Book Title: Tulsi Prajna 1978 10
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 48
________________ भारत के धार्मिक जीवन में तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जीवनचरित अत्यन्त रोचक एवं घटनाप्रधान है । अनेक कवियों ने उनके पवित्र संदेश का प्रचार करने के लिए प्राचीन भारतीय आर्य भाषाओं - संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश - में बीस से भी अधिक काव्यों का प्रणयन किया है । संख्या की दृष्टि से ही नहीं, भावों की दृष्टि से भी ये काव्य अत्यन्त प्रभावशाली हैं । इनमें संस्कृत भाषा में लिखित पार्श्वनाथचरित अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । यद्यपि इसके पूर्व पाश्वभ्युदय की रचना जिनसेनाचार्य ने मेघदूत की समस्यापूर्ति के रूप में की थी, किन्तु उसमें जीवन की एकाध घटना का ही समावेश हो पाया है। प्रथम अध्याय में संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में रचित समस्त पार्श्वनाथ विषयक काव्यों का भी परिचय समाविष्ट कर लिया गया है । द्वितीय अध्यायः ग्रन्थकार और ग्रन्थ इस अध्याय में वादिराजसूरि का विस्तृत परिचय प्रस्तुत किया गया है । संस्कृत साहित्य के विशाल भाण्डार के अनुशीलन से वादिराज नामक अनेक विद्वानों का पता चलता है । जिन वादिराज के सरस एकीभावस्तोत्र से धार्मिक समाज, न्यायविनिश्चयविवरण से तार्किक समाज और यशोधरचरित से साहित्यिक समाज सर्वथा सुपरिचित है, वही पार्श्वनाथचरित महाकाव्य के रचयिता हैं । वादिराज द्राविडसंघान्तर्गत नन्दिसंघ की अरुंगल शाखा के विद्वान् थे । दक्षिण भारत में उस समय दिगम्बर और श्वेताम्बरों के अतिरिक्त यापनीय नामक एक स्वतंत्र सम्प्रदाय भी प्रचलित रहा है। इस यापनीय सम्प्रदाय में भी एक नन्दिसंघ था, किन्तु वादिराज का संबन्ध इस नन्दिसंघ से नहीं था । द्राविड़ संघ की उत्पत्ति विक्रमादित्य की मृत्यु के 526 वर्ष बाद हुई थी । इन्द्रनन्दि ने इसे जैनाभास माना है, किन्तु इस संघ में कोई मौलिक जैनधर्मं विरोधी मान्यता दृष्टिगत नहीं होती, जिसके कारण इसको जैनाभास कहा जाय । वादिराज की जन्मभूमि और माता-पिता के विषय में कोई प्रमाण नहीं मिलता है । द्राविडसंघीय होने से इनका दाक्षिणात्य होना निश्चित है । इनके दादागुरु का नाम श्रीपाल देव और गुरु का नाम मतिसागर था । शाकटायन व्याकरण की टीका 'रूपसिद्धि' के रचयिता दयापाल मुनि इनके सतीर्थ थे । कवि का असली नाम वादिराज था या उपाधि ? इसमें वैमत्य है । किन्तु वादिराज ने पार्श्वनाथचरित की प्रशस्ति और यशोधरचरित में अपना नाम वादिराज ही लिखा है, अतएव इनका वास्तविक नाम वादिराज ही मानना चाहिए | वादिराज ने पार्श्वनाथचरित की रचना शक सं. 947 ( 1025) ई० में चालुक्य चक्रवर्ती महाराज जयसिंह की राजधानी 'कट्टगेरी' (?) में की थी । यह दक्षिण भारत में बादामी से 12 मील दूर एक प्राचीन नगर है। पार्श्वनाथचरित, यशोधरचरित एकीभावस्तोत्र, न्यायविनिश्चय विवरण और प्रमाण-निर्णय ये पाँच वादिराज की असंदिग्ध कृतियां हैं । वादिराज की प्रशंसा में अनेक प्रस्तरलेख और उल्लेख मिलते हैं । वादिराज दक्षिण भारतीय भट्टारक सम्प्रदाय के थे, जो मठाधीशों का सम्प्रदाय रहा है। जिन दक्षिणभारतीय विद्वानों ने संस्कृत २३२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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