन के साधनों में कृषि, व्यापार और दुकानदारी का प्रमुख स्थान था।
वादिराज का समय राजनीति का संक्रमण काल था। अतः राजनीतिक परिस्थितियों का प्रभाव भी पार्श्वनाथचरित में परिलक्षित होता है। राजा और मंत्री का उत्तराधिकार प्रायः परम्पर या ज्येष्ठ पुत्र को ही मिलता था, किन्तु जेयष्ठ पुत्र के अयोग्य होने पर छोटे पुत्र को भी दिया जा सकता था। युवराज पद के लिए यौवराज्याभिषेक और राजपद के लिए राज्याभिषेक किया जाता था। राजा के आधीन अनेक अधिकारी और सेवक होते थे प्रजा की आन्तरिक स्थिति का पता लगाने के लिए एक गुप्तचर विभाग भी होता था। उस समय राजा और प्रजा के सम्बन्ध अत्यन्त मधुर थे। राजा की आय के साधनों में प्रजा से प्राप्त कर प्रमुख थे । न्याय और दण्डव्यवस्था अत्यन्त सुदृढ़ थी। देश की रक्षा के लिए एक सैन्य विभाग होता था।
शिक्षा के केन्द्रों में आश्रमों का महत्त्वपूर्ण स्थान था। गुरु और शिष्य के परस्पर अत्यन्त मधुर संबंध थे। पाठयक्रम में वेद, जैनागम, धर्मशास्त्र, राजनीति शास्त्र, शस्त्रास्त्र विद्या आदि का अध्ययनाध्यापन होता था। इस प्रकार पार्श्वनाथचरित में आज से 950
खण्ड ४, अंक ३-४
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