Book Title: Tulsi Prajna 1978 10
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 50
________________ कवि के गतप्रत्यागत, अपवर्ग, निरोष्ठ्य, गोमूत्रिका आदि चित्रालंकार विशेष प्रभावी है । अर्थालंकारों में लगभग 25 अलंकारों का रसानुकूल सन्निवेश है, जो चमत्कृति के साथ ही भावों को भी उद्वेलित करता है । सम्पूर्ण पार्श्वनाथचरित में सर्वत्र अलंकारों की व्यापकता दृष्टिगत होती है, किन्तु अलंकारों के आवरण से भावसौन्दर्य में मन्दता नहीं आई है । अलंकारों ही की तरह पार्श्वनाथचरित की छन्दोयोजना भी अत्यन्त विस्तृत है । कवि ने 25 से भी अधिक छन्दों का प्रयोग करके अपने पाण्डित्य का अनुपम परिचय दिया है । प्रयोग की दृष्टि से पार्श्वनाथचरित में अनुष्टुप, वंशस्थ, वियोगिनी, मालभारिणी, पुष्पिताग्रा और उपजाति का प्रयोग अधिक हुआ है । मालभारिणी जैसे अप्रचलित छन्द का पर्याप्त प्रयोगवादिराज जैसे समर्थ कुशल कलाकार द्वारा ही संभव हो सका है। पार्श्वनाथचरित का षष्ठ सर्ग तो छन्दों का अजायबघर है । एक दो छन्दों को छोड़कर शेष सभी छन्दों का प्रयोग इस सर्ग में हुआ है । वादिराज ने पार्श्वनाथचरित में वैदर्भी रीति और प्रसादगुण का बहुतायत प्रयोग किया है । किन्तु माधुर्य और ओजगुण का प्रयोग भी यथास्थान हुआ है । प्राय: सभी आलंकारिकों ने काव्य की निर्दोषता पर अधिक बल दिया है, किन्तु कालिदास जैसे समर्थ कवि भी दोषों से बच नहीं सके हैं । वादिराज के पार्श्वनाचरित में भी च्युतसंस्कृति, अप्रयुक्तत्व, अविमृष्टविधेयांश आदि कुछ दोष दृष्टिगत होते हैं । इतना होने पर भी अनेक गुणों के मध्य एकाध दोष काव्य में उसी प्रकार अपकर्ष नहीं करता है, जैसे कि चन्द्रमा के मध्य में स्थित कलंक चन्द्रमा का अपकर्ष नहीं करता है । इस प्रकार इस अध्याय में महाकाव्यत्व, रस, छन्द, अलंकार, गुण और दोषों का विवेचन किया गया है । पञ्चम अध्याय : वर्णन इस अध्याय में महाकाव्य के वर्ण्यविषयों का चित्रण किया गया है । प्रकृतिचित्रण ator का अनिवार्य तत्त्व है । प्रकृतिचित्रण के दोनों रूपों-आलम्बन और उद्दीपन - का चित्रण पार्श्वनाथचरित में हुआ है । वादिराज के प्रकृतिचित्रण की यह विशेषता है कि कहीं वह मादक वातावरण पाकर श्रृंगार का उद्दीपन करता है तो कहीं शान्त वातावरण में शान्त रस का संचार | कालिदास आदि महाकवियों की तरह वादिराज ने भी पार्श्वनाथचरित में प्राकृतिक वर्णनीय विषयों में चन्द्रोदय, सूर्योदय प्रातः, मध्याह्न, संध्या, रात्रि, पर्वत, नदी, वन, आश्रम, नगर, रतिक्रीडा, जलक्रीडा, मदिरापान, पुत्रजन्मोत्सव, मन्दिर, युद्ध, षड्ऋतु आदि का वर्णन किया है । इनमें ऋतुओं का वर्णन कवि की स्वाभाविक उत्प्रेक्षाओं से अलंकृत होकर ललित शब्दावली की शोभा से सहज ही पाठकों का चित्त आकृष्ट कर लेता है । उनके ऋतुवर्णन में शीतल मंद सुगंधित समीर, पुष्पों का अलौकिक सौन्दर्य, भ्रमरों का गुजार, पक्षियों का कलरव, युवतियों का नाचगान, स्त्रीपुरुष के विप्रलंभ का वर्णन मानatr सुख-दुख की भावनाओं के आधार पर किया है । इन प्राकृतिक वर्णनों के अतिरिक्त नारी का परम्परागत नखशिखवर्णन कवि की सूक्ष्म दृष्टि और कल्पना का अद्वितीय नमूना है । उनके वर्णन में कला और भावों का अद्भुत संयोजन हुआ है । कला की सशक्तता तुलसी प्रज्ञा २३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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